30 दिसंबर 2012

एक पत्रकार का अपहरण (आपबीती)-अन्तिम कड़ी।


दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंढ और रात भर खुले आसमान में मीलों चलने के बाद कैसी हालत होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। जिंदगी और मौत से जद्दोजहद में आज न आग प्यारी लग रही थी और न ही ठंढ सता रही थी। हमेशा दिमाग में तरह तरह के ख्याल आते रहते और यूं ही सोंचते हुए करीब एक धंटा बीता होगा तब जाकर दोनों मुखिया से लौट आए। आते ही दोनों साथियों को जगाया और अलग हटकर खुसुर फुसुर करने लगे। फिर सरदार ने आकर हमसे बात की। मैंने खर्राटे ले रहे मित्र को जगाया और सरदार की बोलने की टोन बदली हुई थी। वह हमदोनों को समझाने लगा। 
‘‘देख भाय, जे होलौ उ मनेजर के गफलत में, हमसब ओकरा उठावे बला हलियो पर एक नियर गाड़ी होला से गड़बड़ हो गेलो, सेकरासे अब जे होलो से होलो छोड़ तो देबौ पर पुलिस के चक्कर में मत फंसाईहें।’’
समझ गया कि छोड़ने का मन बना लिया है पर कहीं पुलिस के पास न चला जाउं इसलिए डर रहा है। मैं फिर उससे अत्मियता दिखाते हुए बतियाने लगा।
‘‘देखो दोस्त, हमरा ले तों भगवान हा और हम पुलिस के पास काहे जाइबै, तो की कैला हमरा।’’
मैं उसे विश्वास दिलाने लगा कि मैं पुलिस को उसके बारे में कुछ नहीं बताउंगा और न ही किसी प्रकार की उससे नाराजगी है। यह करते कराते काफी समय बीत गया। उसे हमदोनों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। फिर मैंने मनोज जी को टहोका और उन्हांेने ईसारा समझ उसे भरोसा दिलाने लगे कि जो हो हमलोग आपके साथ रहेगे।
फिर समय आया भरत मिलाप का। विदाई का वक्त ऐसा भारी पड़ा जैसे राम को जंगल छोड़ने के समय भरत पर भारी पड़ा हो। सचमुच हमसब भावुक हो गए थे। वे सब हमे छोड़ने वाले थे यह विश्वास हो गया था फिर भी हम यहां से जल्दी निकल जाना चाहते थे। अब समय था जुदा होने का और इस समय मैं भावनाओं को रोक नहीं सका। विश्वास ही नहीं हो रहा था हमलोग जिंदा घर जानेवाले है। मैं रोने लगा। फूट फूट कर रोने लगा। और फिर सरदार से लिपट गया। वह भी भावों में बह गया। रोने लगा। फिर मनोज जी भी भावुक हो गए। हमलोग बारी बारी सबसे गले मिल लिए। 
हमलोग वहां से जाने लगे। थोड़ी दूर बढ़ा ही था कि ‘‘रूको’’ की आवाज सुनाई दी। फिर से डर गया। हमलोग रूके तो सरदार ने आकर कहा कि उसके साथी आपके पैसे लेने के लिए कह रहे है। क्या करे वे लोग नहीं मान रहा। साला कमीना छोड़ने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ है। मैं तो यह नहीं कर सकता इसलिए जो जेब में थोड़ी बहुत हो तो दे देंगें तो उनलोगों को तसल्ली हो जाएगी।
फिर मनोज जी ने उपर की जेब से जो भी रखा था निकाल दे दिया। फिर उसने उनके घड़ी की तरफ ईसारा किया और उन्होने घड़ी  निकाल कर दे दिया। मैंने भी वहीं किया तो भी जेब में था दे दिया। मनोज जी के उपरी जेब में चार सौ और मेरे पास सौ रूपये थे। दोनों वहां से निकल गए। 
वहां से निकलने के बाद भी यकीं नहीं हो रहा था कि उन्हांेने हमें छोड़ दिया है। लगता रहा कि पीछे से आऐगें और गोली मार देगें। धुप्प अंधेरे में चलता जा रहा था। न रास्ते का पता चल रहा था, न किसी गांव का। रास्ते में कोई चीज खड़ी होती तो लगता वही लोग खड़े है।
