31 दिसंबर 2013

एक पत्रकार का अपहरण (आपबीती)--अंतिम कड़ी

दिसम्बर की सर्द रात को कोहरे ने अपने आगोश में ले लिया था और हमारे प्राण को अपराधियों ने अपने आगोश में। जिंदगी और दोस्ती की बाजी में मैंने जिंदगी को दांव पर लगा दिया। मैं उसे यह समझाता रहा है कि हमलोग पत्रकार है और हमारा अपहरण करने से कोई फायदा नहीं होगा। जान भी मार दोगे तो क्या मिलेगा? फिर बॉस ने अपने एक साथी को बुलाकर हमें मरने का आदेश दिया। 
‘‘चलो काम खत्म करो यार, कहां ढोते रहोगे। खत्म कर दो यहीं।’’ देशी पिस्तौल की ठंढी नली कनपटी पर आकर सटी तो मेरे जैसे अर्ध-आस्तिक के पास भी ईश्वर को याद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। हे भोला। जीवन के अच्छे-बुरे कर्म तरेंगन की तरह आँखों के आगे नाचने लगे। बुरे कर्मों को अच्छे कर्मों से संतुलित करने लगा पर पलड़ा बुरा का आज शायद भारी था इसलिए तो मौत सामने खड़ी थी और मैं जिंदगी से हिसाब किताब कर रहा था। खुद के बारे में सोंचने लगा। परिवार का क्या होगा? किसी का सहारा भी तो नहीं। एक छोटा भाई है बस। किसी तरह की जमा पूंजी तक नहीं। ईश्वर को याद करता हुआ उनसे बतियाने लगा। जैसे कि वह सामने हो और सब कुछ उनकी मर्जी से हो रहा हो। अपने अच्छे कर्म की दुहाई भी देता तब बुरे कर्म सामने आ जाता। देवा। शायद मौत के आगोश में ही जिंदगी की हकीकत सामने आती है। गीता का वचन, कर्म प्रधान विश्वकरि राखा याद आने लगा। कोई जैसे पूछ रहा था .
‘‘बताओ क्या किया इतने दिनो’’ और मैं जबाब दे रहा है। इसी तर्क वितर्क में कट की आवाज ने बुरे कर्म की प्रधानता बता दी, गया, पर नहीं, यह पिस्तौल के बोल्ट के चढ़ाने की आवाज थी।
 ‘‘रूको’’, बॉस की यह आवाज जैसे ईश्वर का आदेश हो। ‘‘चलो इसको लेकर चलते है।’’ सफर फिर से प्रारंभ हो गया। सर्दी की यह कंपकंपा देने वाली रात आज डरावनी नहीं लग रही थी और न ही अब मौत का डर लग रहा था। पता नहीं क्यों मौत की आगोश में होने के बाद उसका डर खत्म सा हो गया था या यूं कहें कि सोंच लिया था कि जब मरना ही है तो मरेगे, पर मैंने जिंदगी का दामन नहीं छोड़ा। ऐसे समय में आचार्य रजनीश की बातें याद आने लगी। 
‘‘मौत तो सुनिश्चित समय पर एक बार आनी तय है इसलिए उसके भय से बार बार नहीं मरना।’’
और मैं फिर मौत से बतियाने लगा।
‘‘काहे ले हमरा अर के मारे ले कैलो हो, जिंदा रहबो त कामे देबो।’’ मैं समझाने के विचार से बोला।
‘‘की काम देमहीं।’’
बातचीत प्रारंभ, मैं यह समझाने की प्रयास करने में सफल हो रहा था कि हमलोग समाज से तुम्हारी तरह ही लड़तें है। अन्याय का विरोध करते है। सफर में बातचीत का सिलसिला चलते चलते लगा जैसे दो मित्र आपस में बात कर रहे हो। मैं मनोविज्ञान के लिहाज से उसका आत्मीय होने का प्रयास करने लगा। फिर एकएका मुझे कंपकंपी लगने लगी। हाफ स्वेटर पर ठंढ बर्दास्त नहीं हो रही थी औंर मैं कंपाने लगा। तभी मेरे देह पर एक चादर आ कर रखा गया। 
‘‘ ला ओढ़ो, हम कोट पहनले हिए।’’ बॉस से युवक ने अपने देह से चादर उतार कर मेरे देह रखते हुए कहा। देवा। मौत को भी संवेदना होती है? और बोलते बतियाते हमलोग चलते रहे। इस बीच सभी का व्यवहार अब पहले जैसा नहीं रहा, थोड़ आत्मीय हो गया। रास्ते में कहीं झाड, तो उंचे उंचे टीले मिले। हमलोग चलते जा रहे थे। तभी रास्ते में बड़ी सी नदी मिली। सब मिलकर पार करने की सोंचने लगे। ‘‘पानी अधिक नहीं है पार हो जाएगें।’’ एक ने प्रवेश कर देखते हुए कहा। फिर जुत्ता, मौजा हाथ में और हमलोग पानी मे। 
नदी में पानी कम और कीचड़ ज्यादा दी। भर ठेहूना कीचड़ में धंसता हुआ जा थे। उस पार दूर एक गांव के होने का आभास हुआ। कुत्तों ने भौंकना प्रारंभ कर दिया था। थोड़ी ही दूर चलने पर नदी के अलंग पर ही एक धान का खलिहान मिला। हमलोग वहीं बैठ गए। कारण हमलोगों से ज्यादा उसमें से एक की हालत ठंढ से ज्यादा खराब थी। सब लोग वहीं बैठ गए। आलम यह कि उपरी तौर पर हमलोग आपस में धुलमिल गए थे। बोल-बतिया ऐसे रहे थे जैसे वर्षों पुराना मित्र। उनलोगों को विश्वास में ले लिया कि यदि मुझे छोड़ दिया तो किसी प्रकार का खतरा नहीं होगा। पुलिस को भी कुछ नहीं बताएगे।
 फिर उसमें से एक ने मचिस निकाली और नेबारी लहका दिया। सब मिलकर आग तापने लगे। फिर थोड़ी देर के बाद बॉस ने कहा कि चलो मुखिया जी से चलकर आदेश ले लेते है कि क्या करना है, मारना है कि छोड़ना है। और फिर दो साथी उस गांव की ओर चल दिए जिधर से कुत्तांे के भौंकने की आवाज आ रही थी। दो ने अपने हाथ में पिस्तौल निकाल लिया, 
‘‘कोई होशियारी नै करे के, नै ता जान यहां चल जइतो।’’
‘‘नै नै होशियारी की, जे तोरा करे के हो करो, हमरा ले भगवान तोंही हा, मारे के मारो, जियाबे के हो जियाबो।’’
 फिर धीरे धीरे आग लहकता रहा और सबकी आंखों में नींद नाचने गली। दोनों अपराधियों को नींद ने अपने आगोश में ले लिया। एक की पिस्तौल वहीं रखी हुई थी। पर मैं बेचैन हो रहा था। मेरे मन में यहां से भागने का ख्याल आने गला। पिस्तौल को अपने कब्जे में लेकर यहां से भाग सकते है? पर मेरे मन की यह बात यहीं दबी रह गई। मेरे मित्र मनोज जी के खर्राटे की आवाज ने मेरे अरमानों पर पानी फेर दिया। यदि मैं भागने की या इनको जगाने की कोशीश करता हूं तो यह लोग भी जाग जाएगें और फिर खेल खत्म.....
