ठाकुर का कुआं विवाद और वामपंथी विधायक का सहयोग
3 दिन पूर्व आरा के तरारी से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी के दूसरी बार विधायक सुदामा प्रसाद मिलने पहुंचे। वे पार्टी के कार्यक्रम में आए हुए थे। इस बीच वे मिलने के लिए आए । तीन, चार घंटे का साथ रहा। उनका स्वागत सम्मान किया । नब्बे के दशक में छात्र संगठन आइसा के जिला अध्यक्ष होते हुए इनका सानिध्य मिला और वामपंथी के प्रति रुझान हुई।
उनकी सहजता, मृदु भाषी होना और इनका अपनापन किसी को भी कायल बना लेता है।
मैं और ग्रामीण मिथिलेश मिट्ठू उनके सानिध्य में कई साल जिले में रहकर वामपंथी को मजबूत करने का काम किया था । आज यह विधायक है। बहुत ही अभाव में जीवन जी कर विधायक बने हैं । परंतु बनने के बाद किसी तरह का अहंकार दिशा इन पर हावी नहीं हो सका। बातचीत के लंबे दौड़ के बाद हम लोग खाने के लिए मधुबन होटल के लिए जब निकले तो उन्होंने अपनी गाड़ी की अगली सीट पर मुझे बिठाया और खुद मिट्ठू की गाड़ी पर जाकर बैठ गए। इतना सहज..!!
यह बताते हैं कि तीन चार लाख रुपये चंदा कर वे विधायक बन जाते हैं जो आज की राजनीति में मील का पत्थर है। ज्यादातर वामपंथी आज भी राजनीति में इसी तरह के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
खैर, आज बात राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद के ठाकुर का कुआं विवाद पर।
सामंतवादी प्रवृत्ति के लोगों ने निश्चित रूप से भेदभाव और छुआछूत रखा , परंतु अब इसका परिवर्तित रूप दूसरे तरह से भी सामने आने लगा है। वामपंथ का वर्ग संघर्ष की विचारधारा अब जातीय संघर्ष के रूप में है। जय भीम का नारा इस छुआछूत का विपरीतार्थक और उग्रवाद रूप में सामने आया है।
इस बीच ठाकुरों और ब्राह्मणों के बीच विवाद गहरा गया है और सोशल मीडिया पर कई जगह अपमानजनक बातें हो रही हैं । नेता इसे हवा दे रहे। इनमें अभी जेल से छुटकारा आए आनंद मोहन का नाम प्रमुखता से है। लालू प्रसाद यादव के राज्य में बिहार पीपुल्स पार्टी के माध्यम से इसी आनंद मोहन की स्वर्ण राजनीति का छलावा लोगों को आज भी याद है।
वैसे में सुदामा प्रसाद ने पिछली बैठकी में सहजतापूर्वक कई बातें बताई जिनका उल्लेख करना आज के समय में आवश्यक है क्योंकि समाज को बांटने वाले, समाज में सकारात्मक बातों को दबाकर नकारात्मक बातों को ही आगे रखते हैं।
अपनी बातचीत में सुदामा प्रसाद ने बताया कि बरबीघा में रहते हुए भूमिहारों के सानिध्य में रहकर उन्होंने वामपंथी का आंदोलन चलाया और कैसे-कैसे संघर्ष में लोगों का साथ मिला । मुझे तो याद नहीं था परंतु उन्होंने ही याद दिलाया कि पटना जब वह जाते थे तो हम लोग चंदा करके सौ– डेढ़ सौ रुपया उनको भाड़ा और रास्ते का खर्च देते थे। यह बात उन्हें आज भी याद है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि कटिहार के रेलवे प्लेटफार्म पर बुक स्टॉल चलने वाले सुधीर राय भी भूमिहार समाज के थे और उन्होंने वामपंथ की लड़ाई में उनके जबरदस्त साथ दिया जबकि वह आरएसएस और भाजपा से जुड़े हुए थे। अलग विचारधारा के होकर के भी वे उनसे प्रभावित थे और उनका आज भी उनसे पारिवारिक रिश्ता है । बताया कि जब भी वह कटिहार जाते थे या आते थे तो वह अपने जेब से कुछ पैसे देते थे यात्रा में टिकट वगैरा भी काटकर दे देते थे।
साथ ही बताया कि आईपीएफ के जमाने में जब वह संघर्ष कर रहे थे आरा में उस समय वह जेल से निकले तो एक बहुत ज्यादा परिचित नहीं न होकर भी एक व्यक्ति उनसे मिलने के लिए आए । वे किराए के छोटे से कमरे में पत्नी के साथ उस समय रह रहे थे। वह काफी आहत हुए और उन्होंने पूछा कि आपके पास घर नहीं है तो मैंने बताया कि मेरे पास घर के लिए जमीन नहीं है। इस पर वे राजपूत समाज के होते हुए भी अपना दो कट्ठा जमीन निशुल्क मेरे नाम कर दी।
आज के लिए यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि नेताओं के द्वारा नफरत की राजनीति सभी तरफ से चलती है। मोहब्बत की दुकान चलाने वाले लोग भी साथ-साथ नफरत की दुकान चलाते हैं। सभी का मोहब्बत और नफरत अपने-अपने वोट बैंक के हिसाब से होता है। वैसे में समाज को बांटने का एक बार फिर से पूरा प्रयास बिहार में और तेजी से तेज हो गया है। बिहार में अति पिछड़ा को लेकर आगे बढ़े नीतीश कुमार की राजनीति अब अवसान पर है। उनकी राजनीति पर कब्जे की राजनीति तेजी से आगे बढ़ा है। देश की राजनीति में राहुल गांधी भी जातिगत जनगणना के पैरोकार बन गए। ऐसे समय में नफरत को मोहब्बत में बदलना बिल्कुल ही संभव नहीं , फिर भी सकारात्मक बातों को मंच मिलना चाहिए। लोगों को सच्चाई बतानी पड़ती है, बस इसीलिए।
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