रामलीला मैदान में
देख कर रावण लीला
मुझे ऐसा क्यो लगने लगा
जैसे
मैंने ही अपने हाथ में लेकर डंडा
चला दिया हो शहीद की उस बीबी पर
जिसने अपने पति के प्राण देश पर न्योछावर कर भी
रूकना नहीं सीखा
और
आ गई रामलीला मैदान
प्रतिकार करने ?
और मैं घर में टीवी से चिपका
दिन भर
सबकुछ
देखता रहा
बस...
मुझे ऐसा क्यों लगता है कि जिस हाथ ने उसके कपड़े फाड़े
वह मेरे ही हाथ थे
जिससे
प्रजातंत्र का राजा
आज अजानबाहु बन गया है?
पर
वह देह
जिसे ढकने के लिए
विधवा
दूसरों से मांग रही थी एक कमीज
वह तो
भारत मां की देह थी?
मुझे ऐसा क्यों लगता है
जैसे
बाबा की आवाज मुझे शर्मींदा कर रही है
और जब अन्ना निराश होते है
तो आत्मग्लानी से मेरा मन भर जाता है..
मुझे ऐसा क्यों लगता है
जैसे
लहू मेरे ही हाथ में लगी है
और मैं
रगड़ रगड़
साफ कर रहा हूं
पर
यह तो धुलता ही नहीं
पर यह क्या
कैसा है इस लहू कर रंग
.
.
तिरंगा....
.
जवाब देंहटाएंअरुण जी ,
इस रचना के माध्यम से आपने ४ जून की रात में हुई कुरूपता को बखूबी दर्शाया है। कल हम लोग भी टीवी से चिपके बैठे थे। घर में अत्यंत दुखद माहौल है। इस शर्मनाक कृत्य की जितनी भी निंदा की जाए कम होगी।
शायद सरकार अपनी गलती महसूस करे और क्षमा मांगे।
.
आपको ऐसा इसलिए लगता है कि आपमें देश के प्रति प्यार और सम्मान बाक़ी है। राष्ट्रीयता बाक़ी ही नहीं कूट-कूट कर भरी है।
जवाब देंहटाएं"घर में टीवी से चिपका
जवाब देंहटाएंदिन भर
सबकुछ
देखता रहा
बस..."
और घर से निकलते तो कपिलासन (political yoga)का शिकार होते अथवा किसी के अफसोसजनक किन्तु ईमानदारी भरे (जो हमें तो दिखाई नहीं देता ) वक्तव्य का.
इस निंदनीय कृत्य के बाद देश के हर संवेदनशील नागरिक को ऐसा ही लग रहा है.....
जवाब देंहटाएंअफसोसजनक
जवाब देंहटाएंयह घटना जलियावाले बाग की यद् दिलाती हे |अब जनरल डायर कोन हे यह तो सरकार ही जाने|
जवाब देंहटाएंHTTP://VIJAYPALKURDIYA.BLOSPOT.COM
मानवता के नाते ऐसे विचार आना स्वाभाविक हे
जवाब देंहटाएं