31 अक्तूबर 2012

50 करोड़ की गर्लफ्रेंड.--उर्फ---कहो तो मैं भी हरामखोर हो जाउं...((व्यंग्य))


अरूण साथी
थरूर साहब ने जब से कहा है कि उनकी मोहतरमा 50 करोड़ से भी बेशकीमती है तब से मेरी मोहतरमा का पारा चढ़ा हुआ है।
नकारा! निकम्मा! कहां 50 करोड़ और कहां एक पत्ता टिकुली पर आफत। यही कहते रहे आजतक कि प्यार करते हो। झूठा कहीं का। जाओ, जाकर कुछ सीखो, प्यार-व्यार और कमाई-धमाई। निरा-नकारा, मुंआ पत्रकार बन कर बैठे हो। काम के न काज के, ढाई सेर अनाज के।
मोहतरमा को इतने गुस्से में मैंने कभी नहीं देखा, उलटे जब से मंत्री जी ने अपना अनुभव बधारते हुए कहा कि पुरानी बीबी मजा नहीं देती, तब से मैडम के होश फाख्ता थे। पता नहीं कौन से सुनामी के डर से सहमे रहती, गाय की तरह और आज अचानक थरूर साहब ने जुगाली क्या करी, मौडम सिंहनी बन गई।
गुस्सा तो मुझे भी बहुत आ रहा है ई मोदी साहब पर। भला बताईए तो, क्या जरूरत थी ततैया के छत्ते में हाथ डालने की। कहते है 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड देखा है? साहब हमलोग गरीब आदमी है। हमारे सात पुस्तों ने इतनी रकम नहीं देखी तो गर्लफ्रेंड कहां से देखंेगे। पिटबा दिया न एक गरीब बेचारे को। मोहतरमा सुगंधा को छू कर देखना चाह रहा था। कैसी होती है 50 करोड़वाली। लगा झापड़। चटाक। ऐसी ही होती है। डोन्ट टच। ओनली सी।
अब देखिए ई बुद्धू बक्से बाले बनिया सब को। मंगनी का माल करोड़ों में बेच देते है। 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड। गलथेथरी चालू। नारी जाति का अपमान। कौन समझाए। भैया कौन से ऐंगल से गर्लफ्रेंड कहने से नारी जाति का अपमान हो गया। यह तो फैशन का युग है और आप गरंटी की इच्छा कर रहे है।
उलटी करते है नेता और साफ करनी पड़ रही है मुझे। मैडम के गुस्से पर प्यार का वर्फ डालने लगा। देखिए मैडम ई नेता लोग के बात पर कान नहीं देने का। किसी के कहने भर से क्या होता है जब हमे मजा आ रहा है तो? और ई 50 करोड़ बाली बात पर तो ध्यान ही मत दो। ई सब हराम की कमाई का नतीजा है। कई कई होती है। अपनी तो बस तुम्ही काफी हो। या कहो तो मैं भी हरामखोर हो जाउं....

09 अक्तूबर 2012

रिमझिम बरसात .. और कादम्बिनी



आज रिमझिम बरसात हो रही है और ऐसे में गांधी जी को समर्पित कादम्बिनी के इस अंक को पढ़ने का मजा.... निश्चित ही कादम्बिनी का यह अंक पठनीय और संग्रहणीय है।  


08 अक्तूबर 2012

जितिया, तीज और करवाचौथ, महिलाओं को गुलाम रखने के उपाय..


