फिल्म पठान के बहाने बेशर्मों का रंग
अरुण साथी
पठान सिनेमा का विरोध भगवा रंग के अश्लील ब्रा पेंटी पहन कर नाचने के लिए और बेशर्म रंग गाने के बोल के लिए हो रहा है, यह सच नहीं है। यह सच होता तो भाजपा सांसद मनोज तिवारी और रवि किशन के भगवा वस्त्र पहने अभिनेत्रियों के साथ उत्तेजक और अश्लील नृत्य का वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है।
एक सच यह भी है कि बेशर्म रंग गाने के विरोध के बहाने ही कई तथाकथित लोगों के अंदर की अश्लीलता सामने आई और सोशल मीडिया पर बेशर्म रंग गाने के फोटो और वीडियो उन्होंने खूब शेयर किया।
एक सच इसमें यह भी है कि यदि धार्मिक आधार पर विरोध हुआ होता तो राम तेरी गंगा मैली गाने में मंदाकिनी की अश्लीलता (कट्टरपंथियों के अनुसार) विरोध का कारण बनती, परंतु उस समय गानों के बोल से गंगा मैली नहीं हुई।
साफ बात, सच यह है कि वे लोग (कट्टरपंथी) शाहरुख खान (मुसलमान)का विरोध कर रहे।
कारण वही गिनाया जा रहा। पाकिस्तान परस्ती। राष्ट्रभक्ति पर सवाल। यही ढाल है। कट्टरपंथी मानसिकता को तर्कपूर्ण ठहराने का।
ऐसी बात नहीं है कि भाजपा की सरकार के संरक्षण की वजह से ही यह हो रहा है। कांग्रेस, समाजवादी, वामपंथी, ममता बनर्जी इत्यादि भी यही करती है।
कुछ ही लोग हैं जो इन चीजों की सूक्ष्मता को समझते हैं। वहीं कई लोग अपने-अपने गुणा–भाग के अनुसार विरोध करते हैं।
हालांकि सोशल मीडिया के दौर में एजेंडा के हिसाब से विरोध और समर्थन का पोल भी खुल कर सामने आ ही जाता है।
ऐसा नहीं होता तो राजस्थान में कांग्रेसी सरकार के समय नूपुर शर्मा के द्वारा एक कथित ऐतिहासिक तथ्य को टीवी चैनल पर रखने भर से किसी की हत्या नहीं कर दी जाती।
ऐसा नहीं होता तो उत्तर प्रदेश में कमलेश तिवारी पर कथित तौर पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के द्वारा ईशनिंदा के आरोप में देश को नहीं जलाया जाता और तिवारी की हत्या नहीं होती।
राजनीतिक दल, धार्मिक संगठन, तथाकथित बौद्धिक वर्ग और सरकारें अपने-अपने हिसाब से दंगाई और गुंडों का बचाव तथा विरोध करती रही हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगा और गुजरात दंगा जैसे कई उदाहरण है।
उपरोक्त बातों के लिए केवल राजनीतिक दल और नेताओं को जिम्मेदार ठहराने का चलन रहा है। इस वजह से हम अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलते हैं।
यह अधूरा सच है। पूरा सच पहले मुर्गी की पहले अंडा जैसा उलझा हुआ है।
नौवा़खली में महात्मा गांधी भी इन चीजों से लड़े होंगे।
अपनी समझ स्पष्ट है। धर्म के इस अफीमी उन्माद से हमारी एक पूरी नई पीढ़ी कट्टरपंथी और उन्मादी हो गई है। जो पीढ़ी रोटी, रोजगार, महंगाई की बात करती वह धर्म के उन्माद की बात करती है।
जो पीढ़ी अनुसंधान, विज्ञान, आईटी सेक्टर, रॉकेट, चांद, मंगल ग्रह की बात करती वह कट्टरपंथ की भाषा बोल रही है।
जो पीढ़ी खेती किसानी की गुणवत्ता सुधार, अधिक उपज, गरीबों की सेवा और प्रगतिशीलता कि बात करती, वह हजारों साल पुरानापंथी परंपरा, सभ्यता, संस्कृति, संस्कार की खोखली बातें करने लगी है।
और बस, उसी तर्क में पहले मुर्गी की पहले अंडा के विवाद में वे (कट्टरपंथी) पहले तवा गर्म करते हैं. फिर मसाला बनाते हैं। फिर अंडे को फोड़कर आमलेट बना कर उसे चट कर जाते हैं।
बात स्पष्ट है। हमारे अंदर ही घृणा और हिंसा है । कभी राष्ट्र के नाम पर। कभी धर्म के नाम पर। कभी जाति के नाम पर । कभी गांव के नाम पर । कभी गोतिया के नाम पर। हम इसका प्रकटीकरण करते रहते हैं।
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