लाला बाबू के साथ मेरा परिचय बहुत पुराना है और ख्याल है, यह केवल परिचय नहीं, आरंभ से ही आत्मीयता और बन्धुत्व रहा है।
लाला बाबू के साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 1933 ई० में हुई थी जब बरबीघा के प्रस्तावित एच० ई० स्कूल का प्रधानाध्यापक बनकर काम कर रहा था और जब वे जेल से छूटकर आये थे। जेल में उन्होंने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली थी और चेहरे की उस रोशनी से दीप्त वे घर पहुँचे थे। उस समयं की उनकी छवि के बारे में क्या कहूँ ? बहके हुए कवि से लेकर भगवान पैगम्बर तक उन्हें कुछ भी समझा जा सकता था। मुझे उनका वह रूप खूब पसन्द आया था। पीछे जब उन्होंने चेहरे को उस रोशनी को विदा कर दिया, तब एक खास चीज उनके चेहरे से सचमुच विदा हो गयी
बरबीघा में काम करते समय मैं लाला बाबू के गहरे सम्पर्क में आ गया और ज्यों-ज्यों उनके समीप पहुंचता गया, उन पर मेरी सहज श्रद्धा में वृद्धि होती गयी। देशभक्ति का बाण उनकी हड्डी तक विंधा हुआ था और क्रान्तिकारी भावनाओं का सरूर उन पर गहराई से छा गया था। अपने परिवार के प्रति उनके भीतर मोह मुझे कभी भी दिखाई नहीं पड़ा। परिवार का सारा बोझ उनके छोटे भाई पर था, लाला बाबू देश के लिए फकीरी धारण किए हुए थे ।
स्त्री शिक्षा के लिए उनके भीतर बहुत बड़ा उत्साह था। किन्तु उनका गाँव, बिहार के प्रायः सभी गाँवों की तरह, मध्यकालीन संस्कारों में आकण्ठ डूबा हुआ था । तेऊस जमीन्दारों का गाँव था। लाला बाबू खुद जमींदार थे। लेकिन, जमींदारी संस्कारों को छोड़कर लाला बाबू चमक उठे थे, जैसे साँप केंचुल छोड़कर जगमगाने लगता है। लाला बाबू चाहते थे कि गाँव की बेटियाँ शिक्षा प्राप्त कर नयी दृष्टि प्राप्त करें। लेकिन जमींदारी संस्कृति लड़कियों को अन्धकार में रखना चाहती थी। अतएव बाज मामलों में लाला बाबू अपने गाँव में अजनबी की तरह जी रहे थे। मुझे याद है, अपने गाँव की एक सभा में उन्होंने भाषण देते हुए कहा था, हाजिरीन ! मैं चाहता हूँ कि मेरी छाती फट जाय और आप मेरे दर्द को देख लें ।
छोटे जमींदार बड़े ही नकली जीवन के आदी थे। बस पकड़ने को अगर उन्हें बरबीघा आना पड़ता तो बरबीघा तक वे कहारों के कंधे पर आते थे। मगर बस अगर शहर से बाहर पकड़ना होता तो पैदल ही सड़क तक पहुँच जाते थे। मगर, लाला बाबू का जीवन नकली नहीं था। उन्होंने अपने को उन लोगों से एकाकार कर लिया था, जिनके बीच उन्हें काम करना था। और जनता उन्हें बहुत प्यार करती थी। रोब-दाब की पेंच लाला बाबू में न आज है, न सन् 1933 में थी। फिर भी, जब मैं बरबीघा में था, लाला बाबू उस इलाके के बेताज बादशाह थे।
तब से लाला बाबू के जीवन को मैं दूर और समीप से बराबर देखता रहा हूँ और बरावर मेरा यही भाव रहा है कि लाला बाबू में स्पृहा नहीं है, स्वार्थ नहीं है, सेवा के पुरस्कार की कामना नहीं है। बिहार केसरी उनके परम आराध्य थे किन्तु उन्होंने जब लाला बाबू को अकारण कष्ट पहुँचाया, तब भी लाला बाबू का आनन मलिन नहीं हुआ, न उनके भीतर कोई ईष उत्पन्न हुई।
कांग्रेस के जो नेता और कार्यकर्त्ता आज बिहार में काम कर रहे हैं, उनके बीच लाला बाबू का मैं अरयंत श्रेष्ठ कोटि में गिनता हूँ।
आदमी की सफलता पदों की भाषा में नहीं आंकी जानी चाहिए। पद सिधाई से हासिल नहीं होता, न सिधाई से चलनेवाला आदमी पदों पर ठहर पाता है। दुनिया को रोशनी उन लोगों से नहीं मिलती, जो दुनियादारी की दृष्टि से सफल समझे जाते हैं। सफलता चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो, वह सीमित चीज है। रोशनी की धार बड़ी असफलताओं से फूटती है। राम, कृष्ण, ईसा और गांधी असफल होकर मरे, इसीलिए वे संसार को आज तक प्रकाश दे रहे हैं। इसी प्रकार, विनोवा, साने गुरुजी, जयप्रकाश और कृपलानी असफलता के उदाहरण हैं। इसीलिए उनके साथ रोशनी जुड़ी हुई हैं।
सफलता पायी अथवा नहीं,
उन्हें क्या ज्ञात ?
दे चुके प्राण ।
विश्व को चाहिए उच्च विचार ?
नहीं, केवल अपना बलिदान ।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर
नमन
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंनमन
जवाब देंहटाएंलाला बाबू का सुंदर जीवन परिचय देता उत्कृष्ट आलेख । आभार आपका ।
जवाब देंहटाएंABHAR
हटाएं🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंbahut bahut abhar apka
जवाब देंहटाएं"आदमी की सफलता पदों की भाषा में नहीं आंकी जानी चाहिए।" - 'लाला' जी के लिए कही गयी ये 'दिनकर' जी की विचारधारा आज अपने समाज से लगभग "मिस्टर इण्डिया" बन कर छूमंतर बन चुका है .. शायद ...
जवाब देंहटाएंआदमी की पहचान का मापदण्ड ही आज पद और पैसा है, जैसे आडंबरयुक्त शादियों में जिस दूल्हे का दहेज़-भुगतान अधिकतम, आज है वही दूल्हा समाज में सर्वोत्तम .. शायद ...
बहुत ही सुन्दर आलेख पढ़कर आनंद आया
जवाब देंहटाएं