20 अगस्त 2013

सूखे खेतों को देख सोंच रहा हूं कि आजादी के 67 साल बाद भी किसानों के लिए कोई जमीनी योजना क्यों नहीं है?


     सावन की पुर्णिमा हो गई और धान की खेती करने वाले किसान उदास। खेतों में दरारे फटी हुई है और हजारों खर्च कर तैयार बिचड़ा जानवरों का हरा चारा बन रहा है। आसमान की ओर टकटकी लगाए किसान महीनों बारिस का इंतजार करते रहे पर न तो बारिस आई और न ही नदियों में पानी। मेरे शेखपुरा जिले के आसपास के कई जिले इस बार सुखाड़ की चपेट में है और आजादी के 67 साल बाद भी किसानों को लेकर वही वातानुकुलित ऑफिस में बैठ कर कानून बनाने का सिलसिला जारी है।
मैं दुनिया जहान की बातें नहीं करूगा, अपनी बात करूंगा। आज सूखा क्षेत्र घोषित करने के लिए किसान की आवाज तक उठाने वाला कोई नहीं है। मेरे जैसे छोटे किसान ने आठ हजार खर्च किए बिचड़े गिराने में पर मौसम की मार ने बस बेकार कर दिया। 
कविवार घाघ कह गए कि-
‘‘सावन माह बहे पुरबईया।
बेचे बरदा, खरदो गैया।।’’
कि यदि सावन माह में पुरबईया हवा बहती है तो किसान बैल को बेच कर गाय खरीद ले क्योंकि तब धान होने की उम्मीद नहीं रहती है। इस साल ऐसा ही हुआ है। पूरे सावन पुरबईया बयार चलती रही। खंधा का खंधा परीत रह गया। 
पर ऐसा हुआ क्यों? क्योंकि आज भी हम सिंचाई के लिए मौसम पर निर्भर है। हमारे पास अपना कोई साधन नहीं है। इसके लिए पूरी की पूरी व्यवस्था जिम्मेवार है। हमारे यहां आज भी आजादी के आसपास में बने नलकूप ही है जो इस बात को तस्दीक करते है कि उस समय की सरकरों ने मूल चीज को सुधारने पर ध्यान दिया था पर आज 95 प्रतिशत नलकूप बेकार है। हां, फाइलों पर सभी चल रहे है। यदि आज नलकूप सही होते तो धान के खेतों में भी हरियाली होती जबकि इस मद में प्रतिवर्ष अरबों खर्च हो रहे है।

वहीं एक बड़ी समस्या यह है कि आज जो धान का बिचड़ा हम खेतों में डाल रहे है वह हाइब्रीड है जिसका परिणाम यह एक माह का बिचड़ा हो जाने के बाद वह खेत में लगाने लायक ही नहीं रहता जबकि पुराने समय में धान के बिचड़े को एक माह बाद भी खेतों में रोपा जाता था। आज वह मूल धान जिसमें मेरे यहां सीता, मंसूरी, कनक, सोनम, बासमती सहित अनेक बेराइटी थी, सब बिलुप्त हो गई। सरकार और कृषि बैज्ञानिकों ने हाईब्रिड धान की वैज्ञानिक खेती पर बल दिया जिससे आज मूल धान का बिचड़ा किसी किसान के पास नहीं मिलता या कम मिलता है। अब यदि बड़ी बड़ी कंपनियां हाईब्रिड धान का बिचड़ा देना बंद कर दे तो क्या होगा?

इसी तरह सुखाड़ को देखते हुए सरकार ने महज डीजल अनुदान देने की घोषणा करी है जो कि उंट के मुंह में जीरा का फोरन है। वह भी जो किसान ब्लॉक आना जाना करते है उन्हें ही मिलेगा। 

कुल मिलाकर यह कि आजादी के इतने सालों बाद भी हम केवल यह कहने को ही कहते है कि भारत कृषि प्रधान देश है और सत्तर प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है पर उन सत्तर प्रतिशत किसानों के लिए कोई भी योजना जमीन पर नहीं है और हमारे जैसे किसान सोंच रहे है कि इतनी मंहगाई में चावल खरीद कर खाना कैसे सम्भव हो सकेगा या कि जब कोई किसान आत्महत्या करेगा तब उसके दर्द को केवल मीडिया बेचेगी.....

1 टिप्पणी:

  1. मै स्वयं किसान हूँ,कितनी परेशानी उठानी पड़ती है,मै उस दर्द को समझ सकता हूँ,अगर यही स्थिति बनी रही तो किसान अपनी जमीन बेचकर रोजगार शुरू कर देगा,या खेती करना बंद कर देगा,,,

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