23 जून 2014

डायन दहेज प्रथा और युवा

दहेज प्रथा डायन की तरह समाज की निगल रही है और हमारा सभ्य समाज इस पाप का भागीदार बन भी पतित बना रहता है। आज दहेज का दावानल पूरे के पूरे युवा पीढ़ी को निगल रही है। आज बेरोजगार और बेकार युवा की कीमत दो लाख तक लग जाती है और नौकरी बालों की बोली तो जब लगती है तो जो सर्वाधिक दे उसी के हाथ बिकेगा।
दहेज का डायन होने के कई प्रमाण है और सबसे बड़ा प्रमाण यह कि जब बहू जब घर में आती है तो अपने साथ दहेज के अभिमान को भी लेकर आती है नतीजा सुख-चैन की समाप्ति हो जाती है और बहूओं के आत्महत्या इसका चरम है..
आज दहेज के औचित्य पर भी कई तरह के सवाल उठ रहे है। सबसे पहला यह कि हम दहेज लेकर अपनी शानो-शौकत का जो दिखावा करते है क्या वह उचित है? दूसरे के पैसा पर यह दिखावा झूठी शान ही तो है? यदि दिखावा ही करना है तो अपने पैसे से करें।
दहेज का रेट आज सातवें आसमान पे है। इसके लिए केवल दहेज लेने वाला ही दोषी नहीं बल्कि देने वाला भी उतना ही दोषी है। आज चपरासी भी नौकरी लगी नहीं कि उसे खरीदनो वालों की लाइन लग जाती है और न तो उसके संस्कार देखे जाते है और न ही उसका चरित्र।
इसमें सबसे बड़ा दोषी हमारा युवा वर्ग है जिसके कंधे पर समाज को बदलने की जिम्मेवारी है वही पैसे के पीछे इतनी दिवानगी दिखाता है कि शर्म आ जाए और अभिभावक जब बहू के द्वारा सम्मान नहीं मिलने की बात कहते है तो हंसी आती है।

मेरी जानकारी के अनुसार कुछ ताजा रेट चार्ट (आप की रेट में संशोधन कर सकते है)
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बेरोजगार-         2 लाख
चपरासी-         6 से 8
सिपाही-         10 से 12
सेना-         7 से 9
प्रइवेट इंजिनियर- 5 से 10
सरकारी इंजिनियर- 10 से 20
कर्ल्क- 12 से 15
ऑफिसर-         20 से 30
(इससे हाई लेवल की जानकारी मुझे नहीं है...आप  जोड़ सकते है.. धन्यवाद)



21 जून 2014

जन्मदिन पर अपने दुःख-सुख को मित्रों सांझा करता हूँ...

42वें वसंत में प्रवेश करते हुए कल भी कोई ख़ुशी नहीं थी, आज भी नहीं है। हो भी क्यूँ? जिंदगी की जद्दोजहद ने किसी मोड़ पे कभी भी खुश होने का मौका ही नहीं दिया। 42 मौकों में से एक बार भी जन्म दिन मानाने का मौका जिंदगी ने नहीं दिया। 

हाँ शिकायत है मुझे जिंदगी से की क्यूँ इसने ऐसा किया? बचपन से जब होश संभाला तो खुद को मुफलिसी के उस मुकाम पे पाया जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता। जीवित पिता के पितृत्व सुख से बचपन बंचित रहा और होश सँभालने के साथ पिता को शराब के साथ बेहोश पाया। जैसे-तैसे बचपन बीतता चला गया और जब किशोर हुआ तो बिना अभिभाकत्व के उसी तरह भटकता रहा जैसे बिना मांझी के बीच मझधार में नाव। जर्जर नाव को सँभालते-सँभालते उसको  डूबने से बचाने के लिए नाव से पानी उलीचता रहा।

