उर्वरक की कालाबाजारी एक गंभीर समस्या है। पिछले साल इसका बड़ा ही कड़बा अनुभव रहा है। जितनी बार खबर लगी, पदाधिकारी ने छापेमारी की उतनी ही बार उर्वरक का मुल्य और बढ़ गया। एक मित्र ने उस समय व्यंग किया - ‘‘क्या हुआ जितनी बार अधिकारी ने पैसा खाया, उतनी बार दाम को बढ़ा दिया गया। तुम्हीं मैनेज हो जाते तो क्या होता? खाली सुखले फुटानी से काम चलेगा।’’
अभी 280 का युरिया 370, 1000 का डीएपी 1600, 900 का एनपीके 1300 में बिक रहा है। सबकी चांदी है।
इस बार उर्वरक के थोक माफिया के द्वारा विज्ञापन देने का प्रलोभन दिया गया। मन भी डोल रहा है। असमंजस में हूं क्या करू? विज्ञापन ही हम जैसे छोटे रिर्पोटरों का मापदण्ड है।
सांप छुछुंदर का हाल है-निगलो तो अंधा, उगलो तो कोढ़ी....
अंत में किसान ही मारा जाता है,किसानो की उपज का मूल्य सरकार तय करती,और अन्य उत्पाद का मूल्य व्यापारी ,,,,
जवाब देंहटाएंrecent post: रूप संवारा नहीं,,,
विज्ञापन आप का नहीं, पुरे मीडिया के धुरंधरों का मापदंड है... संकोच कैसा.
जवाब देंहटाएंहे भगवान् !
जवाब देंहटाएंअब माफिया को भी खाद का ज़रुरत हो गया भारत में ..:)
माने कि खाद माफिया भी हैं ?
गज़ब !!!
बढियाँ है तभी तो फूलेंगे-फलेंगे ई लोग बाग़ ..