28 मार्च 2012

चोर के दाढ़ी में तिनका उर्फ चोर चोर मौसेरे भाई उर्फ चोर बोले जोर से....


अरूण साथी-(व्यंग्य)
बचपन से ही मास्टर जी समझाते रहें चोर की दाढ़ी में तिनका तथा चोर चोर मौसेरे भाई का अर्थ पर इ खोपड़िया में आज तक नहीं घुसा और आज अचानक जब दिल्ली के संसद भवन का लाइव शो देखा तो बात समझ में आ गई। 
     गांव में एक किस्सा है कि काजी साहब के अदालत में मुकदमा आया चोर को पकड़ने का और कई लोग थे, काजी साहब ने तुक्का मारा जिसके दाढ़ी में तिनका होगा वही चोर, असली चोर ने तुरंत अपनी दाढ़ी साफ करनी चाही और धरा गया..। यहां किसको धरियेगा सब अपनी अपनी दाढ़ी साफ करने में लग गए..। जय हो जय हो।
    एक किस्सा और, एक बार गांव के बड़का जमींदार के बेटा मेरे मुर्गीखाने से मुर्गी चुरा कर भाग रहा था। मैंने देख लिया, आवाज लगाई, पर वह रूका नहीं। मैं भी कहां रूकने वाला था। रूकता भी काहे। बड़े लाड़ प्यार से पाला था उसे, भविष्य के सपने भी संजोए थे। बड़का बड़का सपना, मुर्गी के सहारे। एक मुर्गी कई अंडे, अंडों से चूजा, चूजों से फिर मुर्गी और फिर उसे बेच कर बेटे का नाम स्कूल में लिखवानी थी। बेटा पढ़ लिखकर कर चपरासी बनता और घर मे दो सांझ चुल्हा जलता, पेट में दो जून रोटी जाती और अपना जिनगी भी चैन से कटता। पर उसी को चुरा लिया, जमींदार साहब के बेटा मंुगेरना। अब गांव में मुंगेरना का धाक भी बड़का भारी था। जमींदारी भले ही चली गई पर ये लोग आज भी जमींदार ही थे। कौन हिम्मत करता इनके खिलाफ बोलने की। हिम्मत तो रामू काका ने किया था जब उसकी बेटी को... पर हुआ क्या? बेचारे जेल में सड़ रहे है। कहते है जमींदार साहब कि अब लोकशाही में जमींदारों को लठैत रखने की जरूरत का है, इ थाना पुलिस काहे है। पैसा फेंको तमाशा देखो।।।
पर मैं क्या करता, सपनो की चोरी हुई और वह भी आंखों के सामने, सो दौड़ पड़ा पीछे पीछे। मेरी भी बुद्धि कुछ भ्रष्ट मानते है गांव बाले। कहते है कि पगला गया है बगलुआ। बुरबक, लोकतंत्र, संविधान, मानवाधिकार जनलोकपाल और भ्रष्टाचार की बात करता है। कभी कभी कुछ समझाते भी थे, किताब में लिखल बात, घोड़ा के पाद....। पर कहां समझ आता था। सो दौड़ते हुए पहुंच गए बाबू साहेब के दरबाजा पर। बड़का बाबू साहब सामने मिले। ‘‘क्या बात है?’’ मैंने कहा- ‘‘आपके बेटे ने मेरी मुर्गी चुरा ली उसी के सहारे मैं सपना देखा था परिवार के पेट में दो जून रोटी की....।’’ ‘‘अरे, जमींदार का बेटा मुर्गी चुराएगा? पगला गया है का? बेटे को बुलाया, अरे मंुगेरना...। पूछा, तूने मुर्गी चुराई, उसने कहा-‘‘नहीं बाबू जी! मैं ऐसा क्यूं करूगा!’’ बगल में नौकर पगला खड़ा था-बोल दिया, ‘‘क्या बाबू जी आपके हाथ में खून तो लगा है और आप इंकार कर रहे है, देखिए इसे ही कहते है चोर के दाढ़ी में तिनका।’’ पर वह तो पागल था उसकी बात का क्या? और फिर क्या था, सभी लोग हो हल्ला करने लगे, साला जमींदार का बेटा मुर्गी चुराएगा। हो हो हो हो हो....। चोर चोर मौसेरे भाई। और चोर बोले जोर से। कई मुहावरों का अर्थ उस दिन मैं समझ गया था। 
बड़का साहब अपने लोगों से बोल रहे थे-‘‘यह हिम्मत कि दो जून की रोटी के सपने देखे, साला, फिर हमलोगों के घर मजूरी कौन करेगा? इसलिए तो बेटा ने बुद्धि का काम किया, न रहेगी मुर्गी न रहेगा सपना।’’ 
और आज।
संसद भवन का नजारा देख इन मुहावरों का अर्थ फिर से समझ गया। बेचारे सिसौदिया ने तो महज एक मुहावरा सुनाया था और वे भड़क गए। जैसे चोर को चोर कहो तो भड़कते है। भड़के भी ऐसे कि सभी के दाढ़ी का तिनका तिनका नजर आ गया और मौसेरे भाई की तरह जोर जोर से बोलने लगे। लोहीया और जेपी के समाजवाद की रंथी को कांधें पर उठाए बेचारे कठोर सिंह यादव को तो सबसे ज्यादा गुस्सा आया संसद मे हाजीर करो.....भाई बेटा जब विरासत का राजा बन जाए तो बाप निश्चिंत हो ही जाता है सो दिल्ली की राजनीति में दिल्लगी करने लगे। और जॉर्ज साहब को वाणसैय्या पर लिटा चारणी के सहारे मुखौटा अध्यक्ष बनने वाले हमारे शीतल यादव को तो और अधिक गुस्सा आ गया। भला बताओं, चोर, डकैत, मर्डरर यह सब कहने का सर्वाधिकार तो हमारे पास सुरक्षित था उसे कोई अपनी संपत्ति बताएगा? अजी यह सब तो नेताओं ने अपने नाम पेंटेंट करा रखा है। 
चलो जो भी हुआ पर अब बच्चो को समझाने में दिक्कत नहीं होती, जैसे कि मुहावरो का अर्थ जब बनाने के लिए गोलू को दिया तो उसने यूं बनाया।
चोर की दाढ़ी में तिनका-सिसोदिया के बयान पर भड़के नेताओं ने यह बता दिया कि चोर की दाढ़ी में तिनका होता है।
चोर चोर मौसेरे भाई-अन्ना टीम पर निंदा प्रस्ताव और जनलोकपाल के मुददे पर नेताओं का साथ साथा आना।
चोर बोले जोर से- संसद में नेताओं का जनलोकपाल पर भाषण देना। जय हो जय हो, अन्त में नेताओं ने कह भी दिया कि जब जनता ही हमे चुनती है तो 
वह भी चोर है... 
हम भी चोर तुम भी चोर
अभी नहीं आएगा भोर
करते रहेगें यूं ही शोर
अन्ना लगालो जितना जोर
वन मे बस नाचेगा मोर
पैरों पर कौन करेगा गौर
यह तो है पूंजीवादियों का दौर
गांधिवादियों को कहां मिलेगा ठौर
जय हो जय हो जय हो..

