अरुण साथी
बिहारी होने को लेकर अक्सर चर्चा होती रही है। कभी-कभी सकारात्मक संदर्भ में तो ज्यादातर नकारात्मक संदर्भ में। बाद के दिनों में लालू प्रसाद यादव के गंवई अंदाज को लेकर नकारात्मक संदर्भ में बिहार को उछाला जाता रहा। घोटाला बगैरा से इतर की बातें हैं। खैर, वर्तमान में बात। बिहारी हैं हम। हम से ही सब बेदम के रूप में करना चाहता हूं।
दरअसल कोरोना काल में हम बिहारियों ने अजीब तरह की प्रतिक्रिया दी है। पहले तो यह कि बाहर में फंसे होने का ऐसा कोहराम मचाया की न्यूज़ चैनल से लेकर अखबारों में यही छाया रहा। व्यक्तिगत अनुभव में यह महसूस किया कि बाहर में फंसे रहने की बातों में भूख की समस्या कम और घर आने की मुमुक्षा सर्वाधिक थी।
होनी भी चाहिए। हम बिहारी गांव में पले बढ़े हैं। होम सिकनेस हमारी कमजोरी है।
सुबह अगर पटना के लिए निकले तो जैसे तैसे काम खत्म करके घर भाग कर आने की अजीब सी ललक हमारे डीएनए में है। फिर कोरोना काल में घर जाने की ललक भला कैसे नहीं होती! तो ज्यादातर ने भूख से बदहाली की ऐसी हवा उड़ाई की हवा-हवा हो गया। अब इसी हवा-हवाई बातों में असर ऐसा हुआ कि एक हजार किलोमीटर से लेकर ढाई हजार किलोमीटर तक बीवी बच्चों के साथ पैदल चल दिया। तो किसी ने कर्ज लेकर साइकिल खरीदी और घर के लिए निकल गया।
कोई मोटरसाइकिल कर्ज लेकर खरीदी और दो साथियों के साथ घर आ गया। किसी ने ट्रक का जुगाड़ किया। कंटेनर का जुगाड़ किया। प्रति व्यक्ति 5000 देकर घर तक का सफर किया। ये बातें यह साबित करने के लिए काफी है कि भूख समस्या कम थी, घर आने की मुमुक्षा अधिक।
नीतीश कुमार अपनी बातों पर अड़े रहे। जहां हो, वहीं रहो। परंतु महाराज जोगी जी ने ऐसा रास्ता खोला कि उपद्रव हो गया। पैदल आने वालों के दर्द को ऐसा दिखाया कि हार कर प्रवासियों को लाने की मजबूरी बनी। नतीजा यहां क्वारन्टीन सेंटर में रखा गया। अब प्रवासी बिहारियों का स्वभाव कहां बदलने वाला था। सो उन्होंने आधा घंटा देर से चाय मिलने पर। नाश्ते में बिस्कुट या सत्तू मिलने पर। खाने में केवल आलू की सब्जी मिलने पर रोड जाम, उपद्रव और हंगामा शुरू कर दिया।
सरकारी योजना के द्वारा बाल्टी, थाली, मच्छरदानी, बेडशीट नहीं मिलने पर रोड जाम। हंगामा शुरू हो गया। उनको अपनी जान की परवाह कम और सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलने का गुस्सा अधिक।
यह सच है कि बिहार में आपातकाल की स्थिति में आपदा विभाग से मिलने वाले लाभ का 10% भी प्रवासी श्रमिकों को नहीं मिल रहा। अधिकारियों और नेताओं की जेब में पैसा जाएगा। कोई कुछ कर ही नहीं सकता। पूरी तरह से मैनेज मामला लगता है।
बावजूद इसके हम बिहारी अपनी जान की परवाह कम और छोटी-छोटी बातों के लिए अपनी जान को खतरे में डाल देने की कोशिश ज्यादा करते रहें। भगवान बचाए हम बिहारियों को। हम खुद ही खुद को बदनाम करते हैं। एक बार फिर से हम पूरी दुनिया में बदनाम हुए। कोरोना काल में 5 किलो अनाज के लिए सौ दो सौ की भीड़ सड़क पर हंगामा कर रही। हमारी जान की कीमत बस पांच सेर अनाज है। यह हमारी जहालत है या कुछ और, हम खुद तय करेंगे...
सार्थक आलेख।
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