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      दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंढ और रात भर खुले आसमान में मीलों चलने के बाद कैसी हालत होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। जिंदगी और मौत से जद्दोजहद में आज न आग प्यारी लग रही थी और न ही ठंढ सता रही थी। हमेशा दिमाग में तरह तरह के ख्याल आते रहते और यूं ही सोंचते हुए करीब एक धंटा बीता होगा तब जाकर दोनों मुखिया से लौट आए। आते ही दोनों साथियों को जगाया और अलग हटकर खुसुर फुसुर करने लगे। फिर सरदार ने आकर हमसे बात की। मैंने खर्राटे ले रहे मित्र को जगाया और सरदार की बोलने की टोन बदली हुई थी। वह हमदोनों को समझाने लगा। 
‘‘देख भाय, जे होलौ उ मनेजर के गफलत में, हमसब ओकरा उठावे बला हलियो पर एक नियर गाड़ी होला से गड़बड़ हो गेलो, सेकरासे अब जे होलो से होलो छोड़ तो देबौ पर पुलिस के चक्कर में मत फंसाईहें।’’
समझ गया कि छोड़ने का मन बना लिया है पर कहीं पुलिस के पास न चला जाउं इसलिए डर रहा है। मैं फिर उससे अत्मियता दिखाते हुए बतियाने लगा।
‘‘देखो दोस्त, हमरा ले तों भगवान हा और हम पुलिस के पास काहे जाइबै, तो की कैला हमरा।’’
मैं उसे विश्वास दिलाने लगा कि मैं पुलिस को उसके बारे में कुछ नहीं बताउंगा और न ही किसी प्रकार की उससे नाराजगी है। यह करते कराते काफी समय बीत गया। उसे हमदोनों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। फिर मैंने मनोज जी को टहोका और उन्हांेने ईसारा समझ उसे भरोसा दिलाने लगे कि जो हो हमलोग आपके साथ रहेगे।
 फिर समय आया भरत मिलाप का। विदाई का वक्त ऐसा भारी पड़ा जैसे राम को जंगल छोड़ने के समय भरत पर भारी पड़ा हो। सचमुच हमसब भावुक हो गए थे। वे सब हमे छोड़ने वाले थे यह विश्वास हो गया था फिर भी हम यहां से जल्दी निकल जाना चाहते थे। अब समय था जुदा होने का और इस समय मैं भावनाओं को रोक नहीं सका। विश्वास ही नहीं हो रहा था हमलोग जिन्दा  घर जानेवाले है। मैं रोने लगा। फूट फूट कर रोने लगा। और फिर सरदार से लिपट गया। वह भी भावों में बह गया। रोने लगा। फिर मनोज जी भी भावुक हो गए। हमलोग बारी बारी सबसे गले मिल लिए। 
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 हमलोग वहां से जाने लगे। थोड़ी दूर बढ़ा ही था कि ‘‘रूको’’ की आवाज सुनाई दी। फिर से डर गया। हमलोग रूके तो सरदार ने आकर कहा कि "उसके साथी आपके पैसे लेने के लिए कह रहे है। क्या करे वे लोग नहीं मान रहा। साला कमीना छोड़ने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ है। मैं तो यह नहीं कर सकता इसलिए जो जेब में थोड़ी बहुत हो तो दे देंगें तो उनलोगों को तसल्ली हो जाएगी।"
 फिर मनोज जी ने उपर की जेब से जो भी रखा था निकाल दे दिया। फिर उसने उनके घड़ी की तरफ ईसारा किया और उन्होने घड़ी  निकाल कर दे दिया। मैंने भी वहीं किया तो भी जेब में था दे दिया। मनोज जी के उपरी जेब में चार सौ और मेरे पास सौ रूपये थे। दोनों वहां से निकल गए। 
 वहां से निकलने के बाद भी यकीं नहीं हो रहा था कि उन्हांेने हमें छोड़ दिया है। लगता रहा कि पीछे से आऐगें और गोली मार देगें। धुप्प अंधेरे में चलता जा रहा था। न रास्ते का पता चल रहा था, न किसी गांव का। रास्ते में कोई चीज खड़ी होती तो लगता वही लोग खड़े है।
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 खैर करीब एक धंटा चलने के बाद कुत्तों के भौंकने से यह आभास हो गया कि आसपास एक गांव है और हमलोग उधर ही चल दिए। कुछ दूर चलने के बाद एक गांव मिला। हमलोग घरों का दरबाज खटखटाने लगे पर किसी ने दरबाजा नहीं खोला। पूरा गांव घूम गया। अंत में एक दालान पर कुछ लोग पुआल बिछा कर बाहर ही सो रहे थे। हमलोगों ने जगाया। अब उनलोगों ने जब पूछा कि कहां घर है, कहां से आए हो तो अकबका गया। नवर्स तो थे ही कुछ बताना भी जरूरी था जिसपर उन्हें भरोसा हो जाए। बताया कि पटना से आ रहे थे रास्ते में नशाखुरानी का शिकार हो गया और फिर रेल से फेंक दिया गया और रात भर भटकते भटकते यहां पहूंच गया। रामा। ठंढ़ से देह थर्रथराने लगा। लगा जैसे रात भर की ठंढ अभी अभी सिमट आई है। पूरा देह बर्फ की सिल्ली की तरह जमने सा लगा था। दोनों वहीं पुआल पर बैठ गए। पैर में ठेहुंना तक कादो लगा हुआ था। लोगों ने पंडित जी कह कर घर वालों को जगाया। पंडित घर से निकले। गांव का नाम पूछा तो बताया गया, यह पटना जिले का बाढ़ थाना के अजगारा गांव है। बाढ़ का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। कुख्यात अपराधी सरगना अनन्त सिंह का ईलाका। यहां तो दिन में भी मार कर फेंक देगा और पता नहीं चलेगा। 
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 खैर, पंडित जी का पूरा परिवार जाग गया। बहुत अफसोस जताते हुए पंडित जी ने आश्रय दे दिया। ओढ़ने के लिए एक कंबल भी दे दी। रात के लगभग तीन बजे थे। अभी सुबह होने में एक-आध घंटे बाकी थे। पंडित जी की पत्नी ने चाय लाकर दिया और गर्म चाय ऐसे गले में उतर रही थी जैसे अमृत।
 अजीब आफत है। रात भर नींद नहीं आई। लगता रहा कहीं से कोई आया और हमे पकड़ ले जाएगा। खैर, सुबह हो गई। बस पकड़ कर बाढ़ आ गया और फिर सबसे पहले घर पर टेलीफोन किया। जनता था सब परेशान होगें। फिर बाढ़ से बस पकड़ कर घर के लिए चल पड़ा। मनोज जी के पास पैसे थे। उन्होने बताया कि उनकी पिछली जेब में दो हजार रूपये थे जिसे उन्होने छुपा कर रखा था।