22 मार्च 2012

यह मीडिया तोड़ती मरोड़ती कैसे हे जी उर्फ मैंने ऐसा तो नहीं कहा था...


अरूण साथी (व्यंग्य)

जब-तब, जहां-तहां मीडिया में बयान देने के बाद जब गर्दन फंसती है तो टका सा जबाब होता है मीडिया ने तोड़ मरोड़ कर बयान को पेश कर दिया, मैंने ऐसा तो नहीं कहा था। अब कस्बे के मोहनजी चाय दुकान पर भी चुस्कीया संसद में इसी मुददे पर गर्मा गरम बहस हो रही थी। बहस में भाग लेते हुए मैने भी कुछ फेंक दिया-भैया अब जब श्रीश्री ने यह आरोप लगा दिया है कि मीडिया ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया तो यह बात पक्की हो गई कि मीडिया, बयान को तोड़ मरोड़ देती है। हलंाकि इससे पहले मैडम, युवराज से लेकर मंत्री संत्री और धनवन्त्री तक आरोप लगा रहे थे पर कोई भरोसा ही नहीं कर रहा था! मैं तो तभी से कहूं कि यह मीडिया होती ही है बड़ी चालांक, जिस तिस के मंुह से जो सो बयान घुंसेड़ देती है और फिर रपेट रपेट कर कहने वालों को ही रपेट देती है। फिर क्या था, बेतर्क के तर्क निकलने लगी और संसद की ही तरह हो हल्ला, बेमतलक का। वह तो शुक्र है कि मैं ने तीसरी कप चाय का ऑर्डर दे दिया वरना यहां से भगाने का दुकानदार ने पूरा मन बना लिया था। 

खैर, शर्मा जी ने भी चुस्की के साथ चुप्पी तोड़ी, भैया ई बुद्धू बक्सा बाला सब बुद्धूये बनाते रहता है, सतयुग में सरसत्ती माय कैकेयी के जिह्वा पर बैठके राम को बनवास दिला दी थी और इस भठयुग में मीडिया बाला ही सरसत्ती माय बन जिह्वा पर बैठ के अंट शंट बोलवा देता है।

अब पंडित जी भी कहां चुप रहने वाले थे, सो उन्होने भी लंबा छोड़ा- अजी मैं तो कहूं ई नाराद मुनी के जात वाला पर भरोसा नहीं करे का है। इ हम सब को बुद्धिये बनाते रहता है?

