मोबाइल ने जीवन छीन लिया। जी हाँ! यही सच है। बचपन से पढ़ने लिखने वाला नहीं रहा। होश संभाला तो पढ़ना ही एक मात्र विकल्प दिखा। फिर झोंक दिया। जैसे तैसे। कुछ तो नहीं कर सका तो जीवन की गाड़ी खींचने बुक स्टॉल खोल लिया। यह मेरे पढ़ने के शौक का नतीजा था। अपने नगर का पहला बुक स्टॉल। साथी बुक स्टॉल। उससे पहले साधारण उन्यास पढ़ता था। जिसने सुरेन्द मोहन पाठक और गुलशन नंदा प्रमुख रहे। पाठक जी का किरदार विमल आज भी याद है। और एक सुनील। लपु झंगा पत्रकार।
खैर, धीरे धीरे साहित्य की अभिरुचि बढ़ी। हंस पढ़ने लगा। फिर रेणु। प्रेमचंद। शरत चंद्र। कमलेश्वर। पढ़ता रहा। जीवन का यह बड़ा बदलाव का दौर रहा।
खैर, मोबाइल ने सबकुछ छीन लिया। चाह कर भी मोबाइल नहीं छूटता। पढ़ने की लत है पर अब कोशिश करने पे भी एकाग्रता नहीं रहती।
फिर भी लखनऊ रेलवे स्टेशन पे पसंदीदा पुस्तक दिखी। ले लिया। राग दरबारी। वयं रक्षम।
देखिये कब तक पढ़ता हूँ।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26-08-2021को चर्चा – 4,168 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
धन्यवाद आपका
हटाएंसुंदर.. असल में मोबाईल के नोटफकैशन ऑन रखने से कई बार एकाग्रता बाधित होती है.. जब वह संदेश आने पर बजता है तो ना चाहते हुए भी लोग मोबाईल उठाने चले जाते हैं.. मैं अक्सर इन नोटफकैशन को बंद करके रखता हूँ ताकि जब जरूरत हो तभी मोबाईल खोलूँ.. वहीं मोबाईल पर किन्डल, जगरनौट इत्यादि ऐप्लकैशन लोड करके रख रहे हैं ताकि जब किताब हाथ में न हो तो इनके जरिए पठन पाठन हो जाए.. जहाँ चाह वहाँ राह... उम्मीद है जल्द ही आप इन पुस्तकों को पढ़ लेंगे....
जवाब देंहटाएंबढ़िया सुझाव। आभार
हटाएंसच है
जवाब देंहटाएंजी
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