29 सितंबर 2017

धर्म के नाम पे जीव हत्या कैसे उचित?

धर्म के नाम पे जीव हत्या कैसे उचित?

ईश्वर के नाम पर उनकी ही संतानों को मार देना कहीं से भी ईश्वर को प्रसन्न करने की बात नहीं हो सकती। एक तरफ हमारे सभी धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सारे जीव जंतु ईश्वर की संतान हैं तो फिर कैसे अपने ही संतान की बलि लेकर कोई प्रसन्न हो सकता है! हालांकि धर्मों के आधार पर हमारी सोच और मान्यताएं बदल जाती है। कुछ दिन पहले कुर्बानी पर पशु प्रेम हमारा जागृत हो गया था, परंतु आज वही सन्नाटा है।

हालांकि स्थिति बहुत ही नकारात्मक नहीं है। जैसे जैसे हम जागरुक हो रहे हैं बलि प्रथा का विरोध कर रहे हैं। कई गांवों में बलि के रूप में भुआ नामक फल को काटा जाता है जो कि एक सकारात्मक पहल है। सभी जागरुक लोगों को इसके लिए आगे आना चाहिए। हमारे विद्वान धर्माचार्य अपने किसी भी ग्रंथ में बलि प्रथा का समर्थन नहीं होने की बात कही है। धर्म को इस तरह से विकृत कर हम खुद ही आधार्मिक हो जाते हैं। आइए बलि प्रथा का विरोध करें। इसे मांसाहार से न जोड़े, यह एक अलग विषय है।।