अब दूध बेचने आए जादव जी से भी नहीं रहा गया, बोल दिये- तभिए तो भैया, हमर जात गोतिया के नेता सब संसद में कह रहे थे कि ई बुद्धू बक्सा को बंद होना चाहिए...। ई अन्ना नीयर आदमी के भी तोड़-मरोड़ मंत्र से ही ऐतना बड़का गो बना दिया है। सोंचना पड़ेगा भैया।

तभी पुराने कंग्रेसिया और उजर झकझक कुर्ता पहन थाना-ब्लॉक के दलाली करने वाले युगल बाबू को भी ताव आ गया, बोले-अजी हमरे पार्टी वाला नेता सब कबे से चिल्ला रहे है कि मीडिया पर लगाम लगाओ पर कोई रस्सीये नहीं देता है। तभिये तो दिग्गी बाबू को बिलेन बना दिया, अजी उनके मुंह से जो भी निकलता है सब मीडिया मंत्र से तोड़ल मरोड़ल रहता है। समझे की नहीं?
अब मैंने भी अपना अज्ञान अलाप दिया- 
जय हो, जय हो, बुद्धू बक्सा तो बेकार में बदनाम है।
इसको बुद्धू बनाना सबसे आसान काम है।
बस तोड़ने मरोड़ने का लगाना इल्जाम है।
और चौथेखंभे का काम तमाम है।।
जय हो...।

21 मार्च 2012

सरकारी स्कूलों में नक्सली पैदा होते तो श्रीश्री का ऐश्वर्य कहां से आता....

श्रीश्री रविशंकर ने जयपुर के एक समारोह में कहा कि सरकारी स्कूल नक्सली और हिंसा की फैक्ट्री है। वास्तव में (अब मैं श्रीश्री आगे नहीं लगाना चाहता) रविशंकर ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिसे पुंजीवाद कहा जाता है। ऐश्वर्यशाली जीवन हो तो सपने भी ऐश्वर्यशाली हो जातें है और इसी का परिचायक है रविशंकर का यह बयान। जिस सरकारी स्कूल को रविशंकर ने नक्सलवाद और हिंसा की फैक्ट्री कहा है यदि वे स्कूल नहीं होते तो सच में पुंजीवाद को आज पुंजीवाद भी कहने वाला कोई नहीं होता। उन्हीं सरकारी स्कूलों में हमारे जैसे करोड़ लोग पढ़े है और देश और समाज में सरकारी स्कूल का प्रतिनिधित्व कर रहें है। सरकारी स्कूलों की तुलना यदि हम निजि स्कूलों से करें भी तो यह हास्यास्पद हो जाता है। दरअसल यह मैकाले की शिक्षा का भी पोषक है। जिस शिक्षा के तहत हमें नौकर बनाने की फैक्ट्री में झोंक दिया जाता है और वहां से निकल कर हम संवेदनहीन बनकर महज एक मशीन बन जाते है रविशंकर भी उसी के पैरोकार बन कर सामने आए है। जब भी मैं इस तरह के किसी भी बाबा या कथित साधू को देखता हूं तो कभी मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होती और उसका मूल कारण कबीर दास के इस  कथन से समझा जा सकता है।
"बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ । 
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ "
 रही बात नक्सलवाद और हिंसा की, तो यह एक अलग से तर्क का व्यापक विषय है। मेरे विचार से नक्सलवाद और हिंसा एक व्यापक फलक है जिसे समझ कर ही इसे मिटाया जा सकता है। हलंाकि ओशो ने गांधी जी के अहिंसा के सिद्वांत को इस आधार पर खारिज कर दिया है कि जिस अहिंसा में अपने साथ हिंसा की जाती तो वह अहिंसा कैसा? रही बात नक्सलवाद तो यह एक आंदोलन था जो रास्ते से भटक गया है और यदि सरकारी स्कूलों मंे नक्सली पैदा होते तो देश पर आज उनका ही राज होता। 
 कम से कम इतनी बुराईयों के बाद भी मैं मानता हूं कि नक्सलवाद आज भी अपने ही व्यवस्था की वजह से पनप रही है। मुझे आज भी याद है लाल सलाम फिल्म का वह डायलॉग जिसमें एक नक्सली कहता है कि जब कोई आपके मुंह में मूत दे तो क्या करेगे?
 यही सवाल सबसे बड़ा है। नक्सलवाद को यदि कुछ आपराधिक गिरोहों से अलग कर दिया जाए तो यह आज भी अपने बिमार समाज का एक लक्षण मात्र है और बिमारी को ठीक करने की जगह हम मरीज को ही मारने की बात करते है?
 जो भी हो पर रविशंकर का यह बयान आदमी के भगवान होने की अभिप्सा से उपजे अहंकार का भी परिचायक है।

