प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार: बिहार की राजनीति के दो दृश्य
प्रशांत किशोर को लेकर पहले भी कहा था—अखाड़े के बाहर से पहलवान को लड़वाना और अखाड़े में उतरकर खुद पहलवानी करना, ये दो अलग-अलग बातें हैं। अखाड़ा में पहलवान की जीत होती है।
गांधी मैदान की रैली में प्रशांत किशोर दूसरी बार असफल रहे। उनका चार घंटे देर से आना और झुंझलाकर आठ मिनट में चले जाना, इस असफलता का ही संकेत था।
असफल इस लिए कि जितनी तैयारी थी, उतने लोग नहीं आये। और तैयारी इतनी हुई कैसे..? हवा हवाई नेताओं ने भरोसा दिया होगा।
उधर, कन्हैया कुमार ने दम दिखाया। मुख्यमंत्री आवास घेराव का आंदोलन लगभग सफल रहा। "लगभग" इसलिए कि कांग्रेस की अंदरूनी कमजोरी अब भी जस की तस है—एक ओर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपनी राजनीति में समाहित कर लिया है, दूसरी ओर कांग्रेस के नेता अब भी सत्ता सुख के आदि हैं, संघर्ष और सड़कों पर उतरना उनकी राजनीति का हिस्सा अब नहीं रहा।
अब फिर प्रशांत किशोर पर लौटते हैं। गांधी मैदान की रैली की असफलता दरअसल प्रशांत किशोर की असफलता है। सबसे बड़ी बात यह कि वे एक 'कंपनी मॉडल' के सहारे बिहार की राजनीति बदलना चाहते हैं, जबकि बिहार की राजनीति जमीनी हकीकत से चलती है, कॉर्पोरेट स्ट्रैटजी से नहीं। वे अपनी कंपनी के कर्मचारियों के भरोसे बदलाव की बात कर रहे हैं, जो शायद ही संभव है।
प्रशांत किशोर को एक 'मास्टर स्ट्रैटजिस्ट' कहा जाता है, पर यह समझ से परे है कि रणनीति का यह कैसा मॉडल है, जहां उनकी कंपनी के लोग मुझे खुद पटना कवरेज के लिए बुलाने लगे। मैंने उन्हें फटकार लगाई—कंपनी को ज़मीनी सच्चाई की ज़रा भी समझ नहीं!
रैली की नाकामी एक और बात साफ करती है—प्रशांत द्वारा आयातित, अतिमहत्वाकांक्षी नेताओं की पोल खुल गई है। एक विधानसभा सीट पर दो दर्जन उम्मीदवार, सभी धनाढ्य, सभी टिकट के दावेदार। सभी एक दूसरे को गिरा कर ही टिकट पाने की दौड़ में है।
और टिकट न मिलने पर वही उम्मीदवार निर्दलीय बनकर पार्टी को ही हराने पर आमादा!
यही हाल है। प्रशांत किशोर सोशल मीडिया मैनेजमेंट में माहिर माने जाते हैं, लेकिन जब खुद पर बात आई, तो वह भी फेल हो गया। रैली से पहले ही सुबह से कई दिग्गज मीडिया के खिलाडी इसे फ्लॉप बता रहे थे—कारण सबको पता है। मैनेजमेंट..! ऐसे में सवाल उठता है: क्या वाकई सफल हो पाएंगे प्रशांत?
अब बात कन्हैया कुमार की। वह वाम विचारधारा से ऊर्जा पाकर उभरे बेगूसराय के ऐंठल छोरा हैं। कांग्रेस ने उन्हें अब एक 'प्रयोग' के तौर पर उतारा है। मुख्यमंत्री आवास घेराव में जो भी हुआ, वह कांग्रेस के लिहाज से उल्लेखनीय है। कन्हैया की मौजूदगी से कांग्रेस को लालू यादव की परछाईं से बाहर निकालने की एक उम्मीद दिख रही है। यह उम्मीद अब गांव की चौपालों में भी चर्चा का विषय बन रही है।
लेकिन इसी बीच कांग्रेस के 'मठाधीश' खुले तौर पर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा मानने की बात कह रहे हैं, जबकि कांग्रेस का आधिकारिक रुख यह है कि इसका फैसला चुनाव बाद किया जाएगा। यह सब दरअसल सीटों के मोलभाव का खेल है, जिसे सब समझते हैं।
बहरहाल, बिहार में कन्हैया कुमार की जोरदार लॉन्चिंग हुई है। अगर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सीटों को लेकर सौदेबाजी की मजबूत स्थिति में पहुंचती है, तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। और अगर कन्हैया को पांच साल तक बिहार में रणनीति के तहत लगातार काम करने दिया गया, तो कांग्रेस की मृतप्राय स्थिति में नई जान आ सकती है और बिहार को लालू यादव के भूत के भय से मुक्ति मिलेगी। तेजस्वी यादव का नई पीढी में आज नहीं तो कल, मेरे अलावा कौन का अहंकार टूटेगा। क्योंकि उप मुख्यमंत्री रहते अपने मंत्री से भी नहीं मिल पाने वाले की बात जगजाहिर है।
लेकिन अनुभव कहता है कि पिछले दो-तीन दशकों में कांग्रेस ने रणनीति के नाम पर रामजतन सिन्हा, अनिल सिंह, अशोक चौधरी जैसे कई नेताओं को कुछ समय की मोहलत दी, वे कोशिश किये और फिर अचानक खुद ही उन्हें किनारे कर, आत्मघाती गोल कर लिया। यही नहीं दोहराया जाए—बस यही उम्मीद हो...
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