शिव विवाह के उपरांत माउर गांव में प्रसाद वितरण एवं भंडारे का आयोजन किया गया था। गुरुवार की दोपहर, मुझे भी मंदिर के पास बगीचे में पंगत पर बैठकर प्रसाद ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
प्रसाद ग्रहण करने के दौरान मेरी नजर एक दृश्य पर टिक गई—एक बुजुर्ग व्यक्ति के चारों ओर दो दर्जन से अधिक बच्चे लिपटे हुए हंसी-ठिठोली कर रहे थे। वे सभी उन्हें "बाबा" या "दादा" कहकर बुला रहे थे। यह आत्मीयता और अपनत्व का दृश्य था, जिसने मेरे मन में जिज्ञासा जगा दी। खैर, फिर सभी बच्चों को वहाँ बैठाकर कर प्रसाद दिया खिलाया गया।
जब मैंने बुजुर्ग के बारे में पूछताछ की, तो जो जानकारी सामने आई, वह अचंभित करने वाली थी। वे राजेश्वर सिंह थे, जो जाति से भूमिहार थे, और उनके साथ खेलते ये सभी बच्चे वे थे, जिन्हें समाज में अक्सर "शूद्र," "दलित," या "वंचित" वर्ग का कहा जाता है। इनमें कोई चमार था, कोई पासवान, कोई कहार—यानी वे सभी, जिन्हें सामाजिक श्रेणीकरण की संकीर्ण दृष्टि से अलग-थलग रखा जाता है।
यह देखकर मन में एक सवाल उठा—आज के 'जय भीम' के दौर में ऐसी सकारात्मक तस्वीरों को क्यों नजरअंदाज किया जाता है? क्यों समाज की अच्छाइयों को उभारने के बजाय बुराइयों को ही बार-बार सामने लाया जाता है? जातिवाद और सामाजिक भेदभाव की कड़वी सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह भी सच है कि समाज में प्रेम, सद्भाव और समरसता की मिसालें भी हमेशा से रही हैं।
समाज सुधारकों ने वर्षों की मेहनत से सामाजिक दूरियों को मिटाने का प्रयास किया, और इसका असर भी स्पष्ट दिखता है। लेकिन आज की राजनीति और मीडिया में बुराइयों का प्रचार अधिक होता है, जबकि इस तरह के सकारात्मक बदलावों को दबा दिया जाता है।
यह घटना हमें बताती है कि समाज में सिर्फ भेदभाव ही नहीं, बल्कि अपनापन भी मौजूद है। जरूरत इस बात की है कि हम अच्छाइयों को भी उतनी ही प्रमुखता दें, जितनी बुराइयों को देते हैं। समाज को जोड़ने वाली कहानियों को साझा करें, ताकि प्रेम और भाईचारे की भावना और मजबूत हो।
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