 ओह, घर आया तो यहां का नजारा भी बदला बदला हुआ था। कई तरह की चर्चाऐं हो रही थी पर कुछ दिल को दुखाने वाली बातें भी सामने आई। मैं अपने घर गया। पत्नी का बुरा हाल था। मुझसे लिपट कर रोने लगी।  देवा, कैसे कैसे दिन दिखाते हो। इस बीच कई बातों की जानकारी मिली। यह कि मेरा छोटा भाई बरूण को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने यह पता लगा लिया कि अपहरण करने वाला सरदार तोरा गांव का संजय यादव है। वह अपने साथियों के साथ संजय यादव के घर पर जा धमका और धमकाया। भैया को कुछ हुआ तो पूरे परिवार को खत्म कर देगें। फिर उसे वहां से छोड़ देने का आश्वासन मिला। और अन्त में दुख हुआ तो यह कि उस दिन के अखबार में एक कॉलम की खबर भर छपी थी पत्रकार का अपहरण। वह भी स्थानीय पत्रकार मित्रों के सहयोग से। अखबार के लिए यह और लोगों की तरह ही एक खबर भर थी। हाय रे। जिसे अपना समझ रहा था वही अपना नहीं।
 खैर इस बीच साल दर साल बीतते गए और फिर बिहारशरीफ कोर्ट से नोटिस आया कि अपहरण कांड में गवाही देनी है। संजय यादव कई कंडों में पकड़ा गया था। दोनों ने जाकर गवाही दे दी कि संजय को नहीं जानता। अपना फर्ज निभाया। बहुत मंथन करता रहा कि गवाही दें की नहीं। पर संजय के व्यवहार और उससे किए गए वादों ने गवाही दिलबा दी।
 वहीं पिछले चुनाव में संजय यादव पंचायत चुनाव में मुखिया के लिए चुनाव लड़ने की योजना बनाई और फिर अखबार में खबर छपी की सरमेरा में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई। वहीँ मुख्य सरगना और बरुआने मुखिया की हत्या हो गयी.
 आज तीस तारीख है और इस बात को याद करते हुए जिंदगी कई रंग दिखा देती है। अपराधियों का सच और जिंदगी की हकीकत, सबकुछ....

