रंडीबाज
(लघुकथा, एक कल्पकनिक कथा। इस कहानी से किसी व्यक्ति या संस्था को कोई संबंध नहीं है)
चैत के महीने में अमूमन बहुत अधिक गर्मी नहीं होती थी पर इस साल चैत ने आते ही चेतावनी दे दी कि यह साल बहुत अधिक गर्म रहेगा। चैत के इसी भीषण गर्मी के बीच बाइक ने पेट्रोल खत्म होने की सूचना दी तब भरी दोपहरी में ही पेट्रोल पंप पर पेट्रोल लेने के लिए चला गया। पेट्रोल लेने के बाद पेशाब करने इच्छा हुई और मैं शौचालय की तरफ बढ़ गया। अभी कार्यालय से होकर गुजर ही रहा था की स्तब्ध रह गया।
आंखों को अमूमन छोटे से शहर में इस तरह के नजारे देखने की उम्मीद कतई नहीं थी! फिर भी आंखों को मींच कर नजारे की सत्यता की पुष्टि करने के लिए फिर से देखा, तस्वीर साफ हो गई। पंप का मैनेजर, जिनकी उम्र साठ से पैंसठ वर्ष के बीच होगी, अर्ध नग्न अवस्था में था और उसी आस्था में एक बीस-बाईस साल की महिला भी नजर आयी। स्वभावबस उस कामरत तस्वीर को देखकर पैरों ने पीछे का रास्ता ले लिया। सर झुक गया और मैं अपनी बाइक पर आ गया। इतनी ही देर में शायद मैनेजर की भी नजर मुझ पर पड़ चुकी थी। वह आनन-फानन कमरे से बाहर निकला। अर्ध नग्न ही था। कुछ ही देर में इसी अवस्था में महिला भी निकल गई। पेट्रोल देने वाले कर्मचारी से मैंने पूछ लिया-
"यह सब क्या हो रहा है, दिनदहाड़े! जरा सा भी शर्म-हया नहीं है।"
वह कर्मचारी भी लगता है गुस्से से भरा हुआ था। भड़क उठा।
"की करभो! रंडीबाज है। पकिया रंडीबाज। आगल-पागल केकरो नैय छोड़ो हइ! बेटा घर से भगा देलकै! तोर समाज अइसने हो। ढंकल-छुपल पाप, पाप नइ होबो हइ!"
मैं समझ गया। मेरे अंदर का पत्रकार क्रोध से भर उठा और लगा कि इस घटना को उजागर कर दें। जैसे ही वह महिला बगल से गुजरने लगी मैंने कैमरे में उसकी तस्वीर कैद करनी चाही। हड़बड़ाहट में महिला बगल से गुजर गई। मैंने आगे जाकर तस्वीर लेने का मन बनाया पर फिर उसकी हालत देख कैमरा ऑन नहीं कर सका।
महिला लगभग अर्धनग्न अवस्था में ही हड़बड़ाकर कमरे से बाहर निकल गई थी। उसके ब्लाउज खुले हुए थे पर अपनी साड़ी के आंचल से उसने अपना तन ढंक लिया था। वह एक साधारण महिला थी जिसको देखते ही करुणा का भाव जग जाए। बेबस और लाचार। साड़ी के नाम पे चिथड़ा था। पैर में चप्पल नहीं। बालों में कंघी तक नहीं किया हुआ।
खैर, इसी तरह वह महिला आगे-आगे जा रही थी और मैं अपनी बाइक से उसके पीछे-पीछे जा रहा था। महिला अपने हाथों में कुछ छुपा रखी थी। उसके दोनों मुट्ठी बंद थे। रास्ते भर वह अपनी छाती को छुपाने का प्रयास करती बढ़ती रही।
उसने मुड़कर मुझे देखा। मैंने भी उसको देखो। उसकी आंखों में एक अजीब सी बेचारगी थी। लगा की वह वह रो देगी। फिर भी मैं गुस्से से भरा हुआ था।
कुछ दूर तक पीछा करने के बाद वह महिला बस स्टैंड के एक साधारण से होटल के पास जाकर रुक गई। वहां दो छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। एक की उम्र पांच साल और दूसरे की तीन साल होगी। वहां पर पहुंचते ही दोनों बच्चे महिला से लिपट गए।
महिला ने बंद मुट्ठी को खोला और दोनों बच्चों को मुट्ठी में छुपाया हुआ सामान दे दिया। तब तक मैं थोड़ा नजदीक आ गया था। देखा कि महिला के हाथ में दस-दस के कुछ नोट थे। वह नोट मिलते ही बच्चों के खुशी का ठिकाना नहीं रहा। बड़े बच्चे ने तत्काल बिस्कुट का एक पैकेट खरीद लाया और वह अबोध भाव से बिस्कुट का आनंद लेने लगा। महिला लगातार मुझको देख रही थी। उसकी आंखों में तिरस्कार था। घृणा थी। क्रोध था। उसकी आंखें बोल रही थी-
"मैं तो एक लाश हूँ! जिंदा लाश! मेरे पीछे क्यों हो, जाओ उस मैनेजर के पीछे। पर नहीं, वह सभ्य समाज है। धनी है। उसका पाप, पाप कभी नहीं होता! पाप का तो गरीबी से ही रिश्तेदारी है! पाप गरीब के माथे ही सजेगा! थू है वैसे समाज को! थू है !!"
तभी बगल में एक परछाई सी आकर खड़ी हो गई। मैं सहम गया। परंतु वह परछाई अट्टहास करने लगी। उसकी हंसी डरावनी थी। वह बोल भी रही थी।
"मैं भूख हूँ, मैं भूख हूँ, ना मैं पुण्य हूँ, ना मैं पाप हूँ, बस भूख हूँ, भूख हूँ, भूख हूँ...." और मैं कैमरा बैग में रख, शर्मिंदगी का बोझ उठाये चुपचाप वहाँ से आगे बढ़ गया।
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