बली बोल में दलितों और सवर्णों का सामंजस्य
अरुण साथी
सवर्णों के द्वारा (खास, भूमिहार-राजपूत) दलितों से भेदभाव, छुआछूत, शोषण, दमन के किस्से आम हैं। परिणामतः वही भेदभाव, छुआछूत, शोषण, पर कहीं-कहीं दमन विपरीत धारा में बहने लगी है। कई राजनीतिक दल के मुखिया, जनप्रतिनिधि, और सत्ताधीश इसी कुंठा के साथ आगे बढ़ रहे हैं। कुछ सामाजिक, राजनीतिक और सोशल मीडिया पे सक्रिय लोग इसमे लगे है।
राजनीति की रोटियां चिताओं पर सेंकी जाने लगी है। भीम आर्मी जैसे संगठन आग में घी देने लगे। नतीजा नफरत, घृणा चरमोत्कर्ष पर है । यह सच है कि भेदभाव, छुआछूत, और शोषण, दमन के शिकार दलित हुए हैं। यह भी सच है कि इन्हीं सब के विरुद्ध सवर्णों ने आवाज उठाई। संघर्ष किया। लड़ाई लड़ी। जीत भी मिली।
एक सच यह भी है कि अच्छाइयों को उस तरह से प्रचारित प्रसारित नहीं किया जाता जिस तरह से घृणा को। इसी तरह की एक अच्छाई बरबीघा के पिंजड़ी गांव में देखने को मिलती है। वर्षों से यहां यह परंपरा है । बली बोल। थोड़ा अंधविश्वास! थोड़ी परंपरा। बहुत सारा जातीय समानता।
परंतु इसके बारे में कम लोग ही जानते हैं। इस परंपरा में दलित समुदाय की पूरी टोली भूमिहारों के टोले में घर-घर घूमती है। बली बोल का नारा लगता है। हाथ मे लाठी, तलवार, भला, फरसा, गंडासा लिए हुए। भूमिहार अपने घरों के आगे हथियार, भाला, लाठी, झाड़ू रखते हैं। जिसको लांघ कर यह लोग निकलते हैं। मान्यताओं की माने तो यह सुरक्षा की गारंटी है।
दलित के पैर छूटे सवर्ण
इस परंपरा में दलित भगत श्रवण पासवान की भूमिका रहती है। चार-पांच पीढ़ियों से श्रवण पासवान के पुरखे इसके अगुआ रहे। अब श्रवण अगुआ है। उसके पैर सवर्ण जाति के बच्चे, बुजुर्ग महिलाएं सभी छूते हैं। प्रणाम करते हैं। स्वागत करते। शराब लाल रंग का डिजाइनर कपड़ा लपटे रहते है। वहीं कमर में घुंघरू होता है।
सभी का स्वागत होता है। दान दक्षिणा दिया जाता है। उसी तरह से ही गलियों में बीमार और कमजोर लोग सो जाते हैं और उसको लांघ कर दलितों की टोली चलती है। यह मान्यता है कि इससे निरोग लोग रहते हैं। दशकों से भूमिहारों से टोले में एक जगह बली बोल का समापन खास घड़ा को फोड़कर होता है। जहां घड़ा को फोड़ा जाता है और सभी जाति के लोग वहां घड़े का टुकड़ा अपने अपने घर ले जाते है। यह एक परंपरा दो-तीन सौ साल पुरानी है। कभी तनाव नहीं हुआ ।कभी भेदभाव नहीं हुआ। कभी दलित सवर्ण का टकराव नहीं हुआ। सभी जाति के लोग मिलकर इसे करते हैं। दुर्भाग्य से इस तरह की अच्छाई को प्रचारित और प्रसारित नहीं किया जाता।
अच्छाइयों को लपेटेंगे तो वोट हाथ से छूटेंगे
जवाब देंहटाएंबस इतनी सी बात है...
हटाएं