42वें वसंत में प्रवेश करते हुए कल भी कोई ख़ुशी नहीं थी, आज भी नहीं है। हो भी क्यूँ? जिंदगी की जद्दोजहद ने किसी मोड़ पे कभी भी खुश होने का मौका ही नहीं दिया। 42 मौकों में से एक बार भी जन्म दिन मानाने का मौका जिंदगी ने नहीं दिया।
हाँ शिकायत है मुझे जिंदगी से की क्यूँ इसने ऐसा किया? बचपन से जब होश संभाला तो खुद को मुफलिसी के उस मुकाम पे पाया जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता। जीवित पिता के पितृत्व सुख से बचपन बंचित रहा और होश सँभालने के साथ पिता को शराब के साथ बेहोश पाया। जैसे-तैसे बचपन बीतता चला गया और जब किशोर हुआ तो बिना अभिभाकत्व के उसी तरह भटकता रहा जैसे बिना मांझी के बीच मझधार में नाव। जर्जर नाव को सँभालते-सँभालते उसको डूबने से बचाने के लिए नाव से पानी उलीचता रहा।
यादों के झरोखों से झांकता हूँ तो एक टीस सी उठती है। कैसे 10वीं में पहली बार कपडे का जूता माँ से लड़-झगड़, रो-कलाप् पे लिया और कितनी ख़ुशी हुई उसको लिख पाना सम्भव नहीं! और यूँहीं लड़खड़ाते हुए जब बारहवीं में सरकारी कॉलेज में नाम लिखाया तो जूते की तरह एक जोड़ी फुलपैंट-शर्ट सिलाया। फिर उसी के सहारे दो साल का सफ़र तय किया...और वो पहली पुराणी सायकिल जिसे जाने कैसे कैसे ख़रीदा... आज हवाई जहाज के सफ़र में भी वह सुख नहीं..
और फिर इसी बीच बचपन में जिसके साथ नुक्का-चोरी, दोल-पत्ता खेला करता दशवीं आते आते पता लगा की उससे प्यार हो गया। फिर तीन सालो तक पत्रों का आदान-प्रदान का वह एक स्वर्णिम दौर भी आया जब प्रेम पत्र लिखना हर रोज परीक्षा में बैठने जैसा लगे, जाने क्या रिजल्ट आए? और एक रोज जो रिजल्ट आया तो फिर उसी में डूबता चला गया। बचपन से ओशो को पढने की आदत लग गयी और जिंदगी फिर से दांव पे लग गयी, प्रेम हासिल हुआ और जिंदगी चूक गयी। सामाजिक विद्रोह के बीच प्रेम विवाह..और एक छोटे से किताब दुकान के सहारे दाल-रोटी का जुगाड़ किया और चलता रहा।
रास्ते में हमेशा काँटे ही मिले, फिर घर-परिवार, बाल-बच्च सँभालते-सँभालते जन्मदिन मनाने की ख़ुशी कभी मिली ही नहीं। जाने क्यूँ आज सुबह से आँखों में नमी है जैसे स्याह पन्ने पे लिख दी गयी हो मेरी जिंदगी, जैसे रेगिस्तान में धकेल दिया गया हूँ मैं और मारीचका मुझे भगाए जा रही हो...
हालाँकि जिंदगी के किसी मोड़ पे जिंदगी मिले तो उससे शिकवा भी नहीं करूँगा मैं, क्यूँ करूँ ? ईश्वर से दो ही चीजें मांगी थी, एक मोहब्बत और दूसरा बाबूजी की शराब से छुटकारा, दोनों मिल गयी। बस अब कुछ नहीं, क्यूंकि जिंदगी वह सब भी दिया जो सोंचा नहीं था।
बाबूजी का शराब ऐसे छूटी जैसे ईश्वर सामने आके परीक्षा ले लिए और मैं पास हो गया। हुआ यूँ की अत्यधिक शराब के सेवन से उनको ब्रेन हेमरेज हो गया। मरणासन्न अवस्था में दोनों बेटों ने उनको डॉ रामान्नादन सिंह के पास पहुँचाया जहाँ डॉ ने मेरी माली हालत को देख उनके बचने की उम्मीद छोड़ देने की सलाह दे दी यहाँ तक की माँ भी खामोश हो गयी और उसके अविरल आंसू जैसे मेरी विवशता पर वह रही थी। दोनों भाई ने हार नहीं मानी और कर्ज पे कर्ज ले के बाबूजी को पटना ले गए, एक सप्ताह सेवा की परीक्षा में ईश्वर प्रथम श्रेणी से पास कर दिया आज आठ-दस साल हुए, बाबु जी दुसरे को शराब नहीं पीने के लिए समझाते है और मेरा मन बार बार ईश्वर से कुछ और नहीं मांगने को कहता है..
