रिपब्लिक भारत के संपादक अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी पर जश्न मनाने वाले लोग बहुत दिख जाते हैं । वैसे तो मोदी विरोधी इस जश्न में जमकर शरीक हो रहे हैं परंतु मोदी के विरोध में पत्रकारिता करने वाले भी इस जश्न में शामिल है। कई वरिष्ठ पत्रकार भी कुतर्क के सहारे इसे जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहे हैं।
इसी तरह का मामला पिछले कुछ सालों से देश में देखने को मिल रहा है या कहें कि दुनिया भर में यही स्थिति बनती जा रही है। फ्रांस के मामले में मुनव्वर राणा जैसे लोगों ने भी कुतर्क के सहारे अपनी बात रखी थी।
अर्नव गोस्वामी के चैनल पर कभी दस सेकंड मैं नहीं रह सका। चीखना, चिल्लाना है। यही पहचान थी। निश्चित रूप से गोस्वामी ने गलत किया है। पत्रकारिता जगत इससे नाराज है। वह अलग बात हो सकती है। परंतु अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर कुतर्क दिया जाना बिल्कुल गलत है। सुशांत के मामले में महाराष्ट्र सरकार के बखिया उधेड़ दी। जबरदस्त मामले को उछाला। नहीं तो सुशांत जैसे मुद्दे को दबा दिया जाता।
सबसे से हटकर अलग अंदाज हो हो सकता है। पुराने ढर्रे से अलग चलने की आदत हो सकती है। परंतु अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी पुराने केस में की गई है। वह भी जो बंद हो चुका था। अब उसमें पुलिस के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। वहीं लोग हैं जो यदि ऐसा काम बीजेपी की सरकार करती तो कोहराम मचा दिए होते। सहिष्णुता, लोकतंत्र की दुहाई देते।
पार्टियों और विचारधाराओं में बंटे बुद्धिजीवी, महान पत्रकार ज्यादा खतरनाक होते गए हैं । कंगना राणावत के मामले में भी जश्न का माहौल देखने को मिला था। राहत इंदौरी के निधन पर भी एक पक्ष द्वारा खुशियां मनाई गई थी । यह स्पष्ट हो चुका है कि दो राजनीतिक खेमों में बैठे बुद्धिजीवी, महान पत्रकार और हमारा समाज आज नफरत की पराकाष्ठा पर है और नफरत आदमी को अंधा बना देता है।
पत्रकारों के लिए किसी शायर ने खूब कहा है
आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छाएगा,
हर बस्ती में आग लगेगी, हर बस्ती जल जाएगा!
बिल्कुल सही कहा आपने।
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