30 दिसंबर 2013

एक पत्रकार का अपहरण-(आपबीती)-२- पुरानी यादें ...

फिर अपराधी दोनों को कुछ दूर खेतों में ले गए और पूछ ताछ करने लगे। उनमें से एक मनोज जी को गलियाने लगा।-
‘‘साला, बड़का मैनेजर बनता है, बैंक में लॉन लेने के लिए जाते है तो टहलाता है, बाबा बनता है, अब बताओ।"
उसकी बातों से लगा कि वे पीएनबी बैंक का मैजेनर समझ कर दोनों का अपहरण किया है। यह बात भी समझ आ गई कि ये लोग मुझसे तुरंत पहले निकले मैनेजर का अपहरण करना चाहते थे पर एक ही रंग की गाड़ी दोने की वजह से कन्फयुज कर गए। 

खैर, हमदोनों पहले अपना अपना परिचय दिये और बताया कि हम बैंक मैनेजर नहीं हैं पर उनको मेरी बातों पर यकीन नहीं हुआ। चुंकि मेरे मित्र बढ़िया जैकेट, घड़ी और चश्मा लगाए हुए थे सो उनको लगता था कि यह मैनेजर ही है। फिर वहां से थोड़ी दूर खंधा में हम दोनों को पैदल ले गया और एक उंचे अलंग के नीचे सब मिलकर बैठ गया। मैंने गौर किया कि चार तो मेरे साथ थे पर एक हमलोगों से थोड़ी दूरी बना कर चल रहा था। हमलोग अपने पत्रकार होने का परिचय भी दिया पर वे लोग मानने को तैयार नहीं थे। अब दोनों के पास कोई चारा नहीं था। मनोज जी कुछ बोलना चाहे तो फिर पिस्तौल की बट से मार दिया। वे नर्वस हो गए। पर मैं समझ गया कि ये लोग अपराधी है और अब धैर्य के अलाबा कोई चारा भी नहीं, सो मैं उनमें से एक, जो देखने में थोड़ समझदार और संस्कारी लगता था, बतियाने लगा। मैंने अपना पूरा परिचय सही सही दिया। उसके एक मित्र के बारे में भी बताया कि जो  अपराधी गतिविधियों में शामिल रहता था और मेरे गांव का था। उसने उसे पहचाना। धीरे धीरे अंधेरा घिरने लगा। सड़कों पर केवल गड़ियों के चलने की आवाज और लाइट दिखता था। दिसम्बर का महिना था और मैने केवल हॉफ स्वेटर पहन रखा था सो ठंढ़ से कंपकपाने गला। फिर सबने दोनों को चलने के लिए कहा। खंधा में खेते-खेते हमलोग चलते रहे। कहीं चना के खेत में बड़े बड़े मिट्टी के टुकड़ों पर चलना पड़ा तो कहीं बीच में गेंहू के पटवन किए खेत के कीचड़ से होकर गुजरना पड़ा। हमलोग लगातार तीन चार धंटा तक यूं ही चलते रहे। इस दर्दनाक और डरावने सफर में मुझे लगा की शायद अब दोनों का आज अंतिम दिन है। इस बीच मनोज जी थक गए और चलने से इंकार कर दिया। तभी उनमे से एक ने भद्दी-भद्दी गलियां देते हुए उनको मारने लगा। फिर सबने मिलकर आपस में बात की और कहा कि दोनों को खत्म कर दो, कहां ले जाते रहोगे। दो युवकों ने पिस्तौल तान दी। इसी बीच मैंने साहस का दामन नहीं छोड़ा और उसके सरदार की तरह लगने वाले युवक से बातचीत प्रारंभ कर दी। बहुत आरजू मिन्नत करने के बाद वह थोड़ा समझा और साथियों को रोक दिया। दोनों ने राहत की सांस ली। इसी बीच मनोज जी के पैर में बाधी (मांसपेसियों में खिंचाव ) लग गई और वह गिर गए। मैने झट उनके पैर को सहलाते हुए उनको सहारा दिया। अपराधियों को लग रहा था कि वह नकल कर रहे हैं। खैर मैने कंधे का सहारा दे उनको लेकर चलने लगा। बीहड़ माहौल। दूर कहीं कहीं किसी गांव के होने का अभाव कुत्तों के भौंकने की वजह से ही होती थी या कहीं कहीं किसी गांव में एक-आध लालटेन के जलने की वजह से। एक बात महसूस किया कि गांव से थोड़ी दूर पर ही होता था कि गांव में कुत्ते भौंकने लगते और फिर गांव का अभास मिलते ही अपराधी रास्त बदल देते।
 सफर जारी था और बातचीत का सिलसिला भी। इसी बीच सरदार की तरह लगने वाला युवक बड़ा आत्मीय ढ़ग से बातचीत करने लगा। मनोज जी ने कहा- "जो हो, मारना हो तो मार दो।" हमलोग बस चलते ही जा रहे थे। बातचीत में युवक को मैंने कुरेदना प्रारंभ कर दिया। 