यादों के झरोखों से झांकता हूँ तो एक टीस सी उठती है। कैसे 10वीं में पहली बार कपडे का जूता माँ से लड़-झगड़, रो-कलाप् पे लिया और कितनी ख़ुशी हुई उसको लिख पाना सम्भव नहीं! और यूँहीं लड़खड़ाते हुए जब बारहवीं में सरकारी कॉलेज में नाम लिखाया तो  जूते की तरह एक जोड़ी फुलपैंट-शर्ट सिलाया। फिर उसी के सहारे दो साल का सफ़र तय किया...और वो पहली पुराणी सायकिल जिसे जाने कैसे कैसे ख़रीदा... आज हवाई जहाज के सफ़र में भी वह सुख नहीं..

और फिर इसी बीच बचपन में जिसके साथ नुक्का-चोरी, दोल-पत्ता खेला करता दशवीं आते आते पता लगा की उससे प्यार हो गया। फिर तीन सालो तक पत्रों का आदान-प्रदान का वह एक स्वर्णिम दौर भी आया जब प्रेम पत्र लिखना हर रोज परीक्षा में बैठने जैसा लगे, जाने क्या रिजल्ट आए? और एक रोज जो रिजल्ट आया तो फिर उसी में डूबता चला गया। बचपन से ओशो को पढने की आदत लग गयी और जिंदगी फिर से दांव पे लग गयी, प्रेम हासिल हुआ और जिंदगी चूक गयी। सामाजिक विद्रोह के बीच प्रेम विवाह..और एक छोटे से किताब दुकान के सहारे दाल-रोटी का जुगाड़ किया और चलता रहा।

रास्ते में हमेशा काँटे ही मिले, फिर घर-परिवार, बाल-बच्च सँभालते-सँभालते जन्मदिन मनाने की ख़ुशी कभी मिली ही नहीं। जाने क्यूँ आज सुबह से आँखों में नमी है जैसे स्याह पन्ने पे लिख दी गयी हो मेरी जिंदगी, जैसे रेगिस्तान में धकेल दिया गया हूँ मैं और मारीचका मुझे भगाए जा रही हो...

हालाँकि जिंदगी के किसी मोड़ पे जिंदगी मिले तो उससे शिकवा भी नहीं करूँगा मैं, क्यूँ करूँ ?  ईश्वर से दो ही चीजें मांगी थी, एक मोहब्बत और दूसरा बाबूजी की शराब से छुटकारा, दोनों मिल गयी। बस अब कुछ नहीं, क्यूंकि जिंदगी वह सब भी दिया जो सोंचा नहीं था। 

बाबूजी का शराब ऐसे छूटी जैसे ईश्वर सामने आके परीक्षा ले लिए और मैं पास हो गया। हुआ यूँ की अत्यधिक शराब के सेवन से उनको ब्रेन हेमरेज हो गया। मरणासन्न अवस्था में दोनों बेटों ने उनको डॉ रामान्नादन सिंह के पास पहुँचाया जहाँ डॉ ने मेरी माली हालत को देख उनके बचने की उम्मीद छोड़ देने की सलाह दे दी यहाँ तक की माँ भी खामोश हो गयी और उसके अविरल आंसू जैसे मेरी विवशता पर वह रही थी। दोनों भाई ने हार नहीं मानी और कर्ज पे कर्ज ले के बाबूजी को पटना ले गए, एक सप्ताह सेवा की परीक्षा में ईश्वर प्रथम श्रेणी से पास कर दिया आज आठ-दस साल हुए, बाबु जी दुसरे को शराब नहीं पीने के लिए समझाते है और मेरा मन बार बार ईश्वर से कुछ और नहीं मांगने को कहता है..

