अरूण साथी
बिहार की राजनीति करवट ले रही है। खगड़िया में सीएम पर हुए पत्थराव के बाद एकबारगी पूरे देश को लगा जैसे बिहार में नीतीश कुमार का तिलिस्म खत्म हो गया। नीतीश कुमार नायक से खलनायक बन गए! लालू प्रसाद यादव को लगा जैसे बिलाय के भाग्य से छिंका टूट गया हो और वे जातिवाद का पूराना कार्ड खेलते हुए कहा-मैंने कभी नहीं कहा भूरा बाल साफ करो? (तो जरा यह भी बता दे कि किसने कहा था)
इस सबके बीच एक आम आदमी की तरह सोंचते समझते बेचैनी सी होने लगी है। यह सच है कि नीतीश कुमार ने जिस दलदल से बिहार को बाहर निकालने की लड़ाई लड़ी आज वह स्वयं उसी दलदल में फंस गए है। पर यह भी सच है कि आज का बिहार लालू प्रसाद यादव के द्वारा बेआबरू किए बिहार से बहुत आगे निकल, देश के नंबर एक राज्य की रेस में कजरी गाता हुआ आगे बढ़ रह है।
नीतीश कुमार के योगदान को बिहारी मानस एक बारगी भुला नहीं सकता। बदनाम बिहारी की गाली से उपर उठ कर बिहार अपने नवनिर्माण की कहानी गढ़ रहा है। बिहार में आज न सिर्फ अच्छी सड़के है बल्कि यहां की बेटियां घरों की चाहरदिवारी से बाहर निकल नई ईवारत लिख रही है। बिहार का महिला सशक्तिकरण देश के लिए प्रेरणा बना हुआ है। कानून के राज की कल्पना जमीन पर शनै शनै उतर रही है। किसानों के घरों में खुशहाली के बीज बोया जा रहा है। अब किसान के घर में परंपरागत धान की मोड़ी (बिचड़ा) नहीं मिलता बल्कि हाइब्रीड धान का बीज बिहार सरकार उपलब्ध कराती है। श्रीविधी की खेती किसान अपना रहे है। अस्पतालों में जानवरो की जगह मरीज नजर आते है, मेला लगा रहता है। डाक्टर भी छुपछुपा कर ही निजी क्लिनीक में रहते है। स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति भी बढ़ी है, खास कर महादलित बच्चों की। आज से पहले स्कूलों में महादलितों कें बच्चे पढ़ने के लिए नहीं जाते थे पर आज मेरे ही गांव में दो दर्जन महादलितों के बच्चे पढ़ाई कर रहे है। कई चीजें है जो बिहार में बहुत अच्छा हुआ है ठीक उसी तरह बहुत कुछ बुरा भी हुआ है।
बुराई की जो सबसे पहली बात है वह यह कि नीतीश कुमार को सच बोल सके ऐसा एक भी आदमी उनके साथ नहीं है। चटुकारिता उनकी पसंद हो गई तो चटुकार उनके चहेते। निंदक नियरे राखिए का परंपरा उन्होंने स्वयं खत्म कर दी और मीडिया तक पर निंदा को प्रतिबंधित कर दिया। परिणाम बुराईयों तक उनका ध्यान जाए तो कैस?
गली गली सरकारी शराब की बिक्री, होटलों और ढावों में अवैध शराब की खुलेआम बिक्री और उसके गिरफ्त मंे आते युवा, निरंकुश थानेदार और प्रशासन, विकास योजनाओं मंे लूट की छूट, स्तरहीन शिक्षकों की बहाली सहित कई मुददों के बीच सुशासन का बिहार जकड़ता चला गया पर नीतीश कुमार को भनक तक नहीं लगी। एक के बाद एक अपने ही दल के ताकतवर नेताओं को शंट कर गणेश परिक्रमा करने वालों को आगे लाकर नीतीश कुमार ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। अच्छे बुरे का फर्क भुल गए और परिणाम आज बिहार उद्वेलित है। गुस्से से भरा हुआ।
जहां तक शिक्षकों का सवाल है तो नीतीश कुमार ने वैसे हाथों को रोटी दी जिनके घरों का चुल्हा दो सांझ नहीं जलता था। नीजी विद्यालयों मंे एक-दो हजार में पढ़ाने वालो को सात से आठ हजार वेतन दिया और अधिक की चाह में उनका गुस्सा कितना जायज है?