फिर भटकते भटकते पत्रकारिता के उस अंधे कुंऐं मे आ गिरा जहां सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा था.. है! फिर आदरणीय नवीन कुमार, शिवकुमार जी की पहल और प्रेरणा पर आदरणीय कौशलेन्द्र कुमार जी ने आज अखबार से जोड़ लिया जहां खबर फैक्स करने तक का खर्च अपनी जेब से देना पड़ता और दस साल पुर्व जब मेरी रोज की कमाई महज सौ थी पच्चीस से तीस रूपये समाचार भेजने मे खर्च कर देता। हां उस समय भी यह परम्परा भी और आज भी है कि समाचार भेजने के खर्चो के नाम पर पत्रकार मित्र उगाही कर लेेते थे पर मैने जाने किस प्रेरणा से प्रेरित होकर तत्कालीन नगर अध्यक्ष शिवकुमार जी के द्वारा उनके एक मित्र की खबर प्रकाशित करने के एवज में दिए जाने वाले तथाकथित खर्चो को लेने से इंकार कर दिया जबकि उन्हांेने कहा था कि मैं जानता हूं कि अखबार तुमको कुछ नहीं देता...और उसके एक साल पहले ही बिहार के नंबर वन अखबार के सबसे बरिष्ठ पत्रकार को मैने ने एडस दिवस पर मित्रों के साथ निकाले गए जागरूकता रैली की खबर छापने के एवज में गुल्लक में जमा किए गए 56 रूपये सिक्के गिन गिन कर दिया था...शायद उसी दुख ने मुझे प्रेरणा दी और फिर लोगो के दुख-दर्द से जुड़ता चला और लड़ता चला गया आज मेरे यहां से समाचार प्रकाशन के नाम पर लिफाफे के अंदर की कमाई बंद हो गई...और अपनी हजार बेइमानी के बीच से लड़ता हुआ पत्रकारिता की ईमानदारी को बचाए रखना मेरी प्रतिबद्वता बन गई...और एक खबर का १० रुपया पर काम करते हुए..समाज के लिए लड़ने का अपना ही सुख है..शायद ईश्वर ने मुझे चुना है..दूसरों के लिए लड़ने के लिए..
हाँ जिंदगी ने एक लक्ष्मण जैसा भाई दिया जो जाने कैसे बिना बोले सब सुन-समझ लेता है। भाई ऐसा जैसे आज भी मैं बच्चा हूँ.., और मिले कुछ ऐसे दोस्त भी जो जाने क्यूँ मुझे वेवजह, वेपनाह प्रेम करते है मुझे सहारा देते है.. थाम लेते है...
सुना है दुःख बाँटने से घटता है और सुख बाँटने से बढ़ता है... इसलिए आभासी दुनिया के मित्रों से सुख-दुःख साँझा कर रहा हूँ क्यूंकि यहाँ भी मुझे वही प्रेम मिला जो वेवजह और वेपनाह है...
जीवन का यह संघर्ष उम्रभर आपकी शक्ति का स्रोत रहेगा .... शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंदुःख ही जीवन की कथा होती है
जवाब देंहटाएंदुःख से जन्मा सुख
जिसके लिए दुःख आजीवन जूझता है
कभी काँटे, कभी पत्थर
कभी अपमान, कभी अनुत्तरित दिशाएँ !
इतनी सूक्ष्मता से दर्द को जो लिख ले
लिख लेने का साहस करे
वह मेरे लिए ईश्वर की बनाई विशेष रचना होती है
आपका अशेष आशीर्बाद ही संबल है...आभार
हटाएंसंघर्ष से ही व्यक्तित्व निखरता है। शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंजीवन के संघर्ष नये अनुभवों के जनक होते हैं और अनुभवो के दम पे इंसान बड़ी से बड़ी कठिनाईयों से जूझने के लिये तैयार होता है..उत्तम प्रस्तुति और असीम शुभकामनाएं।।
जवाब देंहटाएंसंघर्ष ही मनुष्य को लड़ने की तागत देता है और मनुष्य सिकंदर बन कर निकलता है......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल jरविवार (22-06-2014) को "आओ हिंदी बोलें" (चर्चा मंच 1651) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
I know you since childhood, whatever you needed you got every thing, your journey ahead, waiting for you something, big, hope you will soon, get more happyness in your life, god bless you friend. From - harish sagar
जवाब देंहटाएंjindgi ka name hi struggle hai...
जवाब देंहटाएंउत्तम प्रस्तुति
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