03 अक्टूबर 2023

बिहार में जातीय गणना: मोहब्बत की दुकान में घृणा का सामान

बिहार में जातीय गणना: मोहब्बत की दुकान में घृणा का सामान

बिहार में जातीय गणना देश की राजनीति को प्रभावित करने के लिए तरकश से ब्रह्मास्त्र की तरह छोड़ दिया गया है। यह सब सहज और सामान्य नहीं है। प्रायोजित और झगड़ा कराकर राजनीतिक रोटियां सीखने के लिए किया गया काम है । भले ही नए गठबंधन के द्वारा मोहब्बत की दुकान चलाने का दावा किया जाता हो परंतु जातीय गणना के माध्यम से इसको देश भर में उछाल कर मोहब्बत की दुकान में घृणा का सामान रख दिया गया है।

ऐसा कहने का तात्पर्य क्या है? इस पर विमर्श करना चाहिए। बिहार में किसी भी चुनाव में चाहे वह पंचायत स्तर का हो, विधानसभा स्तर का हो, लोकसभा का हो, राजनीति करने वाला कोई भी व्यक्ति को पता होता है कि उस क्षेत्र में किस जाति के कितने वोटर है । जाति का गणना बिल्कुल ही सामान्य और सहज प्रक्रिया थी । सरकार के द्वारा जाति गणना का जो आंकड़ा दिया गया है उसमें प्रबुद्ध लोगों की समझ से कोई नई बात नहीं है। जितनी जाति की गणना का आंकड़ा सामान्य लोगों के पास थी उसके आसपास का ही आंकड़ा सरकार ने जारी किया है।


हालांकि सरकार का दावा था कि यह आर्थिक सर्वे है परंतु आर्थिक सर्वे को जारी नहीं किया गया है और राजनीतिक दल के पक्ष और विपक्ष के लोग इस पर चुप्पी साथ लिए हैं। दरअसल आर्थिक सर्वे को जारी किया जाता तो सरकार की एक मानसा दिखाई पड़ती और समाज में उत्थान और पतन का नया आंकड़ा सामने आ जाता परंतु सरकार को इस आंकड़े से मतलब नहीं है।


सरकार को मतलब है मंडल और कमंडल को फिर से उछल कर लड़ाई पुनर्वापसी की। इसी फार्मूले पर देश में गठबंधन बना है और मंडल कमंडल कि राजनीति में कमंडल को पराजित करने के लिए ही इस फार्मूले को आजमाया गया है जो की काफी करवा और विषैला है।


ऐसा इसलिए क्योंकि यदि सरकार की मंशा दबे हुए लोगों को उठाने की होती तो यह सर्वे या जातीय गणना का आंकड़ा सहज रूप से सर्वे करा कर पेश कर दिया जाता। इस पर ना तो राजनीति होती ना ही देश भर में हंगामा होता और ना ही गांधी जयंती के अवसर पर मोहब्बत की दुकान से घृणा का सामान बेचने का काम किया जाता।

भारतीय जनता पार्टी को देश को बांटने की राजनीति का ठप्पा लगा हुआ है। हिंदू और मुस्लिम के बीच झगड़ा करने का प्रमाण पत्र भी भारतीय जनता पार्टी के पास है । दुर्भाग्य से दूसरे तरफ के लोग भी यही काम करते हैं। परंतु प्रमाण पत्र वितरण संस्थान के द्वारा उनके पास इस तरह का कोई प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाता।

मुस्लिम तुष्टिकरण की बात सर्व विदित है। अभी सनातन धर्म को खत्म करने, रामचरित्र मानस की प्रति जलाने जैसे कई बातें लगातार सामने आए और दूसरे गठबंधन और राजनीतिक दल के लोग चुप्पी साधे रहे।

 

मंडल की राजनीति के उसे दौर के लोगों को पता होगा कि कैसे राजीव गोस्वामी ने मंडल की राजनीति का विरोध करते-करते अपनी जान दे दी। बहुत लोगों की जान चली गई। देश जख्मी हुआ। इसका फलाफल निकाला और पिछड़ी जातियों को आरक्षण के रूप में यह सामने आया।