सेवा का अधिकार लागू हुआ पर अधिकारियों की निरंकुशता बाधक बन गई पर साठ से सत्तर प्रतिशत लोगो को समय पर उसका काम हेने लगा। सुपरवाईजर को बीडीओं बनाने की जातिवादी राजनीति उनके लिए ही खतरनाक साबित हो रही है। बीडीओ का पद जनता से सीधा जुड़ा होता है और सुपरवाइजरों को पांच पांच लेने की लत लगी थी सो यहां भी बरकरार रह गई।
इस सब के बीच लालू प्रसाद यादव बिहार का बिकल्प बनने के लिए परिवर्तन यात्री बन गए। गांव गांव जाकर जातिवादी अलख जागाने लगे। गुस्से को हवा देकर चिंगारी से आग बनने में जुट गए। पर शायद वे भुल गए कि उनके खुद के पास पिछले पांच-सात सालों में बदले बिहार के लिए कोई विजन नहीं है। वही हुर्र हुर्र की राजनीति। वही आरएसएस का पुराना आलापा। वहीं बंदरधुरकी। वही जाति वाद का विष बेल। न विकास की बातें, न मंहगाई से त्रस्त जनता के दर्द का एहसास। न बढ़े डीजल की परवाह न रसोई गैस की मंहगाई पर चिंता। न रोजगार की बातें और न ही शिक्षा और किसानों के बेहतरी की सोंच।
जिस बंशवाद ने बिहार को लूटा उसी की नींब फिर से नजर आने लगी। बीबी और साला से ईतर पुत्र को राजनीति लांउचिंग कर रहे है।
सो इतनी बिषमताओं के बीच लालू प्रसाद नीतीश कुमार का विकल्प नहीं बन सकते और समय रहते नीतीश कुमार ने सुधार कर लिया तो लालटेन की बुझी लै किस्से कहानियों की बातें ही रह जाएगी।
बिहार की राजनीति करवट ले रही है। खगड़िया में सीएम पर हुए पत्थराव के बाद एकबारगी पूरे देश को लगा जैसे बिहार में नीतीश कुमार का तिलिस्म खत्म हो गया। नीतीश कुमार नायक से खलनायक बन गए! लालू प्रसाद यादव को लगा जैसे बिलाय के भाग्य से छिंका टूट गया हो और वे जातिवाद का पूराना कार्ड खेलते हुए कहा-मैंने कभी नहीं कहा भूरा बाल साफ करो? (तो जरा यह भी बता दे कि किसने कहा था)
इस सबके बीच एक आम आदमी की तरह सोंचते समझते बेचैनी सी होने लगी है। यह सच है कि नीतीश कुमार ने जिस दलदल से बिहार को बाहर निकालने की लड़ाई लड़ी आज वह स्वयं उसी दलदल में फंस गए है। पर यह भी सच है कि आज का बिहार लालू प्रसाद यादव के द्वारा बेआबरू किए बिहार से बहुत आगे निकल, देश के नंबर एक राज्य की रेस में कजरी गाता हुआ आगे बढ़ रह है।
नीतीश कुमार के योगदान को बिहारी मानस एक बारगी भुला नहीं सकता। बदनाम बिहारी की गाली से उपर उठ कर बिहार अपने नवनिर्माण की कहानी गढ़ रहा है। बिहार में आज न सिर्फ अच्छी सड़के है बल्कि यहां की बेटियां घरों की चाहरदिवारी से बाहर निकल नई ईवारत लिख रही है। बिहार का महिला सशक्तिकरण देश के लिए प्रेरणा बना हुआ है। कानून के राज की कल्पना जमीन पर शनै शनै उतर रही है। किसानों के घरों में खुशहाली के बीज बोया जा रहा है। अब किसान के घर में परंपरागत धान की मोड़ी (बिचड़ा) नहीं मिलता बल्कि हाइब्रीड धान का बीज बिहार सरकार उपलब्ध कराती है। श्रीविधी की खेती किसान अपना रहे है। अस्पतालों में जानवरो की जगह मरीज नजर आते है, मेला लगा रहता है। डाक्टर भी छुपछुपा कर ही निजी क्लिनीक में रहते है। स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति भी बढ़ी है, खास कर महादलित बच्चों की। आज से पहले स्कूलों में महादलितों कें बच्चे पढ़ने के लिए नहीं जाते थे पर आज मेरे ही गांव में दो दर्जन महादलितों के बच्चे पढ़ाई कर रहे है। कई चीजें है जो बिहार में बहुत अच्छा हुआ है ठीक उसी तरह बहुत कुछ बुरा भी हुआ है।
बुराई की जो सबसे पहली बात है वह यह कि नीतीश कुमार को सच बोल सके ऐसा एक भी आदमी उनके साथ नहीं है। चटुकारिता उनकी पसंद हो गई तो चटुकार उनके चहेते। निंदक नियरे राखिए का परंपरा उन्होंने स्वयं खत्म कर दी और मीडिया तक पर निंदा को प्रतिबंधित कर दिया। परिणाम बुराईयों तक उनका ध्यान जाए तो कैस?
