25 मई 2015

मनमोहनी ...


गांवों की कुछ स्त्रियों में स्व-सौंदर्यबोध अत्यधिक होती है इसलिए वे खुद को बहुत मेंटेन रखती है... और बेहद खूबसूरत और मनमोहक होती है। ऐसी ही एक

मनमोहनी से पिछले दिनों आंखें चार हो गई। गेहूंवां रंग, सितुआ नाक, लंबा धरिंग..और अल्लू के फांक जैसी आंखें.। कमर से नीचे तक नगीन सा लहराते बाल। मजमूमा इत्र और नारित्व की मिलीजुली खूश्बू से गहगह गमकता देह किसी को भी मदमस्त कर दे।

उम्र चालीस से जरा भी कम नहीं, पर देख को कोई तीस से ज्यादा नहीं कह सकता.. समूचा देह कसा हुआ। सूती की साड़ी और मैंचिंग ब्लाउज के बीच उसका यौवन किसी काचूर छोड़ती नागीन सरीखी लग रही थी..बाहर आने को आतुर...साक्षत यक्षिणी की तस्वीर...।

मैं ठहरकर उसे देखने लगा, जी भरकर...। अचानक मृगनयनी की नजर उठी और मुझपे ठहर गई...मैं सकपका गया और शर्मा कर नजरें झुका ली...फिर नजर उठाया तो उसके चेहरे पे अजीब सी एक छलिया मुस्कान तैर रही थी.. जैसे कह रही हो, यह रूप, यह यौवन, यह श्रृंगार तबतक अधूरा है जबतक किसी भंवरे का शिकार न कर ले। आज का शिकार मैं बना था।....उस दिन से लेकर आज तक उसकी छवि आंखों में तैरती रहती है पर वह फिर कहीं नजर नहीं आई...

तब से लेकर आज तक सोंचता रहता हूं कि श्रृंगार ही महिलाओं का श्रृंगार है और गांव में रहकर अपनी सुन्दरा को सजाते-संवारते रहना भी एक कला ही है जो बहुत कम ही महिलाओं को आती है...और ऐसी महिलाऐ हर किसी को लुभाती है..मुझे भी लुभा गई.. कमबख्त...

फोटो - गूगल से साभार 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-05-2015) को माँ की ममता; चर्चा मंच -1987 पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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