22 सितंबर 2017

पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या और विरोध के मुखौटे

पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या और विरोध के मुखौटे
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एक महीने के भीतर फिर एक पत्रकार मारा गया है. इस बार बुरी खबर आई है त्रिपुरा के कम्युनिस्ट राज से. त्रिपुरा के लोकल चैनल 'दिनरात' मे काम करने वाले शांतनु भौमिक पर चाकू से हमला हुआ. उन्हें अगरतला अस्पताल ले जाया गया. जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया.
पुलिस के मुताबिक शांतनु पश्चिमी त्रिपुरा में इंडिजीनस फ्रंट ऑफ त्रिपुरा और सीपीएम के ट्राइबल विंग टीआरयूजीपी के बीच संघर्ष को कवर कर रहे थे. उसी दौरान उनका अपहरण कर लिया गया था. महज 24 साल के इस युवा पत्रकार को चाकुओं से गोदकर और पीटकर मार डाया गया. जिस राज्य में मारा गया, वो सीपीएम शासित है. माणिक सरकार मुख्यमंत्री हैं.
हाल के दिनों में पत्रकारों पर हमले की कई घटनाएं हुई हैं. ताजा मामला बेंगुलुरु में गौरी लंकेश की हत्या का था. अब उसी कड़ी में त्रिपुरा से एक नाम और जुड़ गया है. इसी बहाने गौरी लंकेश की मौत पर जश्न मनाने वाले ट्रोल टाइप लोगों को भी मौक़ा मिल गया है
लंकेश की हत्या के विरोध में लामबंद होने वाले वामपंथी नेताओं और वामपंथी विचारधारा वाले पत्रकारों-लेखकों से लेकर उन तमाम पत्रकारों या अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधरों से सोशल मीडिया पर सवाल पूछे जाने लगे हैं कि गौरी लंकेश पर बोले तो अब क्यों नहीं बोल रहे हो? गौरी लंकेश की हत्या पर प्रेस क्लब में जमा हुए तो अब क्यों नहीं हो रहे हो? गौरी लंकेश की हत्या पर बेंगलुरु में प्रर्दशन कर रहे थे तो अब अगरतला में क्यों नहीं कर रहे हो ...? गौरी लंकेश के खिलाफ जुटी आवाजें अब कहां गुम हैं ?
बहुत हद तक ये सवाल जायज भी हैं. ऐसे सवाल पूछे भी जाने चाहिए कि गौरी की हत्या पर उतना हंगामा तो शांतनु की हत्या पर इतना सन्नाटा क्यों? प्रेस क्लब ऑफ इंडिया या बाकी संगठन को इस हत्या के खिलाफ कड़े स्वर में विरोध दर्ज करना चाहिए. मान कर चल रहा हूं कि कराएंगे भी. सवाल तो ये भी है कि सोशल मीडिया के सिपाहियों और कर्मठ कार्यकर्ताओं को इतनी जल्दबाजी क्यों हो गई? शांतनु भौमिक की हत्या के विरोध के बहाने गौरी लंकेश की हत्या के बाद एकजुट होने वालों को घेरने की मुहिम क्यों चल पड़ी? इनका गुस्सा शांतनु की हत्या के खिलाफ है या गौरी लंकेश के पक्षधरों के खिलाफ? इन सवालों के जवाब में ही बहुत कुछ छिपा है.
बात सवाल पूछने वालों पर भी होनी चाहिए और मौन साधने वालों पर भी. दोनों सेलेक्टिव हैं. दोनों अपनी धारा के माकूल विषय देखकर ही बोलते और मौन साधते हैं. जो मौन साधता है, उसे दूसरा आकर कोंचता है कि तुम चुप क्यों हो? बोलते क्यों नहीं? और जो बोलता है, उसे भी पहला आकर पूछता है कि तब तुम कहां थे...तब तुम चुप क्यों थे? दोनों 'तब तुम कहां थे' के सिंड्रोम से ग्रसित हैं .
खास बात ये है कि त्रिपुरा के पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या पर खुद शोक संतप्त होकर गौरी लंकेश की हत्या पर शोक मनाने वालों को घेरने वालों में वो लोग भी हैं, जो गौरी लंकेश को गोलियों से छलनी किए जाने के चंद घंटों के भीतर उन्हें पूतना, कुतिया, रावण की बहन-बेटी घोषित करके जश्न मना रहे थे. गौरी की हत्या को पूतना वध कह रहे थे. गौरी लंकेश की हत्या के बाद उन्हें डायन, चुड़ैल, संपोली...न जाने क्या-क्या कहा गया.
उनके पुराने लेखों और विचारों को सोशल मीडिया पर शेयर करके उनकी हत्या को सही साबित करने की कोशिश खुलेआम की गई. कई दिनों तक सोशल मीडिया पर गौरी की हत्या के खिलाफ बोलने वाले को हर तरह से घेरा गया. ऐसा माहौल बना दिया गया कि गौरी का मारा जाना किसी भी तरह से गुनाह नहीं. बल्कि गुनाह वो कर रही थीं, जिसकी किसी ने उन्हें सजा दे भी दी तो हाय तौबा नहीं मचनी चाहिए.
त्रिपुरा में पत्रकार शांतनु की हत्या की निंदा भी होनी चाहिए और त्रिपुरा सरकार की लानत-मलामत भी. गौरी लंकेश की हत्या पर एकजुट हुए वामपंथी नेताओं को भी जवाब देना चाहिए कि जब उनके सूबे में पत्रकार सुरक्षित नहीं तो वो किस मुंह से गौरी लंकेश की हत्या पर मातम मनाने के जुलूस में शामिल हुए थे? अगर तब चीख रहे थे तो अब भी चीखिए और कहिए कि आपके राज ये कैसे हुआ? पत्रकारों की सुरक्षा में अपनी सरकार और तंत्र की नाकामी का जवाब दीजिए.हत्यारों को सलाखों के पीछे पहुंचाकर कबूल करिए कि ये आपकी नाकामी थी.
