24 जून 2012

संपादक हरीश पाठक के जाने की खुशी


राष्ट्रीय सहारा के स्थानीय संपादक हरीश पाठक से बास्ता बस एक जिला कार्यालय प्रभारी और संपादक का था। स्वभावगत चापलूसी नहीं करने और काम से काम रखने की आदत आज के दौर में भारी पड़ती है और मेरे साथ भी ऐसा ही था। दर्जनों बैठकों में उनके साथ बैठना हुआ और पत्रकारिता के अधोपतन देखने को मिला। साल डेढ़ साल पहले बिहारशरीफ में हुए बैठक में सिर्फ और सिर्फ विज्ञापन की चर्चा होना और संपादक का खामोश, तमाशाबीन बना रखना मुझे खटका और मैंने उसे अर्न्तजाल पर व्यक्त क्या किया महोदय को बुरा लगा था और फिर अगले बैठक में ही हरीश पाठक ने तल्ख और व्यंगात्मक लहजे में कहा कि हां आपके सुविचार मुझे न्यूज पोर्टलों पर पढ़ने को मिल जाते है पर मैंने कोई नोटिस नहीं लिया। सबसे निचले स्तर पर पत्रकारिता करते हुए किसी से डरने की बात नहीं होती और यह साहस विज्ञापन की वजह से होता है और फिर कोई नौकरी तो होती नहीं कि निकाल दोगे। मामूली सा मानदेय की परवाह क्या? विज्ञापन के वजह से यह कि जब विज्ञापन आप अच्छा खासा देते है तो आप एक कमाउ पूत होते है और मैं विज्ञापन का टारगेट हमेशा पूरा करने वालों में से था। सो परवाह नहीं किया और मुझपर गाज भी नहीं गिरी। अभी एक मार्च को हुए बैठक में जब युनिट हेड मृदुल बाली नहीं आए तो सिर्फ संपादक का ही आना हुआ और बैठक में एक बार फिर मुझसे उनकी तल्खी सामने आई और मिटिंग में ही लगभग सबपर बरस पड़े। मुझपर विशेष, अरूण साथी जी के विचार नेट पर बड़ा ही उत्तेजक होते है पर कभी किसी समाचार को लेकर मुझसे संपर्क नहीं किया जाता। कोई संपर्क नहीं करता। मोबाइल पर भी नहीं। सही भी था। आज तक कभी संपादक से समाचार को लेकर संपर्क नहीं किया। कभी उनसे मिलता भी नहीं। यह विज्ञापन की वजह से संपादक के घटे कद की महिमा थी और हताश संपादक की व्यथा। यह भी की विज्ञापन ने एक संपादक का कद इतना छोटा कर दिया कि संवाददाता का उनसे कम सरोकार रहता है और विज्ञापन प्रबंध से  अधिक।

फिर मुझे लगा कि एक ही संस्था मंे काम करते हुए इस तरह की तल्खी ठीक नहीं सो उनसे जाकर केबीन में मिला। उन्हांेने मुझे बैठने के लिए नहीं कहा! तब भी मुझे लगा कि बात करनी चाहिए। जब बात प्रारंभ की तो वे लगभग बरस पड़े। आप नेट पर क्या क्या लिखते है, बहुत बड़े विद्वान समझे है? मैं भी कोई बेकार आदमी नहीं हूं। मेरे भी कई किताब छप चुके है। विद्वता का दर्प। मैं तुरंत बाहर आ गया। फिर कभी उनसे बात नहीं की। फिर मुझसे अखबार का कार्यालय छीन लिया गया। शेखपुरा रिर्पोटर नवीन सिंह को दिया गया और मैंने अखबार को अलबिदा कह दी। बात खतम।
मैंने कोई लॉबिंग नहीं की। किसी से नहीं मिला। कोई फरियाद नहीं की। सोंचा, पत्रकारिता निष्ठा और ईमानदारी से करनी है तो चापलूसी कैसा? पर मन में यह बात खटकटी रहती कि सच अगर ब्लॉग पर नहीं लिखता तो आज कार्यालय प्रभारी बना रहता पर क्या करें कुछ आदतें है कि बदलती नहीं और जब मीडिया मंच पर उनके जाने की खबर देखी तो लगा कि इस गरीब की हाय लग गई।
कल ही तो कहीं पढ़ा है-
कहो तो खरीद लूं दुनियां, कहां की मंहगी है।
बस जमीर का सौदा बुरा सा लगता है।।

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