 मैंने कहा कि मैं पत्रकार होकर जुल्म के विरोध में ही आवाज उठाता रहा हूं और जानता हूं कि अपराधी मजबूर होकर ही अपराध करते है। मेरी बात उसे चुभ गई। फिर उसने अपनी दारून कथा सुनाई। कैसे रोजगार की तलाश में वह भटकता रहा। कैसे रोजगार के लिए बैंक से लॉन लेने के लिए वह लगातार बैंक का चक्कर लगाता रहा है और बैंक ने लॉन देने से मना कर दिया। मैनेजर तो मिलने तक को तैयार नहीं हुआ। बातें होती रही और हमलोग चलते रहे। फिर जब वे लोग थक गए तब जाकर एक स्थान पर बैठ गये। उस युवक ने मुझे थोड़ी दूर साथ चलने की बात कही। मैं सहम गया। शायद मुझे एकांत में लेजाकर मार देगा? 
 पर नहीं वह मुझसे मेरे मित्र के बारे में पूछने लगा।
‘‘लगो है इ कोई बड़का आदमी है? बता दे तो तोरा छोड़ देबौ।’’ उसने अब अपनी मगही भाषा का प्रयोग किया। देवा। मनोज जी मोटरसायकिल शो रूम के मालिक थे, इस लिहाज से यदि यह बात उसे पता लग जाती तो निश्चित ही वह उन्हें पकड़ के ही रख लेता। वह शातीर भी था जो मुझे छोड़ देने का प्रलोभन देने लगा। मैं उसे समझाता रहा है कि यह पटना से थक हार कर बरबीघा आ गए है और अखबार का एजेंट तथा पत्रकार है। वह मानने को तैयार नहीं हुआ और मेरी देस्ती की परीक्षा लेने लगा।
देवा, दोस्ती बचाउं की जान..........

जारी है..

29 दिसंबर 2013

जीवन का मंत्र....आज एक पुरानी कहानी

बचपन में सुनी कहानी आज भी चरितार्थ है। खासकर केजारीबाल के संदर्भ में। एक बुढ़ा आदमी जब मरने लगा तो उसने अपने बेटा को बुलाकर कहा कि चलो तुमको समाज के बारे में अच्छी तरह सबक दे देता हूं। उसने एक घोड़ा मंगाया और उसके उपर खुद बैठ बेटा को लगाम पकड़ कर चलने के लिए कहा। कुछ दूर जाने पर लोगों ने बुढ़े की निंदा करनी प्रारंभ कर दी। कैसा आदमी है बुढ़ा हो गया और घोड़ा पर बैठ कर चल रहा है बेटा से लगाम खिंचा रहा है।
फिर उसने बेटा को घोड़ा पर बैठा दिया और खुद लगान पकड़ कर चलने लगा। थोड़ी दूर जाने के बाद लोग बेटा की निंदा करने लगे, कैसा नालायक बेटा है, खुद घोड़ा पर बैठा है और बाप पैदल चल रहा है। घोर कलयुग है।
फिर दोनों घोड़े के उपर बैठ गए चलने लगे। थोड़ी दूर जाने के बाद लोग दोनों की निंदा करने लगे। कैसा अमानुष है? जरा दया नहीं? बेचारे घोड़े की जान ले लेगा?
फिर अन्तिम विकल्प के तौर पर दोनो पैदल चलने लगे। फिर लोगों ने निंदा करनी शुरू कर दी। वेबकुफ आदमी है। घोड़ा रहते हुए भी पैदल चल रहा है।
मेरे लिए यह कहानी जीवन का मंत्र है। इसके बाद कुछ नहीं बचता। आज केजरीवाल के प्रसंग में यह कहानी प्रसांगिक है।