यकीनन वामपंथी जमात को भी त्रिपुरा के इस पत्रकार के कत्ल की निंदा भी उसी तेवर के साथ करनी चाहिए. प्रेस क्लब में पत्रकारों की सभा में मंचासीन वामपंथी नेताओं ने तब गौरी लंकेश की हत्या पर जितनी चिंता जताई थी, वो सारी चिंताएं तभी मायने रखेंगी, जब कन्हैया कुमार से लेकर डी राजा, सीताराम येचुरी उसी अंदाज में, उसी तेवर के साथ वामपंथ शासित सूबे में एक पत्रकार की हत्या पर चिंता जताएं. विरोध दर्ज कराएं.
किसी भी पत्रकार या लेखक की हत्या को सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी/प्रेस की आजादी पर हमला मान कर मैं नहीं देखता. मेरा मानना है कि विचार का मुकाबला विचार से हो, चाकू और गोलियों से नहीं. तब तक जब तक वो विचार या विचारधारा वाला व्यक्ति देश/समाज के लिए बड़ा खतरा न बन जाए. अगर कोई ऐसा खतरा बनता है तो उसे रास्ते पर लाने /सबक सिखाने/सलाखों के भेजने /कानून की गिरफ्त में पहुंचाने के कई तरीके हैं. जो सभ्य समाज के तरीके हैं. किसी भी सूरत में गौरी की हत्या को जस्टीफाई नहीं किया जा सकता और जो जस्टीफाई करते रहे हैं वो शांतनु भौमिक की हत्या के विरोध का मुखौटा लगाकर घेराबंदी का माहौल बना रहे हैं.
गौरी की हत्या के पीछे कौन लोग थे ? क्या उनके लेखन की वजह से उन्हें मारा गया ? क्या उनकी विचारधारा से चिढ़े किसी कट्टरपंथी ने उनकी हत्या कर दी ? इसका खुलासा होना अभी बाकी है. हो सकता है कि इसमें लंबा वक्त लगे. हो सकता है कि गौरी लंकेश के हत्यारे पकड़े भी न जाएं. जैसे कलबुर्गी और पनसारे की हत्या के बहुत से तार आज तक नहीं जुड़ पाए. गौरी की हत्या के बाद कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता गौरी लंकेश को बचा न पाने वाली अपनी सरकार पर शर्मिंदा होने की बजाय पीएम मोदी को घेरने में जुट गए. उनका हित इसी में सधता दिखा.
अगर गौरी लंकेश पर कोई खतरा था तो उनकी हिफाजत की जिम्मेदारी कर्नाटक की कांग्रेस सरकार की थी. तो प्रेस क्लब में गौरी लंकेश की हत्या पर बुलाई गई पत्रकारों की सभा में कांग्रेस नेता शोभा ओझा के आने या बुलाने का कोई औचित्य नहीं था. अगर वो बिन बुलाए आ भी गईं तो उन्हें माइक थाम कर गौरी की हत्या शोक व्यक्त करने से पहले अपनी शर्मिंदगी और नाकामी का इजहार करते हुए कबूल करना चाहिए था कि गौरी को न बचा पाने के लिए उनकी सरकार ज़िम्मेदार है
वामपंथी नेता भी खूब बोले. तब उन्हें बोलना मुफीद लग रहा था. अब वो बोलने से पहले सोच रहे होंगे. जो तब या तो चुप थे या गौरी के लेखकीय गुनाह पर रिसर्च करके चाहे-अनचाहे उनकी हत्या को सही ठहरा रहे थे, वो अब बुरी तरह से सक्रिय हैं. जैसे इस बार उनकी बारी हो.
इन सबके के बीच बड़ा सवाल है पत्रकारों की सुरक्षा का. देश के हर हिस्से में पत्रकारों पर हमले होते रहे हैं. सीवान में राजदेव रंजन से लेकर यूपी के शाहजहांपुर तक से ऐसी खबरें सुर्खियां तो बनीं लेकिन पत्रकारों की सुरक्षा के मुद्दे पर सरकारों की तरफ से कोई पहल नहीं होती दिख रही है. जरूरत इस बात की है. असल मुद्दा ये है. पत्रकार चाहे बेंगलुरु की गौरी लंकेश हों या त्रिपुरा का शांतनु भौमिक. विरोध और एकजुटता दोनों के पक्ष में हो, इसमें कोई शक नहीं.
जिन-जिन पत्रकारों ने गौरी की हत्या के विरोध में कुछ लिखा या सोशल मीडिया में इस जघन्य हत्या के खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें शांतनु की हत्या के बहाने ट्रोल किया जा रहा है. प्रेस्टीच्यूट /दलाल / बिकाऊ और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है. कोई शक नहीं कि ऐसा बहुत बड़ा तबका है इस देश में, जिसके हर विरोध और विमर्श की बुनियाद मोदी विरोध पर टिकी है.
सही या गलत, मायने नहीं रखता. इसका मतलब ये नहीं कि आलोचना की हर आवाज बिकी हुई है. असहमति की हर आवाज को प्रेस्टीच्यूट कह दिया जाए. हम गौरी लंकेश की मौत पर मातम मना रहे थे. शांतनु की मौत पर भी मातम मनाएंगे. कितना मनाएं. कब मनाएं. कहां मनाएं. ये पैमाना तय करने का हक उन्हें नहीं, जो किसी की हत्या को भी सही ठहराने की दलीलें देते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार और इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर अजित अंजुम के फेसबुक से साभार 

