मौत से साक्षात्कार
अरुण साथी
यह दूसरी बार घटना घटी। मौत मुलाकात करके लौट गयी। गुरुवार के दिन दोपहर दैनिक जागरण कार्यालय बाइक से जा रहा था। आपाधापी और जद्दोजहद, जिंदगी का एक हिस्सा बन गया हो जैसे। प्रोफेशनल, व्यवसायिक और पारिवारिक। इन तनावों के उथलपुथल के बीच दस किलोमीटर बाइक का सफर। बीच में कई फोन कॉल्स। सभी को रुक कर तो एक को चलते चलते रिसीव कर लिया। अमूमन ऐसा नहीं करता। बाइक सड़क पे थी और मन जिंदगी की जद्दोजहद में। स्पीड चालीस के नीचे।
आमतौर पे अपनी बाइक से ही जाता था पर माइलेज नहीं देने की वजह से भाई का बाइक ले गया। संकेत साफ था। बाइक स्टार्ट नहीं हो रही थी। रास्ते मे दो बार बंद हुई।
खैर, फिसिर फिसिर मेघ के बीच चल रहा था। आजकल मन के कोने से आवाज उठा रही थी। रुक जाओ। बहुत भागमभाग है। ठहरो। फिर लगता। यही परिश्रम तो अपनी पूंजी है। शेष क्या! न पुरखों का धन। न सहारा। चलो रे मन। चलते रहो।
इसी सब के बीच सड़क किनारे खड़ा एक बाइक सवार अचानक सामने आ गया। पीछे से ट्रक। एक दम से ब्रेक लिया और धड़ाम। फिर होश नहीं। लगा कि मर ही गया। फिर होश आने लगा तो कई परिचित चेहरे संभाल रहे थे। मदद के हाथ कई लोगों के बढ़े। कोई मेरे मित्रों को सूचना दे रहे थे तो कोई मुझे सांत्वना। तब मैंने अपने सर से हेलमेट खोला।
सभी ने डॉ कृष्ण मुरारी बाबू के पास पहुंचाया। प्राथमिक उपचार शुरू हुआ। हाथ में फ्रेक्चर। पैर में चोट। हेलमेट ने बचा लिया।
फिर तो इस नाचीज की खैर खबर लेने दोस्तों और हितचिंतकों का हुजूम उमड़ पड़ा। सभी ने राहत की सांस ली।
फिर केहुनी के नीचे की हट्टी टूटने की वजह से ऑपरेशन की बात हुई। मुरारी बाबू ने बिहारशरीफ के डॉ अमरदीप नारायण को रिकमेंड किया। डॉ फैसल अरसद सर ने भी सही कहा। सो चला गया। ऑपरेशन हुआ।
ऑपरेशन थियेटर के अंदर जब मुझे बेहोश किया गया अथवा होश में आने से पहले। अवचेतन मन फिर मृत्यु से साक्षात्कार कराता रहा। संवाद भी हुआ। जीवनचक्र चल पड़ा। उल्टा। पुराने दिन याद आ गए। घर के खामोश चूल्हे। माँ की मौन आंखें। पिता का अधर्म। बचपन का अभाव। विवाह। तिरस्कार। अपमान। अपनों का परायापन। परायों का अपनत्व।
किशोर होते ही घर का बोझ। अपनी इच्छाओं की हत्या। भाई का लक्ष्मण होना। पत्नी का प्रेम। रेंगते हुए चलना। फिर उठ बैठना। फिर अपने का पराया होना। पैर खींचना। दोस्तों का प्रेम। और नफरत भी। भरोसे के लिए जीना। भरोसे का टूट जाना। फिर अपने बच्चों का बड़ा हो जाना। पिता के प्रति उसका समर्पण। बच्चों में अभाव का अहसास।
फिर किसी का कहना,
मौत तो सुनिश्चित है। फिर। डर कैसा। सुनों। लड़ता रहूंगा। चलता रहूंगा। गिरता रहूंगा।
मौत तो सुनिश्चित है। फिर। डर कैसा। सुनों। लड़ता रहूंगा। चलता रहूंगा। गिरता रहूंगा।
इन्हीं संवादों के बीच। अवचेतन मन कराह भी उठा। जैसे सामने से कोई कह रहा था। सुनो। दुनिया गोल है। सपाट नहीं। रिश्ते, नाते, अपना, पराया। कोई किसी के साथ नहीं मरता। किसी के जाने के बाद भी जिंदगी चलते रहती है। वैसे ही जौसे। रेलगाड़ी का सफर। जिसको जहां उतारना है, उतरे। चढ़ना है, चढ़े। जिंदगी और मौत। उतारना। चढ़ना। छुक छुक। छुक छुक।
"जब जानकीनाथ सहाय करें तब कोण बिगाड़ करे नर तेरो !!"
जवाब देंहटाएंआप के शीघ्र स्वास्थलाभ की कामना करता हूँ |
सादर |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-08-2019) को "आजादी का पावन पर्व" (चर्चा अंक- 3429) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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स्वतन्त्रता दिवस और रक्षाबन्धन की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शीघ्र स्वस्थ होवें। ईश्वर की अनुकम्पा से बच गये।
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