कर्म ही पूजा है, यह एक मंत्र है
इसकी मूल अवधारणा सनातन धर्म ग्रंथ गीता ही है। इसके लिए अतिरिक्त किसी धर्म के धार्मिक ग्रंथ में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है। यह छोटी बात नहीं है। खासकर वर्तमान इस युग में। आज जितनी तेजी से हम धार्मिक होने का दवा और दिखावा करते हैं। उतने हम धार्मिक नहीं हो सके हैं । क्योंकि धर्म धारण करने की चीज है। आज धर्म सोशल मीडिया पर तो दिखता है। समाज, घर, आचरण में बिल्कुल नहीं ।
दरअसल, यदि हम कर्म को पूजा मान लेंगे तो धर्म को हम धारण करेंगे। तब हममें बदलाव आएगा। हम नैतिकवान, प्रेम पूर्ण और संवेदनशील होंगे। आचार्य ओशो पूछते हैं, हमारा धर्म ग्रंथ हजारों सालों से हमें नैतिक, संवेदनशील तथा धार्मिक बनाने का ज्ञान दे रहा है। आज इस बात का दावा किया जाता है कि हम पहले से और अधिक अनैतिक और संवेदनहीन हो गए हैं।
तब, हजारों सालों से जो हम धर्म की शिक्षा ले रहे हैं। उसमें कुछ ना कुछ कमी जरूर है। अनुभव भी यही कहता है। धर्म का दिखावा करने वाले और धर्म को धारण करने वाले, अलग-अलग होते हैं।
जब हम धर्म को कर्म में धारण करेंगे तो हम समस्त चराचर से प्रेम करेंगे। किसी का अहित नहीं करेंगे। क्योंकि सनातन में आत्मा अमर है। तो जो आत्मा मुझ में है। वही 84 लाख योनियों में है। पशु में है। कुत्ते में है। चींटी में भी है। और फिर सब कुछ बदल जाएगा।
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