अगड़ी जाति और पिछड़ी जाति की लड़ाई में यदि यह कहा जाए कि शोषण दमन और दवे कुचले लोगों का अपमान और प्रताड़ना नहीं हुआ तो यह अतिशयोक्ति होगी । निश्चित रूप से ऐसा हुआ है । आजादी के बाद इस पर अंकुश लगाने के प्रयास सार्थक हुए हैं । परंतु इस बात को लेकर अब आम लोगों के मुंह में दही जम जाता है जब इसी प्रकार के शोषण, दमन और प्रतिशोध की भावना से लोकतंत्र में कथित रूप से जाति आधारित बहुसंख्यक करने लगा है।


 

शोषण दमन और हाकमरी की बात का अगड़ी जातियों पर भले लगा हुआ है परंतु आजादी के 76 साल बाद आरक्षण के हथियार से केवल और केवल अगड़ी जातियों पर इस हकमारी का आरोप लगाना ठीक नहीं है।



हाकमरी की बात यदि किया जाए तो दबे लोगों की हक मारी अब उनकी जातियों और उसके वर्गों के लोग के द्वारा ही किया जा रहा है । अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग जो अगड़ी जातियों की श्रेणी से भी बढ़कर संपन्न हो गए हैं वही आज उनकी हाकमरी कर रहे हैं।

 आर्थिक सर्वे जारी होता तो यह निश्चित रूप से पता चला कि बिहार में मुसहर, डोम जैसी जातियां किस तरह बदहाली की जिंदगी जी रहे हैं। 10 बाय 10 के एक कमरे में 10 परिवार का रहना हो रहा है और आमदनी का कोई भी स्थाई साधन विकास के इस दौर में भी उनके पास नहीं है । परंतु उनके हिस्से का आरक्षण का लाभ आज भी दूसरी जातियों के इसी वर्ग के लोग हकमारी कर ले रहे हैं और इस पर कोई एक शब्द भी टिप्पणी करने से डरता है।


पिछड़ी जातियों में भी कई ऐसी जातियां हैं जो पिछड़ी जातियों के गरीब और दबे लोगों की हक मार रहे हैं। उन्हीं के जातियों और उन्हीं के वर्गों के लोग के द्वारा ऐसा किया जा रहा है। यह आरक्षण की एक बड़ी विसंगति है परंतु इस पर जो शिकार है उन्हें भी इस बात का एहसास नहीं है और वह भी एक समूह के साथ पीड़ित और शोषण होकर भी अपने आप को खुशनुमा महसूस कर रहे हैं।


जनसंख्या वृद्धि के इस विसंगतियां में पिछड़े और अनुसूचित जातियों के आंकड़े के बढ़ने का मामला परिवार नियोजन से भी जुड़ा हुआ है। निश्चित रूप से अगड़ी जातियों के लोगों ने परिवार नियोजन के देशव्यापी अभियान में अपनी भागीदारी दी और परिणाम यह हुआ कि उनकी हिस्सेदारी कम होती चली जा रही है और लोकतंत्र में उन्हें निश्चित रूप से हसिए पर धकेल दिया गया है।

आजादी के इतने साल बाद भी दमन और शोषण के उसे पीड़ा से निकलकर प्रतिशोध की भावना से काम कर रहे दूसरी अन्य जातियों के लोगों के लिए अब यह आवाज उठने लगी है कि अगड़ी जातियों के लोगों को किसी टापू अथवा देश के किसी एक हिस्से में जाकर छोड़ दिया जाना चाहिए और उन्हें अपने किस्मत और अपने मेहनत के भरोसे आगे बढ़ाने के लिए अवसर दिया जाना चाहिए।

 परंतु इस देश में यह भी नहीं होने जा रहा। यदि ऐसा हो जाएगा तो वोट बैंक की राजनीति में झगड़ा कराने के अवसर ही खत्म हो जाएंगे और फिर परिवार और व्यक्तिगत रूप से सत्ता के सिंहासन पर बैठकर राजमहल का सुख भोगने वालों को भारी परेशानी हो जाएगी।

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