परिपक्व होता भारतीय सिनेमा
अरुण साथी
दो सिनेमा छुट्टी में खत्म किया। नेटफ्लिक्स पर। ओएमजी२ और खुफिया। दोनों नहीं, खुफिया जिंदाबाद।
बात ओएमजी २ का। इसमें पंकज त्रिपाठी के सहज अभिनय को छोर कुछ भी अच्छा नहीं है। क्यों, क्योंकि ओएमजी इतनी अच्छी बनी थी की उससे अच्छा कुछ हो नहीं सकता। फिर भी यौन शिक्षा पर केंद्रित सिनेमा और भारतीय धर्म और महाकाल की खिचड़ी ठीक ठाक है। ओएमजी में परेश रावल, जज साहब का कोई जोड़ नहीं।
खैर, खुफिया। भारतीय सिनेमा का एक परिपक्व संस्करण। कम उम्र से हॉलीवुड फिल्म देखनी का परिणाम रहा की असामान्य सिनेमा स्वीकार न हो सका। पर खुफिया एक सामान्य सिनेमा है। टाइगर, टाइगर जिंदा हैं, जवान जैसे कई सिनेमा इसके करीब भी नहीं ।
जासूसी जीवन का सामान्य और सहज अभिनय तब्बू का। तब्बू मेरी पसंदीदा अभिनेत्री है। आंखों से बात करती।
खुफिया। सिनेमा में सिनेमा जैसा कुछ नहीं । सबकुछ सहज।
बांग्लादेशी अभिनेत्री अजमेरी और मिर्जापुर फेम अली फजल का प्रभावशाली अभिनय। निदेशक विशाल भारद्वाज तो खैर प्रयोगधर्मी है ही। सत्या से ही पसंद।
गीत, जाना हो तो मत आना। रेखा भारद्वाज की आवाज का जादू। आह, क्या सूफी गीत है। कबीर और रहिमन का नया संस्करण। बुझे बुझे। आवाज राहुल राम और ज्योति। गीत पसंद आई तो नाम खोजा।
सुन्दर
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