फिर भटकते भटकते पत्रकारिता के उस अंधे कुंऐं मे आ गिरा जहां सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा था.. है! फिर आदरणीय नवीन कुमार, शिवकुमार जी की पहल और प्रेरणा पर आदरणीय कौशलेन्द्र कुमार जी ने आज अखबार से जोड़ लिया जहां खबर फैक्स करने तक का खर्च अपनी जेब से देना पड़ता और दस साल पुर्व जब मेरी रोज की कमाई महज सौ थी पच्चीस से तीस रूपये समाचार भेजने मे खर्च कर देता। हां उस समय भी यह परम्परा भी और आज भी है कि समाचार भेजने के खर्चो के नाम पर पत्रकार मित्र उगाही कर लेेते थे पर मैने जाने किस प्रेरणा से प्रेरित होकर तत्कालीन नगर अध्यक्ष शिवकुमार जी के द्वारा उनके एक मित्र की खबर प्रकाशित करने के एवज में दिए जाने वाले तथाकथित खर्चो को लेने से इंकार कर दिया जबकि उन्हांेने कहा था कि मैं जानता हूं कि अखबार तुमको कुछ नहीं देता...और उसके एक साल पहले ही बिहार के नंबर वन अखबार के सबसे बरिष्ठ पत्रकार को मैने ने एडस दिवस पर मित्रों के साथ निकाले गए जागरूकता रैली की खबर छापने के एवज में गुल्लक में जमा किए गए 56 रूपये सिक्के गिन गिन कर दिया था...शायद उसी दुख ने मुझे प्रेरणा दी और फिर लोगो के दुख-दर्द से जुड़ता चला और लड़ता चला गया आज मेरे यहां से समाचार प्रकाशन के नाम पर लिफाफे के अंदर की कमाई बंद हो गई...और अपनी हजार बेइमानी के बीच से लड़ता हुआ पत्रकारिता की ईमानदारी को बचाए रखना मेरी प्रतिबद्वता बन गई...और एक खबर का १० रुपया पर काम करते हुए..समाज के लिए लड़ने का अपना ही सुख है..शायद ईश्वर ने मुझे चुना है..दूसरों के लिए लड़ने के लिए..

हाँ जिंदगी ने एक लक्ष्मण जैसा भाई दिया जो जाने कैसे बिना बोले सब सुन-समझ लेता है। भाई ऐसा जैसे आज भी मैं बच्चा हूँ.., और मिले कुछ ऐसे दोस्त भी जो जाने क्यूँ मुझे वेवजह, वेपनाह प्रेम करते है मुझे सहारा देते है.. थाम लेते है...

सुना है दुःख बाँटने से घटता है और सुख बाँटने से बढ़ता है... इसलिए आभासी दुनिया के मित्रों से सुख-दुःख साँझा कर रहा हूँ क्यूंकि यहाँ भी मुझे वही प्रेम मिला जो वेवजह और वेपनाह है...

11 जून 2014

स्थानांतरण (कटाक्ष, अनुभव पर आधारित)


















अधिकारी महोदय
अपने स्थानांतरण पर
नव नियुक्त अधिकारी को
ऑफिसयली
कागज-पत्तर
और फाइलों 
के साथ साथ
नन-ऑफिसयली
दलालों का भी
प्रभार देते हैं...

और इस प्रकार
भ्रष्टाचार की नाव
सब मिलजुल कर खेते हैं...

