28 मई 2020

मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं! इसके लिए किसी राजा का दोष नहीं है..

अरुण साथी

दो ही तरह के जर्नलिज्म का दौर चल रहा है। एक दौर सुपारी जर्नलिज्म का है। जहां मुद्दे को ऐसे उछाला जाता है जैसे गांव की कोई झगड़ालू औरत छोटी सी बात को लेकर महीनों सड़क पर निकल गाली गलौज करती रहती हो। नतीजा भारत की पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता को खो चुका है। ठीक उसी तरह जैसे भेड़िया आया , भेड़िया आया की कहानी में। इसमें कई नामी-गिरामी जर्नलिस्ट स्नाइपर की तरह कैमरा और कलम से खास विरोधी पर ही निशाना साध हत्या कर साधु बने हुए हैं।
दूसरा पुजारी जर्नलिज्म का दौर है। वहां भक्ति काल के योद्धाओं के द्वारा साष्टांग चरण वंदन किया जा रहा है। चरणामृत का प्रसाद जिन्होंने ग्रहण कर लिया उन्हें ऐसा महसूस होता है जैसे अमरत्व प्राप्त हो गया। कुछ तो इसी चरणामृत का पान कर जर्नलिस्ट कम प्रवचनकर्ता अधिक हो गए।

इन सब से अलग भी कुछ है जिन्होंने अलग रास्ते को चुना। उनके लिए सुपारी किलर की व्यवस्था है। और आज वे जिंदा लाश बने हुए हैं।

इन्हीं सब में आम आदमी का दुख दर्द दिखाने की विश्वसनीयता अब किसी के पास नहीं। दुखद यह कि वही आम आदमी में ही एक बड़ा वर्ग सच को बर्दाश्त नहीं करता और कीलर की तरह सोशल मीडिया में उस सच को मारने के लिए कुतर्कों का ऐसा जाल बुनता है कि सच का दम घुट जाता है। 

इसी कुतर्कों के जाल में बिहारी मजदूरों के दर्द का गला घोट दिया गया। इन जालों के कुशल बुनकरों ने कुतर्कों का ऐसा धागा उपयोग किया कि भूखे-प्यासे दम तोड़ने वाले मजदूर भी की आत्मा कलप उठी। मजदूर के पांव के फोले आंसू बहा कर पूछ रहे हैं। कौन सुनेगा, किसको सुनाएं, इसलिए चुप रहता हूं।

अब मुजफ्फरपुर में रेल से आई एक मां ने दम तोड़ दिया। उसके बच्चे अबोध है। चादर में लिपट कर मां को जगाने का प्रयास करते रहे। यह तय है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भूख से मरने का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता है। मिलेगा भी कैसे। हत्यारे कब अपनी हत्या का सबूत छोड़ते हैं। इसके साथ-साथ रेलगाड़ियों से कई लाशें निकल रही हैं। कई पैदल आने वालों ने रास्ते मे दम तोड़ दिया। कई का तालाबंदी में दम निकल गया।


दुखद यह है कि लाशों के पास कोई सुसाइड नोट लिखा हुआ नहीं मिल रहा है। या कि मिला भी होगा ! वह भी वायरल किया जाएगा! इसमें लिखा होगा, मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं। इसके लिए किसी सरकार, किसी अधिकारी, किसी  किसी राजा का दोष नहीं है। मैं इसके लिए दोषी हूं। और सरकार इस दोष की सजा जो मुकर्रर करें, मैं कबूल कर लूंगा!!


चलिए इस दौर में हम सब गवाह हैं। यह दौर भी बदलेगा। सदा ना रहा है, सदा ना रहेगा, जमाना किसी का...

18 टिप्‍पणियां:

  1. दौर तो बदल ही जायेगा पर पत्रकारिता की भूमिका पर लगा प्रश्न चिह्न कैसे बदलेगा...??

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    1. यह प्रश्नचिन्ह भी बदलेगा। कोई तो आयेगा

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  3. चलिए इस दौर में हम सब गवाह हैं। यह दौर भी बदलेगा..

    –बदलना तो तय है.. इतिहास हिसाब भी लिखेगा..

    साधुवाद आपके लेखन को

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  4. सटीक लेखन । दौर तो अवश्य बदलेगा ,या यूँ कहिये कि बदलना पडेगा ..।

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  5. बहुत खूब अच्छी ख‍िंंचाई की, जोशी जी

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