एक पत्रकार का अपहरण-(आपबीती)-1 पुरानी यादें

30 दिसम्बर 2005 की वह काली शाम जब भी याद आती है मन सिहर जाता है। उस रात बार बार मौत ऐसे मुलाकात करके गई मानों रूठी हुई प्रेमिका को आगोश में लेने का प्रयास कोई करे और वह बार बार रूठ जाए।
 समय करीब चार बजे थे। नालन्दा जिला के सरमेरा प्रखण्ड से प्रभात खबर अखबार के लिए रिर्पोटर तथा एजेंट खोजने गए थे। उस समय पत्रकारिता का नया नया जोश था, सो अखबर के अधिक से अधिक बिक्री हो इसके लिए अपने मित्र मनोज जी ने एजेंसी ली। उस समय अखबार लगभग लॉन्च ही हुई थी। यहां बिक्री नही ंके बराबर थी और इसीलिए जुनून में आकर मोटरसाईकिल पर धूम-धूम कर अखबार का ग्राहक बनाया, सुबह सुबह कई धरों में भी अखबार पहुंचाया। पूरे शेखपुरा जिला का एजेंसी लिया था सो अखबार की बिक्री बढ़ाने के लिए मेहनत कर रहा था। इसी सिलसिले में सरमेरा जाना हुआ। लौटते लौटते चार बज गए।
 रास्ते भर आदतन हंसी मजाक करते हुए दोनों मित्र लौट रहे थे तभी तीन-चार किलोमीटर दूर जाने के बाद गोडडी गांव के पास मैने मोटरसाईकिल रोकने का आग्रह किया। लालू यादव के सरकार का अभी ताजा ताजा ही पतन हुआ था सो अपराधियों का आतंक और भय बरकरार था। मैंने कहा-
‘‘रोको जरी गड़िया, पेशाव कर लिऐ।’’
‘‘घुत्त तोड़ा तो कुछ डर-भय नै हो, क्रिमनल के ईलाका है कहीं कोई अपहरण कर लेतो तब समझ में आ जाइतो।’’
‘‘धुत्त छोड़ो ने, हमरा अर के, के अपहरण करतै, लपुझंगबा के।’’
और मोटरसाईकिल रोक दिया गया। हमदोनों फारीग हुए। उन दिनों बरबीघा-सरमेरा सड़क की हालत एक दम जर्जर थी। सड़क कम और गड्ढे ज्यादा थे। इसी वजह से बहुत कम बसें चलती थी। जैसे ही हमलोग मोटरसाईकिल पर चढ़ने लगे कि सेम कलर, सेम मोडल की एक मोटरसाईकिल पर दो लोग बगल से गुजरे। नंबर प्लेट पर मेरी नजर गई तो पंजाब नेशनल बैंक लिखा हुआ था। उस पर भी दो लोग सवार थे।
‘‘देखो, ऐकरा अर के  अपहरण करतै कि हम गरीबका के।’’-मैंने कहा और फिर वह मोटरसाईकिल मुझसे थोड़ी आगे निकल गई। मनोज जी ने  बताया कि यह सरमेरा पंजाब नेशनल बैंक का मैनेजर है। दोनों इसी चर्चा में मशगुल थे कि कैसे कोई इसका अपहरण नहीं करता। उन दिनों अपराधियों का बोलबाला था। कुख्यात डकैत कपिल यादव ने कुछ दिन पहले ही मेंहूस रोड में दो लोगों को बस उतार कर आंखें फोड़ दी थी।
 खैर, हमदोनों निश्चिंत भाव से बोलते-बतियाते, हंसी मजाक करते हुए चले जा रहे थे। मैनेजर की मोटरसाईकिल आगे निकल गई। तभी अचानक तोड़ा गांव के पूल के पास  पहूंचते ही तीन-चार लोगों मोटरसाईकिल के आगे पिस्तौल तान कर खड़ा हो गए। हमदोनों कुछ समझ पाते कि तभी मनोज जी के सर पर पिस्तौल की बट से मारना प्रारंभ कर दिया। फिर दोनों मोटरसाईकिल से उतर गए। अभी तक किसी भी प्रकार के अनहोनी की आशंका नहीं थी। पर तभी दोनों को सड़क के नीचे खेतों में पिस्तौल की बट से मारते पीटते ले जाने लगे। पहले तो लगा कि शायद लूटरें हो, पर जब खेतों में कुछ दूर ले जाकर सवाल जबाब करने लगा तो हम दोनों समझ गए कि दोनों का अपहरण कर लिया गया...

जारी है...

28 दिसंबर 2013

मैं आम आदमी हूँ ...