08 जून 2014

आदरणीय मोदी जी के नाम एक खुला खत

आज एक बहुत ही गंभीर समस्या की तरह मोदीजी का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। यह समस्या से फूड सिक्योरिटी बिल में हुई गड़बड़ी का। चूँकी यह सीधा-सीधा गरीबों से जुड़ा हुआ मामला है इसलिए इसकी तरफ प्राथमिकता से ध्यान देने की जरूरत है। पूरे देश की बात तो मैं नहीं जानता पर बिहार में इसका व्यापक पैमाने पर दुरूपयोग किया गया है जिसकी वजह से जहां गरीबों को अनाज नहीं मिल रहा है वहीं अमीर और सम्पन्न लोग बोरे में भर कर अनाज ले जा रहे है।
फूड सिक्योरिटी बिल को लेकर गड़बड़ी कहां से हुई यह पक्के तौर पर मैं नहीं कह सकता पर परिणाम भयानक रूप से सामने आए है और इसकी वजह से भूखे मरने वाले को अनाज तो नहीं ही मिलेगा। दरअसल यह पूरा मामला पिछली सरकार के द्वारा हड़बड़ी में उठाए गए कदम का नतीजा भी हो सकता है। 
फूड सिक्योरिटी बिल को लागू करने का आधार 2011 में किए गए जनगणना को बनाया गया है जो की पूरी तरह से निराधार है। शिक्षकों के द्वारा किए गए इस जनगणना की प्रामाणिक संदेहास्पद है।
फूड सिक्योरिटी बिल को लागू करने के लिए बिहार सरकार ने जिस प्राइवेट कंपनी के आर्थिक सामाजिक जनगणना का काम दिया उसने इसे छोटे-छोटे वेंडरों को दे दिया  जिसके द्वारा गैर जिम्मेवारी से काम किया गया और फिर परिणामतः गलत आंकड़े फीड किए गए जिससे गरीबों का राशन कार्ड नहीं आया और सम्पन्न लोगों के नाम से राशन कार्ड बन कर आ गया।
इतना ही नहीं इस योजना को उन सरकारी राशन की दुकानों के माध्यम से लागू किया गया है जो गरीबों के हकमारी के लिए जगजाहिर है, ये तो वही बात हो गई कि बिल्ली को दूध के रखवाली का भार दे दिया गया हो!
आलम यह है कि इस आंकड़े के हिसाब से नौकरी करने वाले अथवा सौ बीधा के जोतदार भी गरीब है और दो सांझ का चुल्हा नहीं जला सकने वाला अमीर, भला यह  अपराध नही ंतो क्या है? 
दरअसल गरीबों की हकमारी की यह एक ताजी वानगी भर है जिससे समझा जा सकता है कि गरीब, गरीब कैसे रह जाते हैं! हलंाकि सवाल महज किसी योजना के बंटरबांट का नहीं है, सवाल हमारे सामाजिक सोंच के पतीत होने का भी है। राशन कार्ड लेकर अमीर लोग जब राशन की दुकान से राशन लेकर आए तो उन्हें तनिक भी लज्जा नहीं आई? यह अनाज भूख से मरते गरीबों को बचाने के लिए था फिर उनके मुँह का निवाला छीनने वालों के माथे उनकी मृत्यु का पाप नहीं आएगा?
और यह पाप उन सभी के माथे आएगा जो परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से इससे जुड़े हुए हैं इसलिए मेरा आपसे निवेदन है कि इस योजना की गड़बड़ी सुधारने की दिशा में तत्काल पहल करें और इसपर रोक लगा कर इसकी जांच कराए..
साधन्यवाद
अरूण साथी
7870285651

02 जून 2014

बैल बन गया मैं....



(अपने ही दुख के आंखू शब्द बनकर निकलें है और उसी दुख की एक तस्वीर भी बना दी. मैंने.. सुना है साइबर दुनिया में मित्र रहते है... शायद कोई अपना मेरी भावनाओं को समझ सकें..)
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जिम्मेवारियों का पालो
कांधे पर लिए
रोटी के लिए जुतते जुतते
बैल बन गया मैं....

हर वक्त
दायें चलने का साहस
और पीठ पर
अपनों के हाथों
पड़ता अरौउआ....(डंडा)

वर्षों बाद आज
तन्हाई में दिख गया
पीठ पे पड़ा हुआ
घटठा...(सुखा हुआ जख्म)
एकबारगी
जख्मों पर पड़ी हुई पट्टी को
परत दर परत
उघाड़ता चला गया...
नोंन-तेल
मां-बाबूजी
बीबी-बच्चे
परिवार
और
हरे हरे
प्यारे प्यारे
मेरे जख्म...
उस पे पड़ी
मेरी मुस्कुराहटों की पट्टी...

किसे दिखेगा
कौन देखेगा....