19 मार्च 2012

एक छोटी सी बड़ी बात।


बड़की माई (चाची) आज अपनी पतोहू को गरिया रही थी-मुंह झौंसी, सोगपरौनी....।
मैंने पूछ लिया - की होलो बड़की माई...? 
बड़की माई का गुस्सा और भड़क गया- की बताइओ बेटा, ई मुंहझौंसी जब से अइलौ हें हमरा घर के उजारे पर पड़ल हौ, जैसे तैसे गोबर गोइठा ठोक के दो-चार रूपया जमा करो हियौ ई मंहगी के जुग में और ई एगो सलाय (माचिस) दू महिना भी नै चलाबो हौ।
काश की बड़की माई की यह आवाज देश के कर्णधार राजनेता सुन  पाते.....

17 मार्च 2012

ब्लॉगिंग, फेसबुक और मठाधीश।


ब्लॉगिंग से मन उचट रहा है पता नहीं क्यों, कुछ कुछ तो फेसबुक का असर है और कुछ कुछ मठाधीशों का। ब्लॉगिंग की दुनिया में फेसबुक की तरह आजादी नहीं है। यहां जितने ब्लॉगर है उतने मठाधीश। अपनी मर्जी। सब एक एक मठ बना कर मठाधीश बन गए है। अपने विचारों के हिसाब से ब्लॉगों का चयन करना, प्रकाशित करना सराहना....। ऐसी बात नहीं कि मेरे ब्लॉग को इन मठों में नमन करने का मौका नहीं मिलता पर यह बात मुझे अखरती रहती है और मन में एक हीनता घर कर जाती है। जब भी कोई पोस्ट छोड़ता हूं और किसी मठ में उसे जगह नहीं मिलती तो मन उदास होता है और हीनता से भर जाता है। एक तो इस आभासी दुनिया में कोई किसी का दोस्त कम ही होता है, बस टिप्पणी पाने के मतलब की यारी। इतने सालों में किसी ने मेरे या किसी और के पोस्ट पर उसकी समालोचना नहीं की। बस कुछ टाइप किए शब्द पोस्ट कर दिये जातें हैं और उम्मीद लगाई जाती है कि उन्हें भी टिप्पणी मिले।
जबसे चिठ्ठाजगत और ब्लॉगवाणी बंद हुआ है तब से कोई एक एग्रीगेटर ईमानदारी और सहुलियत से पोस्ट को प्रकाशित नहीं कर रहे। जितने ब्लॉगर है उन सब का पोस्ट एक साथ एक ही जगह पर नहीं मिलता। सभी ने तरह तरह के मापढंड बना रहे है। और तो और कहीं कहीं उन्हीं दो चार ब्लॉगरों की चलती रही है। इतने एग्रीगेटर है कि कहां कहां जा जा कर रजिस्टर हों और पोस्ट को प्रकाशित करें?
एग्रीगेटर की कमी इस तरह भी खलती है कि जिनती सुविधा जनक ढंग से फेसबुक पर टिप्पणी करने और पोस्ट पढ़ने की व्यवस्था है उतनी यहां नहीं है और इस लिए भी यहां परेशानी उठानी पड़ती है। फेसबुक पर आसानी से पोस्ट किया जा सकता है और पोस्ट करने के लिए अलग बिंडों नहीं खुलता है इतना हीं नहीं टिप्पणी करने के लिए भी अलग बिंडों नहीं खुलता और समय की बचत होती है। दोस्त बनाने की व्यवस्था भी अच्छी और इन्हीं सब कारणों से फेसबुक फेमस है। जब गूगल प्लस की लांचिंग हुई तो लगा कि एक बेहतर एग्रीगेटर मिलेगा पर वह भी असफल रहा।
कम से कम ब्लॉगिंग को बचाने के लिए कुछ ईमानदार कोशिश तो की ही जानी चाहिए और इस कोशिश मंे मठों को ध्वस्त कर देना चाहिए।

08 मार्च 2012

देह बेच देती तो कितना कमाती... महिला दिवस पर मेरी तीन पुरानी कविताऐं




महिला दिवस पर मेरी तीन पुरानी कविताऐं

1
मां का नाम क्या है? 

