कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस विधायक ने जब बलात्कार रोक नहीं सकती तो उसका आनंद लो जैसे घृणास्पद और नीचतापूर्ण बात कही तो यह
ऐसे घृणास्पद कथनों के बाद नीचतापूर्ण राजनीति भी शुरू होती है और कांग्रेस को घेरने के लिए एक बड़ा वर्ग नहीं जुट जाता है जबकि माननीय की मुस्कुराहट पर खामोशी छा जाती है। तर्क-वितर्क में राजनीतिक दलों के प्रवक्ता दूसरे राजनीतिक दलों के नेताओं के वक्तव्य का उदाहरण देकर अपना चेहरा साफ करने लग जाते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में ऐसा ही होता है और ऐसा ही शायद होता रहेगा। मुलायम सिंह यादव के कथन, लड़कों से गलती हो जाती है से लेकर इसकी लंबी फेहरिस्त है। बेटी बचाओ का नारा बुलंद करने वाले भी अपने दामन पर लगे इस तरह के दाग को धोने के बजाय, छुपाने में ही अपनी प्राथमिकता दिखाते हैं।
दरअसल यह पितृसत्तात्मक समाज की गंदी मानसिकता ही है। बलात्कार जैसे धृणित कृत को पितृसत्तात्मक समाज ने हमेशा से ही संरक्षित और पोषित किया है। यदि ऐसा नहीं किया होता तो बलात्कार की पीड़िता ही समाज में निंदनीय नहीं होती। उसके लिए जीना दूभर नहीं होता। उसके लिए समाज आलोचना के दृष्टिकोण नहीं रखता। जबकि बलात्कार करने वाला पुरुष छाती ठोक कर समाज में जी नहीं रहा होता। उसे समाज प्रतिष्ठित नहीं कर रहा होता। उसकी आलोचना हो रही होती। परंतु बलात्कार के मामले में अन्य सभी जघन्य अपराधों से पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता विपरीत है।
यहां पीड़िता को ही कलंकिनी मान लिया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज के कई मामले समाचार संकलन के दौरान देखने को मिले हैं। दो साल में कई बलात्कार के मामले सामने आए हैं। जिसमें कुछ उद्धृत करता हूं। एक बलात्कार के मामले में पैदल अपने गांव जा रही नवविवाहिता को दोपहर के एक बजे गांव के खेत में पूर्ण तरह नग्न कर दो युवकों ने दुष्कर्म की घटना को अंजाम दिया था। इस घटना में आरोपी पकड़े गए। परंतु आज तक उन्हें सजा नहीं हुई। ऐसे कई मामले हैं। जिसमें आरोपियों को कई सालों तक सजावार नहीं ठहराया गया। हाल में ही दुष्कर्म के एक मामले में एक दलित महिला के साथ दुष्कर्म के बाद पूरा पितृसत्तात्मक समाज उसे बचाने में लग गया। प्रशासन, पुलिस और राजनीति का गठजोड़ भी सामने आया। मीडिया के दबाव में प्राथमिकी दर्ज करने की केवल औपचारिकता की गई ।
तीन तलाक और हलाला
दरअसल, पितृ सत्तात्मक समाज का यथार्थ यही है। बेटियों को दबाकर घरों में रखना ही श्रेष्ठकर, इसी सोच का परिचायक है। घरों से निकलने वाली बेटियों को तारती खूंखार आंखें हर जगह है। ऐसा एक खास धर्म, समाज, वर्ग, जाति में नहीं है। सामान्य तौर पर सभी की यही स्थिति है। कहीं कुछ कम, कहीं कुछ ज्यादा। ऐसा नहीं होता तो तीन तलाक और हलाला जैसे जघन्य कृत्य को तर्क-कुतर्क से धर्म की आड़ में जायज ठहराने वाला समाज रोड पर आंदोलित नहीं होता। ऐसा नहीं होता तो कोठे पर देह बेचने वाली कलंकिनी केबल नहीं होती, बल्कि उसके खरीदार, तथाकथित प्रतिष्ठित समाज के लोग भी कलंकित कहे जाते।
कल ही बेटियों की शादी की उम्र को 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष निर्धारित किया गया। उत्तर प्रदेश के एक सपा सांसद ने बेटियों के आवारागर्दी बढ़ने की बात कह कर इसी पितृ सत्तात्मक समाज के जयघोष किया। सरकार की सोचे है कि बेटियों को इससे अपने कैरियर को संवारने का और मौका मिलेगा। परंतु पितृ सत्तात्मक समाज की सोच है कि बेटियों को अपना कैरियर नहीं बनाना चाहिए। बेटियों को घरों में आज भी चूल्हा-चौका तक ही सीमित रहना चाहिए। यह एक भोगा हुआ सच भी है। तथाकथित प्रगतिशील समाज के निकृष्ट लोग बाहरी आवरण ओढ़ कर स्त्री की स्वतंत्रता की बात तो करते हैं परंतु जब अपने घर में इस तरह की बात होती है तो स्त्री दमन के सभी को कृतियों, साजिशों, नीचता पूर्ण काम को करने से हिचकते नहीं। इसी पितृसत्तात्मक समाज के तथाकथित प्रगतिशील वर्ग के लोग उनकी हां में हां मिलाते हुए बेटियों के दमन को स्वीकार करते हैं। समाज हमेशा से बेटियों को दोयम दर्जे का ही स्थान देता है। कहने की बात और है, करने की बात और।