अरूण साथी
मैं आम आदमी हूँ..... कहने को तो मैं प्रजातंत्र का राजा हूं पर मुझे हरम में रखा गया। मुझे देख कर पुलिस उसी प्रकार टूट पड़ती जैसे किसी गली कोई नया कुत्ता आने पर अन्य कुत्ते टूट पड़ते। 
मेरा गुस्सा राजाओं महाराजाओं को आज तक नहीं दिखे। मेरा गुस्सा तब भी नहीं दिखा जब फेसबुक, ट्वीटर, ब्लॉग सहित अन्य सोशल मीडिया पर अपने गुस्से को रखने लगा। यहां भी राजा-महाराओं के चहेते मुझपर झंझुआ कर टूट पड़ते? मेरा गुस्सा उस समय भी तुमको नहीं दिखा जब जनलोकपाल के लिए एक बुढ़ा को कई दिनों तक अनशन पर छोड़ दिया गया। संसद में बैठ कर हंसी-ठठ्ठा किया। और तो और पुलिस ने रात के अंधेरे में लाठियों से मेरे बजूद को लहूलहून कर दिया। मेरा गुस्सा उस समय भी नहीं दिखा जब योग गुरू को अनशन करने पर विवश होना पड़ा। वहीं पुलिस जो मेरी रखवाली के लिए थी मेरे उपर लाठियों से प्रहार कर मेरी औकात बता दी। योग गुरू को भागकर जान बचानी चाही और उन्होने गिरफ्तार कर लिया। 
मैं वही आम आदमी हूँ जिनकी बहन-बेटियों के साथ राक्षस रूपी गिद्धों ने बोटी-बोटी चलती बस में नोच डाली। जब विरोध करने के लिए सड़क पर उतड़ा तो हाय, तुमने मेरा मजाक उड़ाया। लाठियां बरसायी। बेटियों को घर से निकालने पर तंज किए। बेटियों के कपड़े पर तंज किए। 
मैं वही आम आदमी हूं जिसके नौकर ही उससे नौकरों से बदतर व्यवहार करते है। मैं वही आम आदमी हूं जो जेब कट जाने से लेकर आबरू लुट जाने तक पर भी पुलिस-थाने नहीं जाना चाहता। जायें भी क्यों? वहां मेरे साथ क्या किया जाता है वह मैं लिख भी नहीं सकता। ओह ओह....
मैं वहीं आम आदमी हूं जिसे सचिवालय से लेकर ब्लॉक ऑफिस से हडका हड़का कर भगा दिया जाता है। मुझे पीने का पानी और बिजली के लिए चिरौरी करनी पड़ती है। अस्पतालों में दवा के आभाव में मैं तड़प तड़प कर मर जाता हूं? अच्छे स्कूलों में मेरे बच्चे पढ़ नहीं सकते? 
मैं वहीं आम आमदी हूं जिसे तुमने हमेशा हिन्दू-मुस्लमान में बांटा, जात-पात में बांटा? वोट के लिए दंगों में मैं ही मरा? भगवान के लिए मैं ही मरा? तुम्हारा अटटहास मेरे कानों में गुंजती रही। यूं तो मैं नरक में रहता हूं पर तुमने मुझे नरक में भी ठेला-ठेली करने पर विवश कर दिया।
थैंक्स केजरीबाल, तुमने मुझे मुझसे मिला दिया.....

22 दिसंबर 2013

बैंगन बेचबा गांव

जब भी कहीं रिश्तेदारी में गया लोग मेरे गांव (शेरपर) के बारे में यही कहते थे कि मेरा गांव तो बैंगन बेचबा गांव है। इसको लेकर चिढा़ते भी थे। कहते थे कि जब मेरे गांव कुटूम-नाता जाता है तो वहां के लोग बैंगन के खेत में काम करते ही नजर आते है और जब उनसे पूछा जाता है तो वे इस प्रकार जबाब देते है-
‘‘रिश्तेदार-क्या हाल चाल है कुटूम?’’
‘‘किसान-जी बैंगन में बहुत बीमारी लगल है।’’
‘‘रिश्तेदार-और घर-परिवर सब बढ़िया?’’
‘‘किसान-हां जी बैंगन इस साल कनाहा हो गया है।’’
समय बदला, अब मेरे गांव में बैंगन की जगह फूलगोभी की खेती होती है जिससे किसान अच्छी कमाई करते है। फूलगोभी किसानों के लिए वरदान की तरह है। एक बीघा फूलगोभी लगाने वाले किसान तीस से साठ हजार छः माह में कमा रहे है। सोंचता हूं मेरे गांव के पुर्वज बहुत समझदार होगें जो सब्जी की खेती करना बर्षों पहले सीख लिया था...


20 दिसंबर 2013

अच्छे लोगों को साहस दिया है आप पार्टी ने.