16 सितंबर 2017

अथ श्री एक्सप्रेस ट्रेन शौचालय कथा भाया बुलेट ट्रेन

अथ श्री एक्सप्रेस ट्रेन शौचालय कथा भाया बुलेट ट्रेन

अरुण साथी
पटना से सूरत, दिल्ली, पंजाब , मुंबई एक्सप्रेस का स्लीपर डिब्बा खचाखच भरा हुआ। एक दूसरे से देह रगड़ा रहा है। दरबाजे पे भी हेंडल पकड़ कई लटके हुए है। बगल में पोस्टर सटा हुआ है। लटकला बेटा त गेला बेटा! वहीं किसी ने लिख दिया पूरा देश आज लटका हुआ है। देख लीजिए फेसबुक, ट्वीटर!!

उसी में किसी तरह मघ्घड़ चा भी लोड हो गए। उनका झोला तो बाहर ही रह गया। गनीमत की पॉकेट में टिकट रख लिए थे। अंदर देह से देह रगड़ खा रहा है। एक सूत जगह खाली नहीं। खैर बेटा सीरियस है एम्स में। कहीं और इलाज ही नहीं हो सका। जाना तो होगा ही।

छुकछुक छुकछुक, छुकछुक छुकछुक रेलगाड़ी चलती जा रही थी। तभी काला कोट धारी मोटूमल टीटी दो तीन मुस्टंडे के साथ सबको गाली-गलौज करते डब्बे में गांधी जी समेटने में लग गया। ज्यादा लोग मजदूर। टिकट रहते हुए भी हड़का देते। बक्सा ले जाना मना है! गोदी के बच्चे का टिकट क्यों नहीं! खैर मघ्घड़ चा से भी यही पैतरा आजमाया। मघ्घड़ चा तो अपने खेलल खिलाड़ी है। रिजर्वेशन में वेटिंग का टिकट दिखा दिए। "एक अधेली धूस नै देबो टीटी बाबू, जादे करभो त दिल्ली जा रहलियो हें, मोदिया से कम्पलेन करबो जाके। की नाम हो तोर। टीटी बढ़ गया। कहाँ मगजमारी करें। इतना में कई मुर्गा धरा जाएगा।

"ये हटो हटो, तनी जाने दो। लघुशंका जाना हे हो। पटने के लगल हे बक्सर पहुंच गेल। चिनिया के मरीज हूँ मर्दे।"
मघ्घड़ चा को जोर से लगी थी। किसी तरह ठेल-धकेल के शौचालय तक पहुंच गए। नजारा देखा तो झांय आ गया। शौचालय का दरवाजा खुला है। चार-पांच आदमी उसमें जमे हुए है। अब का करें भाय। मघ्घड़ चा गरम हो गए।
"का हाल कर दिहिस है। जरियो लाज बिज नै हो। कैशन रेलगाड़ी हो। हग्गे-मुत्ते पर भी आफत!"
"का करियेगा चाचाजी। पेट मे जब आग लगो हई त गू-मूत नै दिखो हई!" एक नौजवान ने तंज कसा।"

