08 अक्तूबर 2013

बांझ का बदला (एक पत्रकार की आँखों देखी)

बात 2007 के जनवरी महीने की है। शाम के पांच बजे थे और लग रहा था जैसे रात हो गई हो। शीतलहरी सांय सांय चल रही थी। अमूमन ऐसे मौसम में शाम में नहीं निकलता था पर आज जाने क्यों मन नहीं लग रहा था, सो बाइक उठाई और निकल गया। सबसे पहले थाना गया। सोंचा शायद कोई खबर ही मिल जाए। एक रिर्पोटर की जिंदगी में अक्सर ऐसा होता है कि जब आप प्लान नहीं करते है और बड़ी खबर आपको मिल जाती है। देखा थानेदार एक स्त्री को डांट रहा है पर वह स्त्री निडर होकर उससे बोलती जा रही है।

‘‘चुप रहती है कि नहीं, बरी आई है केस करने? भतार पर केस करके की मिलतौ?’’
‘‘नै साहेब, आय पांच साल से तो हम चुप्पे ही, पर आय नै। आय उ निरबंशा हमरा केरासन छिट के जला रहल हल, पर हमर जिनगी इतनौ सस्ता नै है।’’ 
‘‘बड़ी खच्चड़ जन्नी है भाई, ऐसनो...’’
‘‘हां जी दरोगा बाबू, खच्चड़ तो हम हैइऐ ही, तोहूं मर्दाने ने हो उकरे दने बोलभो, उ निरबंशा, हिजड़बा के चढ़े के समांग नै है और बांझ बोल के मारो है हमरा।’’

तब तब थानेदार की नजर मेरे उपड़ पड़ गई और उसने अपना टोन बदल दिया-
‘‘ठीक है ठीक है लाओ खिल के दो..केस कर देते है... पर केस करने से घर थोड़े बस जाएगा...?’’
‘‘हमरा अब घर बसाना नै है.... ओकरा सबक सिखाना है।’’

मैं समझ गय, मामला कुछ गंभीर है, सो एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। उस स्त्री की उम्र वही कोई पच्चीस साल के आस पास होगी। उसके शरीर से केरोसीन की बू आ रही थी और उसका सारा शरीर केरोसीन से भींगा हुआ था। उसके शरीर का गठीलापन उसकी तरफ नजर उठाने पर विवश कर रहा था। गेहूंआ रंग, साधारण कद काठी और बड़े बड़े उभार...जो उसके ब्लाउज के खुले हुए हुक से बार बार अश्लील ईशारे कर अपनी ओर खींच रही थी और थानेदार दोनों उभारों के बीच गहरी घाटी में डूब उतर रहा था। मैं भी अपनी आंखों को तृप्त करने से खुद को नहीं बचा सका। एक भरपूर नजर उस स्त्री पर डाली और एक ठंढी आह भरते हुए कहा-

‘‘क्या बात है बड़ा बाबू, क्या कष्ट है इसको?’’
‘‘कुछ नहीं बस सांय-माउग का झगड़ा है झूठ-मूठ के पुलिस को घसींट रही है।’’
‘‘सांय-माउग का झगड़ा! वाह, कोेई जान लेवे पर उतरल है औ तोरा सांय-माउग के झगड़ा नजर आबो है।’’
‘‘क्या बात है बताइऐ, मैं एक रिर्पोटर हूं, शायद कुछ मदद करू?’’
‘‘देखो उ हिजड़बा की कैलक है।’’

और उसने कमर पर लपेटी हुई सूती की पतली सी साड़ी बेझिझक हटा दी। ओह, वहां जख्मों के कई निशान थे  और उससे रिसता हुआ लहू अभी ठीक से सूखा नहीं था। फिर उसने अपनी पीठ को मेरी तरफ करके पेटीकोट को थोड़ा नीचे सड़का दिया। कई नए पुराने जख्म समूचे पीठ में किसी के क्रुरूरता की गवाही दे रहे थे। फिर वह जांधों पर बने जख्म दिखाने लगी और मैने रोक दिया, बस बस हो गया।

