(केजरीवाल को समर्पित)
अमावस की रात
धुप्प अंधेरी
हाथ को हाथ नहीं दिखता
वैसे में
एक भगजोगनी
सूरज से कम नहीं लगती....
टिमिर टिमिर जलकर
वह दिखाती है राह...
----------------------
पर जब वह
आहिस्ते से आकर
बैठती है देह पर
तो चटाक से हम उसे
कुचल देना चाहते है....
आखिर है तो वह
एक कीड़ा-मकोड़ा ही न...
अमावस की रात
धुप्प अंधेरी
हाथ को हाथ नहीं दिखता
वैसे में
एक भगजोगनी
सूरज से कम नहीं लगती....
टिमिर टिमिर जलकर
वह दिखाती है राह...
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पर जब वह
आहिस्ते से आकर
बैठती है देह पर
तो चटाक से हम उसे
कुचल देना चाहते है....
आखिर है तो वह
एक कीड़ा-मकोड़ा ही न...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (29-04-2014) को "संघर्ष अब भी जारी" (चर्चा मंच-1597) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सारगर्भित रचना ....
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