अरूण साथी
अभी कुछ ही महीने पहले तक नीतीश कुमार वैसे नायक की तरह उभरे थे जिन्होंने जंगलराज को सुशासन में बदल दिया था। देश ही नहीं दुनिया भर में इसकी चर्चा हो रही थी और बिहार का आम आवाम चैन से रहने लगा था। विपक्ष के पास कोई मुद्दा ही नहीं था सरकार को घेरने का। पर एक ही झटके में छद्म धर्मनिरपेक्षिता का ऐसा भूत नीतीश कुमार के सर पर सवार हुआ कि वे आवाम की नजरों में खलनायक हो गए।
राजनीति में अतिमहत्वाकांझी होने में कोई बुराई नहीं है क्यों राजनीति करने वालों को हमेशा से यही सिखाई जाती है पर नीतीश कुमार को बिहार के जनमानस को भांप कर कदम उठाना चाहिए था।
इससे पुर्व भी बिहार में रामविलास पासवान और लालू प्रसाद ने छद्म धर्मनिरपेक्षिता का स्वांग रचा था। रामविलास ने कुछ माह बचे होने पर केन्द्रिय मंत्रीमंडल से गोधरा कांड को लेकर इस्तीफा दे दिया और लालू प्रसाद ने आडवानी का रथ रोका और उन्हें गिरफ्तार किया। इतना ही नहीं लालू प्रसाद ने पोथी-पतरा जलाने का काम किया और पंडितों को अपमानित किया। सबक जनता ने सिखाया। आज दोनों राजनीति के हासिये पर चले गए।
वही लालू प्रसाद आज पूजा-पाठ से लेकर मंदिरों में माथा टेकते फिर रहे है! मेरा कहने का मतलब यह कि धर्मनिरपेक्षिता का मतलब मुस्लमानों के तुष्टीकरण के लिए स्वांग करना नहीं होता? धर्मनिरपेक्षिता का मतलब सभी धर्मों के प्रति निरपेक्षता से होता है न कि मुस्लिम धर्म के प्रति सापेक्षिता से।
आज पूरे देश की राजनीति मुस्लमानों के तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के इर्द गिर्द घूम रहा है। अखिलेश सरकार पुलिस के द्वारा जान पर खेल कर पकड़े गए कई आतंकवादियों से मुकदमा उठाने की राजनीति करते है तो कांग्रेस जम्मू कश्मीर में मारे गए आतंकियों के परिजनों को मुआवजा देने की ऐलान करती है। मतलब देश से बड़ा वोट बैंक हो गया....
इन सबसे एक कदम आगे बढ़ कर नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी का विरोध कर दिया। वह भी तब जब दंगे कराने के आरोपी मोदी को केन्द्र की एसआईटी ने बरी कर दिया और कोर्ट ने अभी तक दोषी नहीं माना है। और कानूनी पचड़े अलग भी जब गुजरात में दंगा हुआ तो नीतीश कुमार केन्द्र में मंत्री बने रहे। मोदी के साथ इनके अच्छे संबंध जगजाहीर है। फिर एकाएक प्रधानमंत्री बनने की अतिमहत्वाकांक्षा ने सब गुंड़ गोबर कर दिया और अंजाम के तौर पर विकास की राह पर चल पड़े बिहार की गाड़ी को ब्रेक लग गया। सत्तरह साल पुराना गठबंधन टूट गया। कल तक जनता की मार से पस्त पड़े लालू प्रसाद दहाड़ने लगे। सरकार के विरोधी जश्न मनाने लगे है और यह सब वोट बैंक की राजनीति और मुस्लमानों के तुष्टीकरण के लिए किया गया जो की दुखद है।
गुजरात में जो हुआ वह निश्चित ही दुर्भाग्यपुर्ण था पर इस पर जो राजनीति हो रही है वह भी कम दुर्भाग्यपुर्ण नहीं। दंगे में चाहे जो भी मरे वह हिन्दु हो या मुस्लमान पहले इंसान है। गोधरा में रेलयात्रियों के जलाने पर खामोशी और गुजरात के दंगों पर हाय तौबा....बहुत सालती है। और फिर नरेन्द्र मोदी ही अकेल खलनायक कैसे? पिछले कुछ माह पुर्व युपी में लगातार दंगे हुए है जिसे मीडिया ने भी दबा कर रखा, वह क्या था? और अभी हाल में ही आसाम में हुए दंगे पर खामोशी क्यों? क्या कांग्रेसनित सरकार को दंगा कराने का लाइसेंस है? बात यह कि मुस्लमानों के तुष्टीकरण के नाम पर दोगली राजनीति से देश का भला नहीं होगा। यदि गुजरात में मुस्लमान आज नरेन्द्र मोदी को वोट दे रहे है तो जरा उनसे भी तो कोई पूछे?
इतने सालों के बाद गुजरात दंगे का परत दर परत खुलता भी गया है। जाकिया जाफरी, सितलबाड़ सहित कई अन्य इस राजनीति खेल में नंगे हुए है।
आज देश की जनता कांग्रेसनित सरकार के त्रास से त्राण चाहती है और मोदी एक चेहरा के तौर पर उभरे जहां एक उम्मीद दिखी और बस इसलिए देश नमो नमो करने लगा और नीतीश कुमार सौतनिया डाह की तरह जल-भुंज कर ओलहन-परतर देकर कलह शुरू कर दिया। देहाती कहावत भी है घर फूटे गंवार लूट, तब लूटने वाला जश्न मना रहा है और लूटाने वाले को इसका एहसास नहीं...
राजनीति में फायदे के लिए सब जायज है,,,लेकिन उसका फायदा मिले या नही ये अलग बात है,,,
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