मोनू खान। फुटपाथ पर बुक स्टॉल चलाते वक्त मित्रता हुई और कई सालों तक घंटों साथ रहा। मोनू खान, ईश्वर ने उसे असीम दुख दिया था। वह दिव्यांग था। उसके पीठ और सीने की हड्डी जाने कैसे, पर विचित्र तरीके से टेढ़ी मेढ़ी थी। असीम पीड़ा से जूझता एक आदमी। अष्टावक्र!
बहुत लोग उसे कुब्बड़ कहके चिढ़ाते थे। बस इसी बात पे उसे गुस्सा से जलजलाते देखा है, कई बार। और अंदर से घूँटते हुए भी...। मायूसी में कई बार कहता, "अल्लाह जाने कौन बात का सजा दिहिस है।"
सब कुछ के बाबजूद वह पढ़ाई करने में परिश्रमी था। किताबों से लगाव ही उसे मेरे करीब लगा। मेरे साथी बुक स्टॉल का कई सालों तक वही मालिक रहा। बिना किसी लोभ लाभ के।
आज अचानक उसकी याद आयी है। सुबह सुबह वह सपनों में आया। जाने कुछ कह रहा था। सुन न सका।
उससे जुड़ा एक प्रसंग है। पाक रमजान का ही महीना था और हम चार-पांच दोस्तों के साथ बाजार में टहल रहे थे। तभी एक मित्र ने होटल के आगे उस को चिढ़ाते हुए कहा कि
"रसगुल्ला खाओगे मोनू!" वह जानता था कि मोनू रोजा में है और रसगुल्ला नहीं खायेगा!
मोनू ने भी तपाक से जवाब दिया!
"सभ्भे के भर पेट ख़िलइमहिं त खा लेबौ!"
सबको पता था कि मोनू रसगुल्ला नहीं खाएगा क्योंकि वह रोजा रखे हुए है। सभी लोग यह भी जानते थे कि जिस मित्र ने यह प्रस्ताव दिया है वह बेहद कंजूस है और वह रसगुल्ला नहीं खिलाएगा। दोनों तरफ से नकारात्मक स्थिति थी फिर भी हम दोस्तों को क्या, मजा लेने के लिए कंजूस मित्र को उकसा दिया।
"मख्खीचूस तेलिया कहाँ से रसगुल्ला खिला देतै, दम है!"
"चल सबके भर पेट खिला देबौ, मोनू खाईतो तब..।"
तब मोनू भी तैयार हो गया। सभी लोग होटल में बैठे तब तक किसी को विश्वास नहीं था कि मोनू रसगुल्ला खाएगा परंतु सभी के आगे रसगुल्ला रखा गया। हंसी-मजाक होती रही। सब ठहाके लगाते रहे। सबको पक्का विश्वास था कि कोई रसगुल्ला नहीं खाएगा क्योंकि मोनू नहीं खाने वाला है। मोनू ने सबसे पहले होटल के संचालक को एडवांस पैसा देने के लिए कहा क्योंकि उसे पता था कि वह भरपेट रसगुल्ला नहीं खिलाएगा। कंजूस बहुत है। खैर, इसी शर्त पर हहा-हिहहि चल रहा था और मोनू ने रसगुल्ला दबा दिया। हम सभी अवाक रह गए। फिर भी मित्रों का क्या, सब ने दबा, दबा कर रसगुल्ला दबा लिया। लंबा बिल बना। बेचारे मित्र का मुंह लटक गया। जब हम लोग खा पीकर निश्चिंत हो गए तब पूछने पर कि मोनू ऐसा क्यों किया? हम लोगों को तो उम्मीद नहीं थी। हम लोग तो मजाक कर रहे थे। कहीं गलती तो नहीं हो गई हम लोगों से। मोनू ने कहा कि
"ऐसन कोय बात नै। दोस्त के खुशी ही सबसे बड़का इबादत हई। एक दू दिन रोजा टूटे से खुदा नाराज नै होता। अउ दोस्त के खुशी से बढ़के कुछ नै होबो हैय। बाद में रोजा मेकअप करे के नियम हई।"
खैर, आर्थिक परिस्थिती ने मोनू के सारे परिवार को यहां से गया जाने पर विवश कर दिया। सभी लोग वही सेटल हो गए। कभी कभार मोनू आता, भेंट हो जाती। मिलकर भी और मोबाइल पर भी सूचित कर वह गया आने के लिए कई बार कहता पर जीवन की आपाधापी में कभी वहां नहीं जा सका। इसी बीच खबर आई कि नियोजन के माध्यम से वह शिक्षक हो गया। बाढ़ के आसपास किसी गांव में। एक दिन उसने सूचना दिया, वह शादी कर रहा है। मेरी खुशी का पारावार नहीं रहा। लगा कि ईश्वर दुख ही नहीं देते, कभी-कभी खुशी भी देते हैं। इसीलिए उनको परमपिता परमेश्वर कहा गया है। मैंने उससे कहा कि
"चल मोनू अब अल्लाह से शिकायत खत्म हो जयतौ। नयका जिनगी मुबारक।
उसने बारात में आने के लिए कहा। हम
तैयार भी हुए पर दुर्भाग्य ऐसा की बारात नहीं जा सका। जिस दिन बारात जानी थी उस दिन लगा जैसे ईश्वर अपनी नाराजगी को जाहिर करने लगे हो। इतनी मुसलाधार बारिश होने लगी, लगा कि हर जगह बादल फट पड़ेगा। धरती उसमें समा जाएगी। बादलों की गड़गड़ाहट से थर-थर धरती कांपने लगी हो। विचित्र सा माहौल था। मोबाइल पर मोनू को सूचित किया। उसने मजबूरी समझी और मायूस भी हुआ। निकाह के बाद उसने मोबाइल पर अपनी बीवी से बात भी कराया। बहुत खुशी हुई।
इसी तरह कभी-कभी मोनू से बातचीत करता रहता था। कुछ महीने बाद मैंने मोनू के मोबाइल पर कॉल किया। अचानक से उधर जिसने मोबाइल उठाई उसने मायूस होकर कहा कि मोनू का इंतकाल हो गया। शारीरिक लाचारी की वजह से उसके हृदय ने जवाब दे दी और वह चल बसा। एक मिनट के लिए सन्नाटा सा छा गया। लगा अल्लाह ने उसे थोड़ी सी खुशी बस इसलिए दी थी कि उसे ख़ुशी का एहसास हो जाए और फिर अलविदा कह कर चल दे...आह आह..
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