बचपन से ही
मां को लोग
पुकारते आ रहे हैं
‘‘रमचनदरपुरवली’’

या
सहदेवा के ‘‘कन्याय’’
बाबूजी जी भी पुकारते
बबलुआ के ‘‘माय’’
आज दादा जी ने जोर से पुकारा
अरे बबलुआ
देखा मां दौड़ी जा रही है।

उधेड़बुन में मैं सोंचता
आखिर इस सब में
मां का नाम क्या है?

जब मां गई थी ‘‘नैहर’’
तो पहली बार नानी ने पुकारा
‘‘कहां जाय छहीं शांति’’
फिर कई ने मां को इसी नाम से पुकारा..

फिर मैं
उधेड़बुन में सांेचता रहा
आखिर इस सब में
मां का नाम क्या है?
अब कई सालों से मां नैहर नहीं गई है
अब मां को शांति देवी पुकारता है
तो मां टुकुर टुकुर उसका मुंह ताकती है
शायद
मेरी तरह अब
मां भी उधेड़बुन है
आखिर इस सब में
उसका का नाम क्या है?


2
देह बेच देती तो कितना कमाती... 

यह रचना मैंने झाझा के आदिवासी ईलाके में कई दिन बिताने के बाद लिखी थी आपके लिए हाजिर है।

रोज निकलती है यहां जिन्दगी
पहाड़ों की ओट से,
चुपके से आकर भुख
फिर से दे जाती है दस्तक,
डंगरा डंगरी को खदेड़
जंगल में,
सांेचती है
पेट की बात।

ककटा लेकर हाथ में जाती है जंगल,
दोपहर तक काटती है भूख
दातुन की षक्ल में,

माथे पर जे जाती है षहर
मीलों पैदल चलकर
बेचने दंतमन,
और खरीदने को पहूंच जाते है लोग
उसकी देह.....................
वामुष्किल बचा कर देह,
कमाई बीस रूपये,
लौटती है गांव,
सोचती हुई कि अगर
देह बेच देती
तो कितना कमाती...............





3
औरत का अस्तित्व कहां..

भोर के धुंधलके में ही
बासी मुंह वह जाती है खेत
साथ में होते है
भूखे, प्यासे, नंग-धडंग बच्चे

हाथ में हंसुआ ले काटती है धान
तभी भूख से बिलखता है ‘‘आरी’’ पर लेटा बेटा
और वह मड़ियल सा सूखी छाती को बच्चे के मुंह से लगा देती है
उधर मालिक की भूखी निगाह भी इधर ही है।

भावशुन्य चेहरे से देखती है वह
उगते सूरज की ओर
न  स्वप्न
न अभिप्सा।

चिलचिलाती धूप में वह बांध कर बोझा
लाती है खलिहान
और फिर
खेत से खलिहान तक
कई जोड़ी आंखे टटोलती है
उसकी देह
वह अंदर अंदर तिलमिलाती है
निगोड़ी पेट नहीं होती तो कितना अच्छा होता।

शाम ढले आती है अपनी झोपड़ी
अब चुल्हा चौका भी करना होगा
अपनी भूख तो सह लेगी पर बच्चों का क्या।


नशे में धुत्त पति गालिंयां देता आया है
थाली परोस उससे खाने की मिन्नत करती है।

थका शरीर अब सो जाना चाहता है
अभी कहां,
एक बार फिर जलेगी वह
कामाग्नि में।

आज फिर आंखों में ही काट दी पूरी रात
तलाशती रही अपना अस्तित्व।

दूर तक निकल गई
कहीं कुछ नजर नहीं आया
कहीं बेटी मिली
कहीं बहन
कहीं पत्नी मिली
कहीं मां
औरत का अपना अस्तित्व कहां....



