
विवेकानंद अभी परिपक्व नहीं हुए थे। वे अब तक पूरे संन्यासी न हुए थे। यदि वे पूरे संन्यासी होते, यदि तटस्थता बनी रहती तो, फिर कोई समस्या ही न रहती। लेकिन वे अभी भी तटस्थ नहीं थे। वे अब तक उतने गहरे नहीं उतरे थे पतंजलि में। युवा थे। और बहुत दमनात्मक व्यक्ति थे। अपनी कामवासना और हर चीज दबा रहे थे। जब उन्होंने वेश्याओं को देखा तो बस उन्होंने अपना कमरा बंद कर लिया। और बाहर आते ही न थे।
महाराजा आया और उसने क्षमा चाही उनसे। वे बोले, हम जानते ही न थे। इससे पहले हमने किसी संन्यासी के लिए उत्सव आयोजित नहीं किया था। हम हमेशा राजाओं का अतिथि-सत्कार करते है। इसलिए हमें राजाओं के ढंग ही मालूम है। हमें अफसोस है, पर अब तो यह बहुत अपमानजनक बात हो जायेगी। क्योंकि यह सबसे बड़ी वेश्या है इस देश की। और बहुत महंगी है। और हमने इसे इसको रूपया दे दिया है। उसे यहां से हटने को और चले जाने को कहना तो अपमानजनक होगा। और अगर आप नहीं आते तो वह बहुत ज्यादा चोट महसूस करेगी। इसलिए बाहर आयें।
किंतु विवेकानंद भयभीत थे बाहर आने में। इसीलिए मैं कहता हूं कि तब तक अप्रौढ़ थे। तब तक भी पक्के संन्यासी नहीं हुए थे। अभी भी तटस्थता मौजूद थी। मात्र निंदा थी। एक वेश्या? वे बहुत क्रोध में थे, और वे बोले,नहीं। फिर वेश्या ने गाना शुरू कर दिया। उनके आये बिना। और उसने गया एक संन्यासी का गीत। गीत बहुत सुंदर था। गीत कहता है: मुझे मालूम है कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्यादा करूणामय हो सकते थे। मैं राह की धूल सही; यह मालूम मैं मुझे। लेकिन तुम्हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्मक नहीं होना चाहिए। मैं कुछ नहीं हूं। मैं कुछ नहीं हूं। मैं अज्ञानी हूं। एक पापी हूं। पर तुम तो पवित्र आत्मा हो। तो क्यों मुझसे भयभीत हो तुम?
कहते है, विवेकानंद ने अपने कमरे में सुना। वह वेश्या रो रही थी। और गा रही थी। और उन्होंने अनुभव किया-उस पूरी स्थिति का। उन्होंने तब अपनी और देखा कि वे क्या कर रहे है? बात अप्रौढ़ थी, बचकानी थी। क्यों हों वे भयभीत? यदि तुम आकर्षित होते हो तो ही भय होता है। तुम केवल तभी स्त्री से भयभीत होओगे। यदि तुम स्त्री के आकर्षण में बंधे हो। यदि तुम आकर्षित नहीं हो तो भय तिरोहित हो जाता है। भय है क्या? तटस्थता आती है बिना किसी विरोधात्मकता के।
वे स्वयं को रोक ने सके, इसलिए उन्होंने खोल दिये थे द्वार। वे पराजित हुए थे एक वेश्या से। वेश्या विजयी हुई थी; उन्हें बाहर आना ही पडा। वे आये और बैठ गये। बाद में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा, ईश्वर द्वारा एक नया प्रकाश दिया गया है मुझे। भयभीत था मैं। जरूर कोई लालसा रही होगी। मेरे भीतर। इसीलिए भयभीत हुआ मैं। किंतु उस स्त्री ने मुझे पूरी तरह से पराजित कर दिया था। और मैंने कभी नहीं देखी ऐसी विशुद्ध आत्मा। वे अश्रु इतने निर्दोष थे। और वह नृत्य गान इतना पावन था कि मैं चूक गया होता। और उसके समीप बैठे हुए, पहली बार मैं सजग हो आया था। कि बात उसकी नहीं है जो बाहर होता है। महत्व इस बात का है जो हमारे भीतर होता है।
उस रात उन्होंने लखा अपनी डायरी मैं; “अब मैं उस स्त्री के साथ बिस्तर में सो भी सकता था। और कोई भय न होता।” वे उसके पार जा चूके थे। उस वेश्या ने उन्हें मदद दी पार जाने में। यह एक अद्भुत घटना थी। रामकृष्ण न कर सके मदद, लेकिन एक वेश्या ने कर दी मदद।
अत: कोई नहीं जानता कहां से आयेगी। कोई नहीं जानता क्या है बुरा? और क्या है अच्छा? कौन कर सकता है निश्चित? मन दुर्बल है और निस्सहाय है। इसलिए कोई दृष्टि कोण तय मत कर लेना। यही है अर्थ तटस्थ होने का।
– ओशो
[पतंजलि: योग सूत्र भाग—1]
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