इस पौधे को देखकर बचपन की बातें याद आ जाती है जब मां काजल बनाने के लिए भंगरोय्या (लाल दुभी) नामक इस धास को लाने के लिए कहती थी। इस धांस का रस निकाल कर मां उसे कपड़े में भिंगो देती थी और फिर उसकी बत्ती बना कर करूआ तेल (सरसों) का दीया अंधेरे जगह में जलाती थी और फिर उससे निकले कालिख से काजल बनाती थी। इस कालिख को मां फुलिया कहती थी।
फुलिया को गाय के घी में मिला कर काजल बनाती थी और कहती थी यह काजल ठंढी होती है और जब उसे करूआ तेल में मिला कर बनाती थी तो कहती थी यह गर्म होती है.. प्रकृति के साथ यह थी हमारी परंपरागत ज्ञान जो आज के विज्ञान से बहुत आगे थी। एक संवाद..एक आत्मीयता..
आज चरन्नी का काजल सौ, दो सौ में बिकती है। उसका ऐसा ब्रान्डिग किया गया कि महिलाऐं अब घरेलू काजल को बनाना और लगाना भूल गई। हलांकि गांव में अभी भी बहुत महिलाऐं इसी नुस्खे से काजल बनाती है पर घीरे घीरे कुकरौंधा का पैधा भी अब बहुत कम मिलने लगा है....
बात सहज है कि पुंजीवाद के इस दौर में विज्ञापन के हथियार से साम्राजवादियों ने हमसे हमारी संस्कृति, हमारी परम्परा और हमारी आत्मीयता भी छीन रही है और हमें एहसास भी नहीं होता...
हाँ , पहले मेरे यहाँ भी बनाया जाता था । अब तो सब बाजार के हिस्से चला गया है
जवाब देंहटाएंउम्दा जानकारी
जवाब देंहटाएंसब फैशन में शुमार हो आकर्षक पैक में बाज़ार में उपलब्ध हो रहा है, रही सही कमी डॉक्टर्स ने आँखों के लिए काजल हानिकारक है , बता कर पूरी कर दी है , उन्होंने तो गुलाबजल को भी अनुचित बता दिया है
जवाब देंहटाएं