अरूण साथी।
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस मार्केंडय काटजू ने जब बिहार मंे मीडिया आजाद नहीं कहा तो पूरे देश में नीतीश कुमार को रॉबीन हुड की तरह प्रस्तुत करने वाले मीडिया हाउस, चारणी करने वाले पत्रकारों, संपादको, बुद्धिजीवियों और बिश्लेषकों को झटका लगा। लगा जैसे किसी ने उन्हें नंगा कर आइने के सामने ला कर खड़ा कर दिया। पटना विश्वविद्यालय के प्राचार्य ने तो बाजाप्त समारोह में ही इसका विरोध किया। पर जस्टिस काटजू तब भी चुप नहीं बैठे और कहा कि इससे बेहतर स्थिति पहले की सरकार में थी, कम से कम मीडिया आजाद थी। सच क्या है। जो काटजू साहब ने कही है वह या कि कुछ और? जब इसके धरातलिय सच्चाई जाननी चाही तो वह आज के अखबर के रूप में सामने आ गई। एक मात्र राष्ट्रीय सहारा को छोड़ कर किसी दूसरे अखबार ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित नहीं करके अपनी गुलामी की बेलज घोषणा कर दी। प्रभात खबर ने दूसरे पन्ने पर इसे जगह दी है। मुख्य अखबार कहे जाने वाले दैनिक जागरण एवं दैनिक हिन्दुस्तान ने इस खबर को इस रूप में प्रकाशित किया कि पाठक दिग्भ्रमित हो जाए। अखबारों ने प्राचार्य लालकेश्वर सिंह के विरोध को प्रमुखता से प्रकाशित किया जबकि महोदय जदयू विधायक उषा सिंह के पति होकर सरकार से उपकृत है और इसकी जानकारी मीडिया के महोदयों को भी है।
बिहार का यही सच है। देहात की एक कहावत है, बाहर से फिट फाट, अंदर से मोकामा घाट। मतलब बाहर से सबकुछ बढ़िया है और अंदर से जर्जर। अखबारों में प्रति दिन छपने वाली खबरें सरकार का गुणगान करते हुए होती है जैसे कि अखबार न होकर सरकार का मुख्यपत्र हो। बिहार में कस्बाई पत्रकारों को भी पता है कि सरकार के विरोध की खबर नहीं छपनी है और इसी वजह से विपक्ष भी मन मार कर बैठ गया है।
बिहार में नौकरशाही बेलगाम है। पक्ष-विपक्ष और मीडिया नौकरशाहों पर उंगली उठाने की हिमाकत नहीं करते। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों की जगह कहीं नहीं है। सत्ता के मंत्रियों को घुड़की दे कर चुप करा दिया जाता है और उनपर नकेल के लिए नकचढ़े सचिव को रखा गया है।
भ्रष्टाचार चरम पर है। प्रखण्ड विकास पदाधिकारी और अंचलाधिकारी जैसे गरिमामई पद पर कर्मचारी स्तरिय भ्रष्ट्र और पांच पांच बसुलने वालों को अतिपिछड़ा राजनीति के तहत प्रमोट कर बैठा कर उपकृत कर दिया गया है और खमियाजा गरीबों को भुगतनी पड़ रही है। इंदिरा आवास से लेकर जाति आवास में खुले आम धूस लिया जाता है। सेवा का अधिकार का ढीढोरा पीट दिया गया है पर सच इतर है। जिस प्रमाण पत्र को बनाने के लिए पहले 10 रू. खर्चने पड़ते थे वह अब 500 मे बिकता है। 21 दिन में प्रमाण पत्र बनाने का प्रावधान कर दिया गया है पर बनाया नहीं जाता और एक दिन मे ंबनाने का चार्ज 500, दो दिन का 300 तथा पांच दिन का चार्ज 200 निर्धारित कर दिया गया। न तो इसकी खबर छपती है और न ही कोई फर्क ही पड़ता है।
बात शिक्षा का करें तो साईकिल राशि, पोशाक राशि का वितरण ही विद्यालयों को काम रह गया है। पढ़ाई प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कॉलेज तक कहीं नहीं होती। हाजरी बनाने के लिए स्कूल को खोला जाता है फिर बंद कर दिया जाता है। मैट्रीक की परीक्षा अभी चल रही है और आलम यह कि जम कर नकल की छूट है।
गांव में गली गली बिकते शराब आने वाले दिनों में एक नए बिहार की नींब रख रही है। सड़क बन रही है पर उसपर शराब कें नशे में धुत्त चालक दर्जनों को रौंद रहा है। गांव की गलियों में फागुन की लोकप्रिय होली की जगह शराबियों का हुड़दंग दिखने को मिलता है।
सबसे बड़ा दाबा अपराध को लेकर किया जाता है पर इसका सच कुछ ईतर है और बिहार में सब काम बुद्धि से किया जा रहा है। मशलन, हत्या के केस को ओडी का केस बना कर दर्ज कर लिया जाता है। अपहरण, डकैती, बलात्कार तक का केस दर्ज करने के लिए नाको चने चबाना पड़ता है। केस ही दर्ज नहीं होगा आकड़ों का अपराध कमेगा ही।
मजदूरों का पलायान कहीं नहीं रूका है। पलायन करने वाले मजदूरों का गांव विरान नजर आएगा। दलितों के वस्तियों में इसे देखा जा सकता है। नरेगा मे लूट है। मजदूर बाहर और उनके नाम पर पैसा अंदर। विकास योजनाओ में 40 प्रतिशत कमिशन। कहां जा रहा है बिहार।
पर मीडिया में यह सब नहीं दिखता? करोड़ों के विज्ञापन का खेला है। मालिकों की तिजौरियां भरनी चाहिए। बस।
पर ऐसी बात भी नहीं की बिहार में क्रान्तिकारी पत्रकारिता मर गई है बहुत लोग है जो बिहार में मीडिया पर लगे सेंसरशीप की आग में जलते हुए तिलमिला रहे है। पर वे एक अदद नौकर होकर वेवश हो इंतजार कर रहें है। काटजू ने पटना विश्वविद्यालय के आयोजित समारोह सभा में पत्रकारिता का चीरहरण किया और कहीं कोई कृष्ण नजर नहीं आता।
दिखेगा कहा से विज्ञापन के लिये ललायित रहने वाले अखबार मालिक अब खदानो, ngo के लिये चंदो, उद्योगो के लिये सहूलियतो और ठेको के लिये लालायित कम आधारित हो चुके है। हमारे मीडिया से अच्छा चीन का मीडिया है। कम से कम जनता को पता तो है कि सच नही छाप रहा।
जवाब देंहटाएंकाफी हद तक आपकी बात से सहमत हूँ , मगर कहीं आपको भी मेरी ही तरह ये महसूस नहीं होता कि ये काटजू साहब ख़बरों में बने रहने के लिए कुछ ज्यादा ही प्रयासरत है ?
जवाब देंहटाएंआपने काटजू साहब के बयान के परिप्रेक्ष्य में बहुत सारा सच सामने रख दिया । सच में ही अभी बहुत कुछ किया जाना बांकी है । बांकी मीडिया की हालत खुद मीडिया ही दयनीय बनाने पर तुली हुई है
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