पोंगा-पंडित और पोथा सब बकबास है, इनको आग के हवाले करने के बाद ही स्वस्थ समाज का निर्माण किया जा सकता है। अब देखिए, आज जितिया पर महिलाओं का उपवास है और इसके लिए परंपरागत तरीके से सुबह चार बजे महिलाऐं कुछ नास्ता करके चौबीस घंटे का उपवास करती थी पर इस बर पांेगा महराज का फरमान आ गया कि रविवार को शाम 8 बजे तक ही कुछ खा सकती है। भला बताइए 36 घंटा निर्जला उपवास? 
जितिया, तीज, करमा, करवाचौथ, ऐ सारे के सारे औरतों की गुलाम मानसिकता का प्रतीक है।
मेरी समझ से यह पुरूषों के द्वारा महिलाओं को मानसीक रूप से गुलाम रखने का यह तरीका है। जितिया बेटा के लिए, तीज और करवा चौथ पति के लिए, करमा भाई के लिए, सारा उपवास पुरूषों के लिए? महिलाओं के लिए पुरूष कौन सा उपवास करते है?
हलांकि पुरूषों के द्वारा महिलाओं गुलाम की कई जंजीर भी पहनाई गई है जिसमें सिंदूर, मंगलसुत्र, चुड़ी आदि आदि....। पुरूष शादीशुदा होने पर कुछ क्यों नहीं पहनता? हद तो यह कि महिलाओं की मनसिकता इसको लेकर इतनी पवित्र है जितनी भगवान को लेकर...।

इस तरह के पर्व को लेकर पहले मां से झगड़ता था अब बीबी से झगड़ता हूं। हद हाल है। चौबीस चौबीस घंटे निर्जला उपवास। चलो यह तर्क भी ठीक है कि सेहत के लिहाज से उपवास ठीक होता है पर बिमार लोगों के लिए? चाहे प्राण क्यों न चली जाए, उपवास तो करनी ही है। एक साल से बीबी को डायबटीज है पर जब उपवास की बात आती है तो अड़ जाती है, सीधा, करेगें। हलांकि इस बार आज सुबह चार बजे लड़-झगड़ कर  नास्ता तो करा दिया पर उपवास खत्म नहीं करा सका हूं..।