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बेटी स्वतंत्र नहीं सोच सकती
बेटी स्वतंत्र आगे नहीं बढ़ सकती
बेटी खोंख नहीं सकती
बेटी बोल नहीं सकती
बेटी प्रेम नहीं मांग सकती
बेटी नापसंद नहीं कर सकती
बेटी ना नहीं कर सकती
बेटी बाहर नहीं निकल सकती
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बाबा शंखा-पानी ढार के बिरान कईला जी
इसी समाज के पितृसत्तात्मक सामाजिक सोच के विरोध की एक बानगी यहां देखने को मिला। जब भोपाल के करेली गांव की एक आईएएस बेटी तपस्या ने अपने पिता को विवाह के समय दान करने से मना कर दिया। बेटियों के विवाह में हिंदू धर्म में बेटी को दान कर पराया करने का एक अमानवीय कृत्य किया जाता है। बाबा बेटवो से बढ़कर दुलार कैला जी, बाबा शंखा-पानी ढार के बिरान कईला जी। यह गीत, बेटी विवाह का परंपरागत गीत है।और बेटी को पराया करने के चलन का परिचायक भी। आमतौर पर विवाह के बाद बेटी को पराया धन कहा जाता है। और इसी पराए धन में बेटी दहेज लोभियों के हाथों जलकर मर जाती हैं या सिसक सिसक कर जीती है। समाज उसी के साथ खड़ा होता है। बाकी यह सब चलता ही रहेगा । बदलने के लिए, मुझे बदलना होगा। हम बदलेंगे युग बदलेगा। टिप्पणी में सकारात्मक बातें कर देना भर कुछ नहीं है। बदलाव अपने स्तर से करना ही देश दुनिया और समाज के बदलाव का जय घोष होगा।
सटीक
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(19-12-21) को "खुद की ही जलधार बनो तुम" (चर्चा अंक4283)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
आपकी लिखी रचना सोमवार. 20 दिसंबर 2021 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
कर्नाटक शमशान सभा! छी:!!!!
जवाब देंहटाएंसंघातिक!
जवाब देंहटाएंप्रश्न किसी भी सत्तात्मक समाज का नहीं है विचारणीय तो यह कि समाज ऐसी घृणित, नीच सोच को समाज सुधार का प्रतिनिधि
जवाब देंहटाएंचुनकर लाता है हम किस भविष्य का निमार्ण कर रहे हैं
यह जिम्मेदारी सिर्फ़ हमारी है ऐसे लोगों को समाज में स्थान देकर हम स्वयं उनके पाप के भागीदार है। हमें मात्र शाब्दिक आलोचना की महामारी से मुक्त होने का संकल्प लेना.ही होगा वरना अपनी.दुर्दशा के जिम्मेदार हम स्वयं होंगे।
सादर।
कल आलेख पढ़ा था अरुण जी | आपके ही लेख से इस कुत्सित प्रसंग से अवगत हुई |बहुत दुःख और ग्लानी हुई पढ़कर |परिवार में पितृसत्तात्मक और समाज में पुरुषसत्तात्मक यानी दोनों जगह पुरुषों की सत्ता पर न्याय फिर भी कहीं नहीं | विद्रूप हँसी हँसते इन कथित जनसेवकों के उपर क्या कोई न्यायपालिका नहीं जो इनकी इस लज्जाहीन बेलौस हंसी पर लगाम कास सके | बेटियों के कन्यादान की रस्म कभी इस वजह से शुरू की गयी होगी कि बेटियों को तन और मन से सदैव ही कमजोर माना गया और उन्हें किसी सक्षम पुरुष की अर्धांगी बनाकर उसे सुरक्षित हाथों में सौंप उसकी सुरक्षा निश्चित कर दी |पर इसका अर्थ कदापि ये नहीं कि वह इतनी कमजोर है कि कोई भी उसकी देह रौंदकर चला जाए |दूसरों की बेटियों के देह शौषण को आनंद कहने वाले ये नराधम अपनी बेटियों के लिए ऐसी बात सोच भी नहीं सकते | संस्कारविहीन इन नेताओं को जनसेवा से तत्काल मुक्ति दी जानी चाहिए | और शोषण की शिकार महिलाओं को यथाशीघ्र न्याय की व्यवस्था होनी चाहिए | अब परंपरागत कुरीतियों को कानूनी या व्यक्तिगत सभी स्तरों पर समाप्त करने का समय आ गया है | आज सप्रमाण प्रसंगों को यदि अनदेखा करती है न्यायपालिका तो ऐसे प्रकरण नित देखे सुने जायेंगे | अपने आवारा नौनिहालों को संरक्षण देते माता-पिता भी दोषी हैं |
जवाब देंहटाएंऐसे नीच और घृणित वार्ताओं का खण्डन न कर जब हम जैसे सभी नागरिक अनसुना कर देते तो ऐसे लोगों के हौसले और भी बुलन्द हो जाते हैं फिर तो अभिव्यक्ति की आजादी और भी नीच सोच वालों का बल बन जाती है और ऐसी कुप्रथाएंरिवाज बनकर वही की वहीं चलती रह जाती हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित सार्थक एवं विचारोत्तेजक लेख।