03 मार्च 2012

मगही पत्रिका परिवार का वार्षिकोत्सव सह बसन्तोत्सव का आयोजन। कई राज्यों कवि एवं साहित्यकार ले रहे है भाग।


मगही पत्रिका परिवार का वार्षिकोत्सव सह बसन्तोत्सव का आयोजन।
कई राज्यों कवि एवं साहित्यकार ले रहे है भाग।
बरबीघा
श्री कृष्ण रामरूचि महाविधालय, बरबीघा में मगही पत्रिका परिवार का वार्षिकोत्सव सह बसन्तोत्सव का धूूमधान से आयोजन किया गया। कार्यक्रम का उद्घाटन डा0 दिवेश चन्द्र मिश्र द्वारा किया तथा अध्यक्षता श्री मिथिलेश द्वारा की गई। कार्यक्रम की उद्घाटन सत्र में देश एवं राज्य के विभिन्न  हिस्सों से आये मगही साहित्यकारों का परिचय एवं सम्मान किया गया। इस अवसर पर प्रसिद्ध मगही साहित्यकार गोपाल मिश्र को श्रद्धाजलि देते हुए उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को स्मरण किया गया।
कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में दीनबंधु रंजीत, जयराम देवसपुरी, दयाशंकर सिंह बेधड़क जयनंदन, कृष्ण कुमार भट्ट सहित दर्जनों कवियों ने मगही कविता का पाठ कर उपस्थित श्रोताओं के मंत्रमुग्ध किया। दिनांक 3 एवं 4 मार्च को होने वाले दो दिवसीय आयोजन में मगही गध विद्या का विकास कैसे विजय पर परिचर्चा होना है।
मगही पत्रिका के सम्पादक सह प्रकाशक श्री धनंजय श्रोत्रिय ने बताया कि मगही की तीन पत्रिकाऐं मगही  बंग मागधी एवं झारखंड मागधी का प्रकाशन क्रमशः दिल्ली, कार्यकर्ता एवं रॉची से किया जा रहा है। कार्यक्रम में मगही के विकास के उपायों पर चर्चा की गई। इस अवसर पर महाविधालय के प्रधनाचार्य डा0 गजेन्द्र प्रसाद, डा0 भवेश चन्द्र पाण्डेय, अरविन्द मानव, घंमंडी राम, वीणा मिश्र आदि उपस्थित थे।
स्वागताध्यक्ष श्री उमेश देवसपुरी ने आगत साहित्यकारों का स्वागत किया।

नीमी गांव में हो रहे इस आयोजन में ग्रामीणो ंका सहयोग।


फुटवाल मैच मंे उमड़े ग्रामीण।
नालन्दा की टीम ने जमुई को हराया।
नीमी गांव में हो रहे इस आयोजन में ग्रामीणो ंका सहयोग।
बरबीघा
पन्द्रह हजार की भीड़, जीत का जुनून, ढोल-नगारे का आवाज और फुटबाल मौच का नजारा, गोल, गोल चिल्लात लोग। यह किसी सिनेमा या कि कहीं दुसरे जगह की तस्वीर नहीं बल्कि जिले के नीमी गांव मंे आयोजित शिवलोक फुटवाल टुर्नामेंट का नजारा। आज के दौर में जहां क्रिकेट का बोलबाला है वहंी नीमी गांव में यह आयोजन और इसे देखने के लिए उमड़े हजारो लोग फुटवाल की लोकप्रियता गांव में कितनी है इसकी बानगी प्रस्तुत करता है। इस टुर्नामेंट का फाइनल मुकाबला आज जमुई कें दिननगर एवं नालन्दा के उगमा टीम कंे बीच आयोजित थी जिसमें उगमा की टीम ने लगातार तीसरी बार बिजय हासिल करते हुए दिननगर की टीम को पांच शुन्य से करारी मात देकर दर्शक की बाह बाही लूटी। उगमा की ओर से मो. आशीक , शहनबाज ने गोल दोग वहीं कप्तान आशीक ने सराहनीय प्रदर्शन किया। विजेता टीम एवं उपविजेता को आयोजक यशवन्त कुमार सिंहा की ओर से सभी खिलाड़ियों को एक एक ट्रेक शूट दिया गया एवं दोनो को पुरस्कृत किया गया। आयोजक ने मौके पर घोषणा की अगले साल विजेता टीम को हीरो होण्डा मोटरसाईकिल देकर पुरस्कृत किया जाएगा। दोनो टीमों के कैपटन ने ग्रामीण दर्शकों के उत्साह और सहयोग की तारीफ करते हुए कहा कि कहीं अन्य इस तरह का नजारा देखने को नहीं मिलता है।