05 अक्तूबर 2012

बदले बिहार का बिकल्प नहीं हो सकते लालू प्रसाद यादव।

अरूण साथी
बिहार की राजनीति करवट ले रही है। खगड़िया में सीएम पर हुए पत्थराव के बाद एकबारगी पूरे देश को लगा जैसे बिहार में नीतीश कुमार का तिलिस्म खत्म हो गया। नीतीश कुमार नायक से खलनायक बन गए! लालू प्रसाद यादव को लगा जैसे बिलाय के भाग्य से छिंका टूट गया हो और वे जातिवाद का पूराना कार्ड खेलते हुए कहा-मैंने कभी नहीं कहा भूरा बाल साफ करो? (तो जरा यह भी बता दे कि किसने कहा था)
    इस सबके बीच एक आम आदमी की तरह सोंचते समझते बेचैनी सी होने लगी है। यह सच है कि नीतीश कुमार ने जिस दलदल से बिहार को बाहर निकालने की लड़ाई लड़ी आज वह स्वयं उसी दलदल में फंस गए है। पर यह भी सच है कि आज का बिहार लालू प्रसाद यादव के द्वारा बेआबरू किए बिहार से बहुत आगे निकल, देश के नंबर एक राज्य की रेस में कजरी गाता हुआ आगे बढ़ रह है।
    नीतीश कुमार के योगदान को बिहारी मानस एक बारगी भुला नहीं सकता। बदनाम बिहारी की गाली से उपर उठ कर बिहार अपने नवनिर्माण की कहानी गढ़ रहा है। बिहार में आज न सिर्फ अच्छी सड़के है बल्कि यहां की बेटियां घरों की चाहरदिवारी से बाहर निकल नई ईवारत लिख रही है। बिहार का महिला सशक्तिकरण देश के लिए प्रेरणा बना हुआ है। कानून के राज की कल्पना जमीन पर शनै शनै उतर रही है। किसानों के घरों में खुशहाली के बीज बोया जा रहा है। अब किसान के घर में परंपरागत धान की मोड़ी (बिचड़ा) नहीं मिलता बल्कि हाइब्रीड धान का बीज बिहार सरकार उपलब्ध कराती है। श्रीविधी की खेती किसान अपना रहे है। अस्पतालों में जानवरो की जगह मरीज नजर आते है, मेला लगा रहता है। डाक्टर भी छुपछुपा कर ही निजी क्लिनीक में रहते है। स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति भी बढ़ी है, खास कर महादलित बच्चों की। आज से पहले स्कूलों में महादलितों कें बच्चे पढ़ने के लिए नहीं जाते थे पर आज मेरे ही गांव में दो दर्जन महादलितों के बच्चे पढ़ाई कर रहे है। कई चीजें है जो बिहार में बहुत अच्छा हुआ है ठीक उसी तरह बहुत कुछ बुरा भी हुआ है।
    बुराई की जो सबसे पहली बात है वह यह कि नीतीश कुमार को सच बोल सके ऐसा एक भी आदमी उनके साथ नहीं है। चटुकारिता उनकी पसंद हो गई तो चटुकार उनके चहेते। निंदक नियरे राखिए का परंपरा उन्होंने स्वयं खत्म कर दी और मीडिया तक पर निंदा को प्रतिबंधित कर दिया। परिणाम बुराईयों तक उनका ध्यान जाए तो कैस?
    गली गली सरकारी शराब की बिक्री, होटलों और ढावों में अवैध शराब की खुलेआम बिक्री और उसके गिरफ्त मंे आते युवा, निरंकुश थानेदार और प्रशासन, विकास योजनाओं मंे लूट की छूट, स्तरहीन शिक्षकों की बहाली सहित कई मुददों के बीच सुशासन का बिहार जकड़ता चला गया पर नीतीश कुमार को भनक तक नहीं लगी। एक के बाद एक अपने ही दल के ताकतवर नेताओं को शंट कर गणेश परिक्रमा करने वालों को आगे लाकर नीतीश कुमार ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। अच्छे बुरे का फर्क भुल गए और परिणाम आज बिहार उद्वेलित है। गुस्से से भरा हुआ।
    जहां तक शिक्षकों का सवाल है तो नीतीश कुमार ने वैसे हाथों को रोटी दी जिनके घरों का चुल्हा दो सांझ नहीं जलता था। नीजी विद्यालयों मंे एक-दो हजार में पढ़ाने वालो को सात से आठ हजार वेतन दिया और अधिक की चाह में उनका गुस्सा कितना जायज है?
    सेवा का अधिकार लागू हुआ पर अधिकारियों की निरंकुशता बाधक बन गई पर साठ से सत्तर प्रतिशत लोगो को समय पर उसका काम हेने लगा। सुपरवाईजर को बीडीओं बनाने की जातिवादी राजनीति उनके लिए ही खतरनाक साबित हो रही है। बीडीओ का पद जनता से सीधा जुड़ा होता है और सुपरवाइजरों को पांच पांच लेने की लत लगी थी सो यहां भी बरकरार रह गई।
    इस सब के बीच लालू प्रसाद यादव बिहार का बिकल्प बनने के लिए परिवर्तन यात्री बन गए। गांव गांव जाकर जातिवादी अलख जागाने लगे। गुस्से को हवा देकर चिंगारी से आग बनने में जुट गए। पर शायद वे भुल गए कि उनके खुद के पास पिछले पांच-सात सालों में बदले बिहार के लिए कोई विजन नहीं है। वही हुर्र हुर्र की राजनीति। वही आरएसएस का पुराना आलापा। वहीं बंदरधुरकी। वही जाति वाद का विष बेल। न विकास की बातें, न मंहगाई से त्रस्त जनता के दर्द का एहसास। न बढ़े डीजल की परवाह न रसोई गैस की मंहगाई पर चिंता। न रोजगार की बातें और न ही शिक्षा और किसानों के बेहतरी की सोंच।
    जिस बंशवाद ने बिहार को लूटा उसी की नींब फिर से नजर आने लगी। बीबी और साला से ईतर पुत्र को राजनीति लांउचिंग कर रहे है।

    सो इतनी बिषमताओं के बीच लालू प्रसाद नीतीश कुमार का विकल्प नहीं बन सकते और समय रहते नीतीश कुमार ने सुधार कर लिया तो लालटेन की बुझी लै किस्से कहानियों की बातें ही रह जाएगी।