30 जून 2023

पशु बलि का विरोध और सोशल मीडिया का छद्मवादी चरित्र

पशु बलि का विरोध और सोशल मीडिया का छद्मवादी चरित्र


अभी सोशल मीडिया पर दो दिन पहले धर्म विशेष के एक आयोजन में पशु वध को लेकर विरोध का पोस्ट सुर्खियों में रहा हैस टैग भी ट्रेंड किया और पशु वध के आलोचक अचानक से बढ़ गए । वही छपरा में पशु के हड्डी को एक ट्रक से ले जा रहे चालक की पीट पीट कर भीड़ के द्वारा हत्या भी कर दी गई। यह सब काफी दुखद और निंदनीय नहीं रहा। 
परंतु सोशल मीडिया का यह विरोधाभासी चरित्र कोई नई बात नहीं है । सोशल मीडिया के इस चरित्र को वास्तविक जीवन से अलग करके ही देखा जाता है। ज्यादातर लोग जो सोशल मीडिया पर बहुत दिनों से सक्रिय हैं उन्हें यह अनुभव हुआ है कि सोशल मीडिया की बातें जमीनी धरातल से इतर होती है।
 खासकर पशु वध को लेकर कई ऐसे लोगों के द्वारा भी पशु प्रेम के रूप में अपनी पोस्ट दिए गए जो मांसाहारी हैं। यह सब एक धर्म का दूसरे धर्म से बढ़ रहे घृणा का ही परिचायक है। अथवा कहें कि घृणा को बढ़ाने की रणनीति का एक हिस्सा ही है, जिसके शिकार हम लोग हो जाते हैं ।

वास्तविकता के धरातल पर जब हम आते हैं तो पशु बलि की परंपरा दूसरे धर्म में भी सर्वाधिक है।


पशु बलि अभी 2 दिन बाद आने वाले पूर्णिमा को बड़े पैमाने पर होगी और यह सब धर्म के नाम पर ही होता है। बिहार में तो इस परंपरा को नजदीक से देख रहा हूं। देश के अन्य राज्यों का अनुभव नहीं है । मतलब यह की आषाढ़ महीने के पूर्णिमा पर गांव गांव सामूहिक रूप से बकरे की बलि देने की परंपरा है और इस धार्मिक आयोजन में पूरे गांव के सहभागिता रहती है।

हो सकता है कि दो दिन पहले एक धर्म विशेष के धार्मिक आयोजन पर बकरे की बलि देने की परंपरा का विरोध करने और पशु प्रेम दिखाने वाले लोग इस पशु बलि की तस्वीर पोस्ट कर अपने धर्म के व्यवस्था को आस्था बता दें।


बस इतनी सी बात से इस बात का विरोधाभास स्पष्ट हो जाता है कि पशु बलि और पशु प्रेम सोशल मीडिया पर दिखने वाले लोग वास्तविक धरातल पर अलग होते हैं। 


हालांकि पशु बलि की परंपरा धीरे-धीरे खत्म भी हो रही है। अषाढ़ी पूर्णिमा के दिन पशु बलि के परंपरा मेरे गांव में अब समाप्त हो गई है। पशु बलि की जगह भूआ (एक प्रकार के सब्जी) की बलि देकर पूजा-पाठ करने की परंपरा बढ़ रही है । प्रतीकात्मक रूप से इस बलि के माध्यम से पूजा भी हो जाती है और किसी प्राणी की हत्या का पाप भी नहीं लगता।

मेरे गांव के आसपास के कई गांव में धीरे-धीरे यह परंपरा बढ़ी है। आशा करता हूं कि समाज के अन्य जागरूक लोग भी धीरे-धीरे इस परंपरा का पालन करेंगे। एक खास बात यह है कि दूसरे धर्म के पशु हत्या का विरोध करने वाले कभी अपने गिरेबान में भी झांक लीजिए। बड़ी दुखद है कि गाय का जब पुरुष बछड़ा होता है तो उसे मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। कसाई के यहां मुफ्त में दे दिया जाता है । ताकि इसकी हत्या हो सके। बूढ़ी गाय के साथ भी हम लोग यही करते हैं। कसाई को बेच देते हैं । फिर केवल दूसरे को आरोपित कैसे कर सकते हैं..? पौराणिक समय में गौशाला बूढ़ी गाय और पुरुष बछड़े के जीवन बचाने, उसे संरक्षित रखने की संस्था थी परंतु आज के महंगाई के युग में यह सब यहां नहीं होता।  दूध देने वाली गाय का पालन व्यवसाय दृष्टिकोण से ही किया जाता है। 

और हां मैं शाकाहारी हूं और इस नाते मैं किसी भी धर्म में, धर्म के नाम पर पशु बलि का प्रबल विरोध करता हूं।

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