तभी उसी शौचालय में लफुआ मोबाइल (स्मार्ट मोबाइल) हाथ मे लिए एक युवक जोड़ से चिल्लाया।
"बधाई हो। मोदीजी ने बुलेट ट्रेन का शिलान्यास कर दिया। इसे कहते है। अच्छे दिन।" ट्रेन में सन्नटा छा गया। मघ्घड़ चा का प्रेशर जोर मार रहा था। समझ नहीं आया कि क्या प्रतिक्रिया दें। गांव के चौखंडी पे लोग उनको भगत जी कहके चिढ़ाते है। अभी हाल में रेल हादसों पे लंबी बहस चली। संसद में क्या वैसा चलेगा। स्कुलिया बच्चा सब रुक के सुनता था। दो-चार जो विरोधी था उसको चुप्प करा देते।
"सत्तर साल के कोढ़ एक दिन में ठीक होतै!अकेले मोदिया की करतै, हमरो, तोरा सुधरे के चाही।"

तभी उनको लगा कि उनकी घोती गीली हो रही है। प्रेसर हाई। उनके आंखों के आगे तारे चमकने लगे! और हाय मोदिया कहते हुए मघ्घड़ चा बेहोश हो गए...!

बस इतना ही दुआ कीजिये
कि बाकि सब  ठीक हो,
किसी तरह से अच्छे दिन
सबको नसीब हो!!

बुलेट ट्रेन चले,
बस गाय-गुरू जैसा
आम आदमी ने मरे
सबके लिए नीति बने
अमीर हो, गरीब हो!!

07 सितंबर 2017

लंकेश के हत्यारे का अट्टहास...

हत्यारे अट्टहास कर रहे हैं...

गौरी लंकेश को किसने मारा, क्यों मारा, इन वजहों की तलाश अभी बाकी है परंतु राजनीतिक पूर्वाग्रहों की वजह से जिस तरह एक पक्ष किसी को आरोपित कर रहा है सबसे पहले मैं उसकी निंदा करता हूं परंतु दूसरा पक्ष जिस तरह से सोशल मीडिया पर गौरी लंकेश की खिल्ली उड़ा रहा, उनकी हत्या पर अट्टहास कर रहा, जश्न मना रहा और गंदी गंदी गालियों से उनको नवाज रहा इतना ही नहीं उनकी तरह समान विचारधारा वाले को भी गालियां दी जा रही यह अपने आप में इस बात को साबित करता है कि गौरीशंकर लंकेश को किसने मारा! मारने वाला हत्यारा भले ही  किसी व्यक्तिगत कारण से उनकी हत्या की हो परंतु सोशल मीडिया के कट्टरपंथी धुरंधर उनकी हत्या लगातार कर रहा है। कई बार उनको मार रहा है।

विचारों से सहमति-असहमति ही लोकतंत्र की खूबसूरती है। परंतु एक बहुत बड़ा वर्ग यदि किसी की हत्या को उचित ठहराने लगे तो मेरी समझ से आईएस और तालिबान सरीखे आतंकवादी और उनके समर्थकों से अलग इनकी सोच नहीं है। स्वागत है तालिबानीकरण का!

सावधान! मैंने पहले ही कहा की हत्या के बाद किसी को भी आरोपित करना निंदनीय है! एक पक्ष जिस तरह रोहित वेमुला प्रकरण या दादरी प्रकरण पर हो हल्ला मचाया और दिल्ली के डॉक्टर नारंग सरीखे प्रकरण पर ओम शांति रखा, यह भी एक वजह मुझे दिखती है कि देश में कट्टरपंथी विचारधारा को हम हवा दे रहे हैं! धर्मनिरपेक्षता कि खुद से गढ़ ली गयी वर्तमान परिभाषा को हमें फिर से परिभाषित करने की जरूरत है नहीं तो इस देश को जिस दिशा में ले जाया जा रहा उसके कलंक का टीका आपके माथे पे भी होगा..

06 सितंबर 2017

हत्यारा कौन...?

हत्यारा कौन?

सवाल यह नहीं है
कि किसने मारा

सवाल तो यह भी नहीं है
कि किसको मारा

सवाल तो यह भी नहीं है
कि किससे मारा

सवाल यह है
कि क्यों मारा..

उससे भी बड़ा सवाल
यह है कि
जब हत्यारा
हो कोई विचारधारा
तब हम
वामपंथी
दक्षिणपंथी
मध्यमार्गी
समाजवादी
पूंजीवादी
हिन्दू
मुस्लिम
ईसाई
में उलझकर
हत्यारे को माफ कर देत हैं..
06/09/17