‘‘नहीं साहेब, देख लहो! सांय-माउग के झगड़ा केतना जुलम करो है? औ हां हमरा अब कौनो लाज नै है साहेब, इहे लाज त पांच बरिस तक मार गारी खाय पर विवश कर देलकै। अब बचल की, जिनगिये नै रहतै तब की करबै, निरबंशा कहो है जरा के मार देबौ और सब कहतै बांझी अपने से मर गेलै।’’

अब मेरे कैमरे ने अपना काम प्रारंभ कर दिया था। उसके जख्मों को उसके दर्द के साथ साथ कैद करने लगा।

ओह, शादी के पांच साल हो गए थे और बच्चा पैदा नहीं कर पाने की सजा परवतिया झेल रही थी। उसके शरीर पर बने जख्म उसके मां नहीं बन पाने की सजा थी।
मेरी उपस्थिति ही इस बात की गवाही थी कि थानेदार अब रिर्पोट दर्ज कर कार्यवाई करेगा, क्योंकि किसी पीड़ित की खबर को प्राथमिकता देने की मेरी फितरत से वह आने के कुछ ही माह में वाकिफ हो गया था। सो कागजी कार्यवायी के बाद पुलिस की जीप निकली और थानेदार उसपर परवतिया को बैठा कर चल पड़ा। पीछे पीछे मैं भी हो लिया। शीतलहरी और कुहासे को चीड़ता हुआ उसके गांव पहूंच गया। पुलिस की गाड़ी जैसे ही गांव में प्रवेश किया गांव के बच्चे और बड़े उसके पीछे पीछे चलने लगे। उसके घर के पास पुलिस पहूंची तो गांव के लोग बड़ी संख्या में जमा हो गए। 

‘‘रमचरना के माउगी पुलिस लेके आई है।’’ जंगल में आग से भी तेज गांव में यह खबर फैल गई थी। उसके घर से रमचरना की मां निकली और सीधा जाकर परवतिये में मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया। 

‘‘हो गेलौ मन पूरा, रंडीया, खजनमा के एकगो टुसरी तो निकललै नै और पुलिस ले के आ गेलहीं हैं।’’
परवतिया भी जैसे कोई फैसला करके आई थी आज-
‘‘टुसरी निकलतै कैसे? बेटबा से नै पूछीं की ओकर टूसरिया उठो हउ।’’ 
सारा गांव सन्न रह गया, जितनी मुंह उतनी बातें। एक दम मरदमराय औरत है भाई, ऐसनो बात बोले के है....?
‘‘त हम त पहले से ही कहो हलिए इ औरत छिनार है, अपने गांव के सन्टुआ से फंसल हैलै अब इ सब करके हिंया से भागे ले चाहो है..।’’ 

यह बात गांव में लफंगबा के नाम से प्रसिद्ध सरोवर सिंह ने कही तो परवतिया बौखला गई-
‘‘ हां, हां, छिनार तो हम हैइए हीए! तोरा से करबा लेतिए हल तो बड़की सति-सावित्री हो जइतिए हल, तो हीं ने तीन बार हमर छाती पकड़ के पटके के प्रयास कैलहीं हें और तीनों बार करारा जबाब मिललै, रंडीबजबा।’’
पुलिस पुछताछ कर लौट आई, पूरे गांव में किसी ने परवतिया के पछ में बयान नहीं दिया। जिसने भी गवाही दी सबने कहा कि बांझ है और छिनार भी...। परवतिया पुलिस जीप से ही थाने लौट आई। अब वह उस घर में एक पल भी नहीं रहना चाहती। कड़ाके के ठंढ के बाबजूद उसका शरीर जल रहा था। उसके आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे। और वह पूराने ख्बाबों में खो गई।

शेष अगले अंक में.... अगले सप्ताह..



2 टिप्‍पणियां:

  1. आज समाज में व्याप्त कुरीतियों का सटीक चित्रण ,,,,
    नवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनायें-

    RECENT POST : पाँच दोहे,

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  2. हमारे परिवेश की विडंबना कहती पोस्ट

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