अरुण साथी
कठुआ में काठ मारने वाली घटना दुष्कर्म के आरोपियों को जिस दिन आजीवन कारावास की सजा दी गई ठीक उसी दिन कई लोग अलीगढ़ में हुए दुष्कर्म को लेकर कैंडल मार्च निकाल रहे थे। दोनों घटनाओं में अलग-अलग वर्ग पीड़िता के प्रति संवेदना दिखाने लगे और आरोपियों को सरेआम फांसी पर लटकाने अथवा अन्य तरीकों से खुद ही सजा देने की बात उठाने लगे।
जैसे भारत मे कोई न्याय व्यवस्था हो ही नहीं! और ठीक उसी दिन बिहार के मुजफ्फरपुर में 41 बच्चों की मौत की खबर भी आ रही थी पर यह खबर कहीं दिख नहीं रही। अथवा किसी कोने में दम तोड़ रही है। इन बच्चों की मौत एक बुखार की वजह से हो रही है जिसके बारे में अमेरिका के चिकित्सक भी कुछ कहने से इनकार कर दिया। इन मर रहे बच्चों का धर्म क्या है।
यह सोशल मीडिया के उन्मादियों को पता करना चाहिए। क्योंकि किसी बच्चे की मौत से हमारी संवेदनाएं नहीं जगती! वह धर्म के हिसाब से जगती है। बच्चों के मौत से हमारी संवेदनाएं जगी होती तो हम इस पर भी कुछ लिख रहे होते परंतु अब हमारी संवेदनाएं धर्म विशेष के प्रति नफरत को लेकर जगती है अथवा सुषुप्त अवस्था में चली जाती है। इन्हीं घटनाओं से सोशल मीडिया के हमाम में हम सब नंगे हुए है।
हम सब मतलब हम सब। सेकुलर, कॉम्युनल सब। कठुआ की घटना में जैसे ही आरोपियों को एक धर्म वालों के द्वारा दूसरे धर्म का बताया गया और फिर उस धर्म को कटघरे में खड़ा करके आंसू बहाए जाने लगे, ऑन द स्पॉट कठोर से कठोर सजा देने की बात होने लगी और तथाकथित सेकुलर समाज एवं धर्म विशेष के लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी डीपी बदली और जमकर कैंडल मार्च निकाला ठीक उसी दिन यह इबारत लिखी गई कि दूसरे धर्म के लोग भी ऐसा ही करेंगे। उसके बाद से नफरत की यह इबारत लिखी जाने लगी और अलीगढ़ दुष्कर्म के बाद दूसरे धर्म के लोगों ने एक धर्म विशेष को कटघरे में खड़ा करते हुए सजा की मांग कर डीपी बदल ली और कैंडल मार्च निकाला। इस सब के बीच इससे भी गंभीर जो घटना सामने आई वह यह कि कठुआ के बाद धर्म विशेष के लोगों ने दुष्कर्मी को एन केन प्रकारेण अपने कुतर्क से बचाव करने लगे। अलीगढ़ में भी ठीक ऐसा ही होने लगा और दुष्कर्मी के धर्म वाले कुतर्क गढ़कर सोशल मीडिया पर एक दूसरे से उलझने लगे। सोशल मीडिया का यह सबसे नकारात्मक चेहरा है। इससे समाज को बांट चुका है।
नफरत की ज्वाला जलने लगी है। जिसमें समाज भी जल रहा है। किसी भी घटना पर त्वरित टिप्पणी से पिछले दो सालों से बचने लगा हूं। रोहित बोमिल, बीफ कांड का प्रकरण हो अथवा कठुआ का प्रकरण। जब एक वर्ग धर्म विशेष के आरोपी को सजा दिलाने के लिए खड़े होते हैं और वही वर्ग ठीक उसी तरह के जघन्य का अपराधों में खामोशियों को ओढ़ लेते हैं तब सवाल उठने लगते हैं। खैर, अब यह सब बात बेमानी हो गई है। नफरत की हवा जबरदस्त वही है और रग रग में पेवस्त है। अब दुष्कर्मी, हत्यारे, अपने और पराए धर्म के होने पर ही उसके विरोध अथवा समर्थन में हम उतरते हैं। नफरत का महाजाल ऐसा कि उसमें उलझ कर मानवता और सामाजिकता दम तोड़ रही है। मानवीय आधारों पर विचार रखने वालों को भी ऐसी घेराबंदी की जाती है कि वे त्राहिमाम करने लगते हैं। क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया में दोनों तरफ से कट्टरपंथी हावी हो गए।
तथाकथित सेकुलर समाज के तुष्टीकरण की नीति ने एक धर्म के कट्टरपंथियों को बोलने का मौका दे दिया। मुझ जैसे कुछ लोग इसी वजह से खामोश भी हो गए। जाने आगे और क्या होगा। डर तो लगता है। सबसे बड़ा डर सोशल मीडिया के उन्मादी जमातों से है। डराने के लिए यूपी के पत्रकार की रीट्वीट के जुर्म में गिरफ्तारी इसी का संकेत है..
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