     
वर्तमान समय में राजनीति गंदगी का प्रर्याय बन चुकी थी। जब भी सभ्य जनों के बीच राजनीति की बातें शुरू होती थी तो वहीं कई लोग एकबारगी नाक-मुंह सिकोड़कर राजनीति पर बात नहीं करने की सलाह देते थे। राजनीति अच्छे लोगों के लिए नहीं रह गई। तब इसमें चोर-उच्चके, बेइमान लोग अपनी पकड़ बना ली। हत्या, अपहरण कर पैसे जमा करो और चुनाव लड़ कर सफेदपोश बन जाओ। आम अदमी पार्टी ने आज अच्छे लोगों को राजनीति में आने का साहस दिया। गरीब आदमी, समाजसेवी भी देश की सेवा आज हाथ बंटाने का साहस कर सकता है। आचार्य ओशो ने कहा था कि ‘‘कोई भी स्थान खाली नहीं रहती है। उसे भर जाना प्राकृतिक सच है। राजनीति में आज गंदे लोग इसलिए है कि उसमें अच्छे लोग नहीं जा रहे।’’ इसी को आज चरितार्थ होता हुआ देख अच्छा लग रहा है।
खांसता हुआ केजरीबाल एक आम आदमी की ही तरह लपुझंगा टाइप लगते है। उनके बोलने में अंहकार की भाषा नहीं होती है। उनको देख कर नेता टाइप बाला डर भी नहीं लगता है।  न ही उनमें राहुल सरीख रौब है जहां आम आदमी जाने से सहम जाए। बस इसी बात से सभी नेताओं की नींद उड़ गई। 
आज किसी भी मीडिया विमर्श में भाजपा, कांग्रेस एक साथ आप के नेताओं पर टूट पड़ते है। ठीक उसी प्रकार जैसे कौओ का झुंड उनके बीच आ गए कोयल पर टूट पड़ता है। पर टूट पड़ने से कुछ नहीं होने वाला। दिल्ली चुनाव से पूर्व दोनों पार्टियां आप का उपहास कर रही थी। परिणाम के बाद बोलती बंद हो गई।
आज सभी पार्टियों को इससे सबक लेने की जरूरत है। न सिर्फ मुख्य दोनों दलों को बल्कि क्षत्रिये और वाम दलों को भी। कथनी और करनी की असमानताओं के बीच आज वाम दल कहीं नजर नहीं आते। मीडिया विमर्श में भी चैनल वाले भी अब उनको जगह नहीं देते? यह वाम विचार धारा के बिलुप्त होने के खतरों की ओर संकेत करता है। वाम दल भी उन्हीं विचारधारा शुन्य पार्टियों की तरह छद्म सेकुलरवाद को लेकर गठबंधन की राजनीति करने लगी और राजनीति बयान बाजी भी। आज जमाना सोशल मीडिया का है। किसी भी बात को दबाया नहीं जा सकता, सो कथनी और करनी की असमानता नहीं चलने वाली।
इसी प्रकार क्षेत्रिय दल और कांग्रेस भी जिसप्रकार राजनीति को जमींदारी की वंशबाद राह ढकेल दिया और जनता उसके लिए रैयत हो गई और छद्म सेकुलर का नाटक दोनों दलों के द्वारा मिलजुल कर मंचित किया जाना लगा तो आम आदमी ने उसका भी जबाब दे दिया। वहीं देश को दो ध्रुविये राजनीति से आज निकलने का रास्त भी मिल गया है।

वहीं युवाओं ने अपने उपर लगे लफुआ होने के कलंक हो धो लिया है। आम तौर पर युवाओं पर देश और समाज के प्रति असंवेदनशील होने का आरोप लगता रहा है। आम आदमी पार्टी को मुकाम पर पहूंचा कर युवाओं ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया है।

जो भी हो, आज सभी राजनीति दल चक्रव्युह रच कर एक साथ केजरीबाल को फंसाने मे लगे है। अन्ना को भी इसका हिस्सा उसी प्रकार बना दिया जिसप्रकार भीष्म पितामह को। एक बारगी सभी पार्टियां और मीडिया चिल्ला रही है कि आप सरकार क्यों नहीं बना रही। जैसे ही किसी के साथ मिल सरकार बनाएगें तो चिल्लाना शुरू होगा,  नंगा हुआ केजरीबाल का चेहरा..

यही तो राजनीति है, देखना हो गया कि इस चक्रव्युह को केजरीबाल और उनकी पार्टी कैसे तोड़ती है?

01 दिसंबर 2013

काचूर छोड़ता आदमी...

सांप की ही तरह
आदमी भी छोड़ता है काचूर ...
कभी धन-सम्पदा
कभी मान-प्रतिष्ठा
कभी कभी तथाकथित
विद्वता का...पारदर्शी काचूर ...

काचूर छोड़
सांप देह से उतार देता है
अपने अस्तित्व का एक हिस्सा....

और आदमी
ओढ़े रखता है
अपने अंहकार को
काचूर की तरह....

सुना है कचुराल सांप
डंसने से बचता है
पर कचुराल आदमी
डंसता रहता है
अपना-पराया
सबको....