गली गली सरकारी शराब की बिक्री, होटलों और ढावों में अवैध शराब की खुलेआम बिक्री और उसके गिरफ्त मंे आते युवा, निरंकुश थानेदार और प्रशासन, विकास योजनाओं मंे लूट की छूट, स्तरहीन शिक्षकों की बहाली सहित कई मुददों के बीच सुशासन का बिहार जकड़ता चला गया पर नीतीश कुमार को भनक तक नहीं लगी। एक के बाद एक अपने ही दल के ताकतवर नेताओं को शंट कर गणेश परिक्रमा करने वालों को आगे लाकर नीतीश कुमार ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। अच्छे बुरे का फर्क भुल गए और परिणाम आज बिहार उद्वेलित है। गुस्से से भरा हुआ।
जहां तक शिक्षकों का सवाल है तो नीतीश कुमार ने वैसे हाथों को रोटी दी जिनके घरों का चुल्हा दो सांझ नहीं जलता था। नीजी विद्यालयों मंे एक-दो हजार में पढ़ाने वालो को सात से आठ हजार वेतन दिया और अधिक की चाह में उनका गुस्सा कितना जायज है?
सेवा का अधिकार लागू हुआ पर अधिकारियों की निरंकुशता बाधक बन गई पर साठ से सत्तर प्रतिशत लोगो को समय पर उसका काम हेने लगा। सुपरवाईजर को बीडीओं बनाने की जातिवादी राजनीति उनके लिए ही खतरनाक साबित हो रही है। बीडीओ का पद जनता से सीधा जुड़ा होता है और सुपरवाइजरों को पांच पांच लेने की लत लगी थी सो यहां भी बरकरार रह गई।
इस सब के बीच लालू प्रसाद यादव बिहार का बिकल्प बनने के लिए परिवर्तन यात्री बन गए। गांव गांव जाकर जातिवादी अलख जागाने लगे। गुस्से को हवा देकर चिंगारी से आग बनने में जुट गए। पर शायद वे भुल गए कि उनके खुद के पास पिछले पांच-सात सालों में बदले बिहार के लिए कोई विजन नहीं है। वही हुर्र हुर्र की राजनीति। वही आरएसएस का पुराना आलापा। वहीं बंदरधुरकी। वही जाति वाद का विष बेल। न विकास की बातें, न मंहगाई से त्रस्त जनता के दर्द का एहसास। न बढ़े डीजल की परवाह न रसोई गैस की मंहगाई पर चिंता। न रोजगार की बातें और न ही शिक्षा और किसानों के बेहतरी की सोंच।
जिस बंशवाद ने बिहार को लूटा उसी की नींब फिर से नजर आने लगी। बीबी और साला से ईतर पुत्र को राजनीति लांउचिंग कर रहे है।
सो इतनी बिषमताओं के बीच लालू प्रसाद नीतीश कुमार का विकल्प नहीं बन सकते और समय रहते नीतीश कुमार ने सुधार कर लिया तो लालटेन की बुझी लै किस्से कहानियों की बातें ही रह जाएगी।
सीएम पर पत्थराव... लालू की तो बाछें खिल गईं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
सही बात !
जवाब देंहटाएंबिना पहिये की कार से अच्छी ही होती होगी बैलगाडी़ चलेगी तो सही कुछ दूर ही सही !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनीतीश कुमार ने सुधार कर लिया तो लालटेन की बुझी लै किस्से कहानियों की बातें ही रह जाएगी।,,,,,अरूण आपने सही कहा,,,,,,
जवाब देंहटाएंRECECNT POST: हम देख न सके,,,