हंस, राजेन्द्र यादव और नरेन्द्र मोदी
उनके लिए (वामपंथी) यह वर्ग भेद
हिंदूवादी गोविंदाचार्य के बहाने सारे कम्युनिज्म विरोधी शाखा मृग उछल कूद करने लगे।
ब्लॉक और फेसबुक की दुनिया इतनी निरंकुश और बेलगाम हो गई है कि वहां कोई भी कुछ भी लिख सकता है। हंस के वार्षिक आयोजन के बाद इसके बारे में ऐसी दूर की कौड़ियां लाई गई कि मैं चकित भी हूं और प्रसन्न भी । इन्हें नियंत्रित करने का क्या कोई उपाय हो सकता है?
उक्त बातें सितंबर 2013 के हंस के संपादकीय में साहित्य जगत के मूर्धन्य हस्ताक्षर और हंस के संपादक राजेंद्र यादव जी ने लिखी थी। संयोग से पुराने अंक पढ़ने की इच्छा हुई तो यही समाने था।
प्रसंग प्रेमचंद जयंती में हंस के पुनर्प्रकाशन के 28वें वर्ष के सालाना संगोष्ठी अभिव्यक्ति और प्रतिबंध विषय पर आयोजित समारोह का है।
उन्होंने अपना दर्द लिखा है । प्रखर वामपंथी वरवर राव और अरुंधति राय का समझ में गोविंदाचार्य की वजह से मुख्य समय में नहीं आना रहा।
पप्पू यादव के मंचासीन होने पर उनकी आलोचना का दर्द भी इसमें छलका और प्रसंग में आडवाणी को हिटलर बताने का प्रसंग भी उठा है। देश के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पटल पर आज भी कुछ इसी तरह का मुद्दा है। लोकतंत्र और संविधान को खतरा। एक दशक बाद भी मोदी और भाजपा विरोध का अंतत: यही मुद्दा रहता है। मूल मुद्दे गौण कर दिए जाते है।
समय-समय की बात रहती है। .
जवाब देंहटाएंआप कुछ भी लिखिए हम कुछ लिख ही देते हैं उसपर क्यों मुददा कुछ भी हो क्या फर्क पड़ना है ?
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