पतुरिया का कोठा
(लघु कथा, अरुण साथी)
"की रेट रखलाहों हे?"
"चीज देख के रेट लगा दहो!"
"चीज तोर त रेट हम कैसे बता दियो!"
"बाजार भाव पता कर लहो, जे चल रहलो हें उहे रेट लगतै!"
"बाजार के की कहियो, आजकल घटिया चीज के भी रेट बड़ी हाय रहो हो!"
"खैर, ऊ सब तो अपन्न अपन्न पसंद के बात है, जेकरा घर में बढ़िया सामान है ओकरा ले ढेरो खरीदवाल है, पसंद पडतो त लिहा नै तो नै!"
संवाद बहुत ही सार्थक दिशा में बढ़ रही थी। बाजार में अपने भाव को बढ़ाने के लिए दुकान को बेहतरीन ढंग से सजाया भी गया था। जिस जगह पर प्रोडक्ट को दिखाना था उसे संवारा सजाया गया था, बिलकुल शोरूम की तरह। अभी दिखने में ही लग रहा था कि हाल-फिलहाल में ही डेंटिंग-पेंटिंग की गई है। ग्राहक को खुश करने के लिए कप-प्लेट, कुर्सी-जग, इस तरह के कुछ शो केस में नए-नए सामान दिख रहे थे। अगले को लग रहा था कि शो रूम जितना अच्छा होगा रेट उतना ही बढ़िया मिलेगा। खरीददार महोदय इस उहापोह में थे कि जो दिख रहा है वह प्रोडक्ट हो या ना हो। रेट कुछ अधिक भी लग रहा था पर बाजार की स्थिति यही थी। मोल-भाव हो रही थी। हालांकि इस सब कुछ बेहतरीन दिख रहा था। इसी बीच एक कप में चाय आती है और एक प्लेट में दो नमकीन बिस्कुट, थोड़ा सा दालमोट आता है। यह सब ग्राहक को खुश करने का एक उपक्रम जैसा लग रहा था। खैर, चाय की चुस्कियों के बीच संवाद आगे बढ़ने लगा। प्रोडक्ट के रेट और उसकी क्वालिटी पर चर्चा होने लगी। इधर उधर की बातों के बीच सौदा नहीं पटा।
शर्मा जी रसिक आदमी थे। सीढ़ियों से उतारते हुए उनको मुंगेर का श्रवण बाजार याद आने लगा। कोठे पे इसी तरह की साज-सज्जा, नाज-नखड़े होते थे। नयी नयी पतुरिया को खरीदने में काफी मोल भाव करना पड़ता। उनकी आँखों के सामने सब कुछ घूमने लगा। वे बुदबुदाने लगे।
"मरदे आदमी, एतना मोलभाव तो बायजी भी नै करो हई। आझ-कल तो बर्तुहारी करला औ पहाड़ तोडना एक बात हो गेलो।"
लड़की के पिता सिंह जी बेचारे चुपचाप अगले बर्तुहारी का प्रोग्राम मन ही मन बना रहे थे। बेबस और बूढी आँखों में अब किसी भी सवाल का जबाब नहीं था।
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