खैर करीब एक धंटा चलने के बाद कुत्तों के भौंकने से यह आभास हो गया कि आसपास एक गांव है और हमलोग उधर ही चल दिए। कुछ दूर चलने के बाद एक गांव मिला। हमलोग घरों का दरबाज खटखटाने लगे पर किसी ने दरबाजा नहीं खोला। पूरा गांव घूम गया। अंत में एक दालान पर कुछ लोग पुआल बिछा कर बाहर ही सो रहे थे। हमलोगों ने जगाया। अब उनलोगों ने जब पूछा कि कहां घर है, कहां से आए हो तो अकबका गया। नवर्स तो थे ही कुछ बताना भी जरूरी था जिसपर उन्हें भरोसा हो जाए। बताया कि पटना से आ रहे थे रास्ते में नशाखुरानी का शिकार हो गया और फिर रेल से फेंक दिया गया और रात भर भटकते भटकते यहां पहूंच गया। रामा। ठंढ़ से देह थर्रथराने लगा। लगा जैसे रात भर की ठंढ अभी अभी सिमट आई है। पूरा देह बर्फ की सिल्ली की तरह जमने सा लगा था। दोनों वहीं पुआल पर बैठ गए। पैर में ठेहुंना तक कादो लगा हुआ था। लोगों ने पंडित जी कह कर घर वालों को जगाया। पंडित घर से निकले। गांव का नाम पूछा तो बताया गया, यह पटना जिले का बाढ़ थाना के अजगारा गांव है। बाढ़ का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। कुख्यात अपराधी सरगना अनन्त सिंह का ईलाका। यहां तो दिन में भी मार कर फेंक देगा और पता नहीं चलेगा। 
खैर, पंडित जी का पूरा परिवार जाग गया। बहुत अफसोस जताते हुए पंडित जी ने आश्रय दे दिया। ओढ़ने के लिए एक कंबल भी दे दी। रात के लगभग तीन बजे थे। अभी सुबह होने में दो तीन घंटे बाकी थे। पंडित जी की पत्नी ने चाय लाकर दिया और गर्म चाय ऐसे गले में उतर रही थी जैसे अमृत।
अजीब आफत है। रात भर नींद नहीं आई। लगता रहा कहीं से कोई आया और हमे पकड़ ले जाएगा। खैर, सुबह हो गई। बस पकड़ कर बाढ़ आ गया और फिर सबसे पहले घर पर टेलीफोन किया। जनता था सब परेशान होगें। फिर बाढ़ से बस पकड़ कर घर के लिए चल पड़ा। मनोज जी के पास पैसे थे। उन्होने बताया कि उनकी पिछली जेब में दो हजार रूपये थे जिसे उन्होने छुपा कर रखा था।
ओह, घर आया तो यहां का नजारा भी बदला बदला हुआ था। कई तरह की चर्चाऐं हो रही थी पर कुछ दिल को दुखाने वाली बातें भी सामने आई। मैं अपने घर गया। पत्नी का बुरा हाल था। मुझसे लिपट कर रोने लगी। फिर उसने जो बताया वह कलेजा चाक करने वाला था। उसने बताया कि जब उसे खबर मिली तो वह मनोज जी के डेरा जाकर जानना चाहा कि क्या हुआ तो उनकी पत्नी ने ऐसा व्यवहार किया जैसे उनका अपहरण मैने ही करबा दिया हो। 
देवा, कैसे कैसे दिन दिखाते हो। इस बीच कई बातों की जानकारी मिली। यह कि मेरा छोटा भाई बरूण को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने यह पता लगा लिया कि अपहरण करने वाला सरदार तोरा गांव का संजय यादव है। वह अपने साथियों के साथ संजय यादव के घर पर जा धमका और धमकाया। भैया को कुछ हुआ तो पूरे परिवार को खत्म कर देगें। फिर उसे वहां से छोड़ देने का आश्वासन मिला। और अन्त में दुख हुआ तो यह कि उस दिन के अखबार में एक कॉलम की खबर भर छपी थी पत्रकार का अपहरण। वह भी स्थानीय पत्रकार मित्रों के सहयोग से। अखबार के लिए यह और लोगों की तरह ही एक खबर भर थी। हाय रे। जिसे अपना समझ रहा था वही अपना नहीं।
खैर इस बीच साल दर साल बीतते गए और फिर बिहारशरीफ कोर्ट से नोटिस आया कि अपहरण कांड में गवाही देनी है। संजय यादव कई कंडों में पकड़ा गया था। दोनों ने जाकर गवाही दे दी कि संजय को नहीं जानता। अपना फर्ज निभाया। बहुत मंथन करता रहा कि गवाही दें की नहीं। पर संजय के व्यवहार और उससे किए गए वादों ने गवाही दिलबा दी।
वहीं पिछले चुनाव में संजय यादव पंचायत चुनाव में मुखिया के लिए चुनाव लड़ने की योजना बनाई और फिर अखबार में खबर छपी की सरमेरा में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई।
आज तीस तारीख है और इस बात को याद करते हुए जिंदगी कई रंग दिखा देती है। अपराधियों का सच और जिंदगी की हकीकत, सबकुछ....

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