27 अगस्त 2025

राम सत्य है... (संस्मरण )

 राम सत्य है... 

(संस्मरण) 


किसी पार्थिव शरीर के सिरहाने बैठ कर आम आदमी भी जीवन-मरण, आत्मा-परमात्मा, मोह-निर्मोह और शास्त्र-पुराण की बातें करने और सुनने लगता है। हां में हां मिलाने वाले भी बहुत होते हैं।
चाची (मित्र की माता)के निधन पर भी यही हुआ।


गांव के कुछ लोग रंथी सजा रहे थे। ढोल ढाक बज रहा था । ढीम,ढीम । ढाक ढाक!

चर्चा उठी कि अब चमरढोल भी नकली आता है। सब प्लास्टिक का। 

रमेसर का बोले, "हां त असली कन्ने से आइतौ। गाय मरो हउ त कोय ले जाय वाला नै  हौ अब।"

लोग इसी पर चर्चा कर रहे थे। एक ने कहा, पहले मवेशी की मृत्यु होने पर गिद्ध और चील खाने के लिए आते थे। अब वह भी विलुप्त हो गए। पहले गांव में गिद्ध के मंडराते ही सबको पता चल जाता था कि किसी के मवेशी की मौत हुई है। पता नहीं कौन सा विज्ञान था कि गिद्ध को मवेशी के मरते ही सब कुछ पता चल जाता था।

श्मशान में गिद्ध क्रांय-क्रांय  करते हुए मुर्दे को नोचने लगते थे। गांव के कुत्ते खाने में कम और गिद्ध को पकड़ने में अधिक लगे रहते थे।

खैर, अब ज्ञान की बातें। जो वहां हो रही थी। चाची के निधन की खबर का मैसेज व्हाट्सएप पर मिला। मित्र ने लिखा, 

माता इस शरीर में नहीं रही।

मित्र के इस संदेश में जीवन और मृत्यु, आत्मा और परमात्मा के सारे सार को संक्षेप में रख दिया।

अब जब रंथी सज रही थी तो उनके गांव के एक बुजुर्ग ने गोतिया होने का धर्म मजबूती से संभाला।
रंथी सजा रहे तीनों बुजुर्ग को भगा दिया । बोले, अब रंथी भी विजात हो के तों कैसे सजा रहलीं, भाग। हम सब नै हिइए।"

चाची का जाना, चाचा के लिए ऐसे था, जैसे दो शरीर से एक जान का जाना।

वे रो रहे थे। सुबक सुबक। उनको ठीक से रोना भी नहीं आता। शायद, कभी सीखे नहीं होंगे, वरना तो लोग आजकल वगैर संवेदना के भी दहाड़ मार कर रोते है। महिला तो खैर इसमें परांगत होती है।

वहीं बैठे एक बुजुर्ग पंडित जी ने बड़े ही तल्ख अंदाज में गूढ़ ज्ञान दिए।
"चुप रहो पंत जी। ई मोह माया में आत्मा नै फंसाहो! नै तो ऊ माया में पड़के यहां से नै जाय ले चाहथुन! उनखा माया मोह त्याग के जाय दहो।"

फिर वे आसमान की ओर ऐसे देखने लगे, जैसे कोई सुन रहा।
फिर बोले,
"देख हो हमरा, तीन दिन पहले पत्नी दुनिया छोड़ गेलथुन। एक बुंद लोर नै गिरलो। माया में काहे पड़ाना। चल गेलथिन बेचारी! देखहो, आज यहां हिरो!"

तब, पंडित जी के इसी बात से समझ सका ही सनातन धर्म में मृत्यु का उत्सव क्यों मनाया जाता है। आत्मा को माया के बंधन से मुक्ति ही उद्देश्य होगा, शायद। ढोल बजने लगा, ढीम,ढीम । ढाक ढाक! गूंजा, राम नाम सत्य है...आह.. मतलब कितनी सहजता से ईश्वर की व्याख्या मृत्युशय्या पर । मौत ही प्रमाणित करता है कि राम (ईश्वर) सत्य है...

शेष अगले भाग में...

25 अगस्त 2025

देहाती लड़का

देहाती लड़का

(अरुण साथी)

आज बहुत दिनों बाद गांव से नगर आए विनोद बाबू को राह चलते उनका पुराना दोस्त रमेश  मिल गया । बगल में चाय दुकान पर चुस्की लेते हुए हाल-चाल साझा होने लगे। 
अचानक रमेश ने बताया, 

"अरे यार, अभय की माता को कभी-कभी मिल आया करो। प्रोफेसर साहब के निधन के बाद चाची बहुत कष्ट में है । दोनों बेटा  थोड़ा भी ध्यान नहीं देता।"

एक दिन  विनोद चाची से मिलने गया । सालों बाद भी चाची उसे पहचान गई। 

"बैठो बेटा..!"

बैठते  ही चाची  दुखड़ा सुनाने लगी।

 "तुम्हारा दोस्त तो बड़ा अफसर बन गया पर कभी हाल-चाल नहीं लेता । दिल्ली को ही अपना घर–संसार समझ लिया है। छोटा बेटा भी पत्नी को लेकर पटना में रहता है। काम–धाम कुछ करता नहीं, प्रति महीना लड़ाई–झगड़ा करके पेंशन निकाल कर चला जाता है।"

थोड़ा, रूकी। सांस तेज चलने लगा। गिलास में पानी पी। विनोद बाबू को भी दिया। फिर रसोई में चली गई। दोनों के लिए चाय बना आई। बोली,

"तुम भी तो बेटा समान हो विनोद। थोड़ा आते–जाते रहा करो । मोबाइल पर कॉल कर लिया करो। पता नहीं कब ईश्वर उठा ले।"

विनोद मन ही मन संकल्पित हो गया कि वह आते जाते, मिलते रहेगा। फिर घर आकर विनोद ने अपने दोस्त को मोबाइल लगाया। चाची ने ही नंबर दिया था।


"हेलो, मैं विनोद बोल रहा। तुम्हारे बचपन का दोस्त। बिन्नी...! वह पहचान गया।

 अभय हर्षित होकर बातचीत करने लगा। बताया कि बेटा डॉक्टर, बेटी इंजीनियर है। उसका भी पदोन्नति हो गया। वह अब अपने जोन का प्रमुख है। खूब कमाई है।

 विनोद ने बताया कि वह चाचा से मिलने गया था, वह बहुत कष्ट में है।


इतना सुनते ही अभय के आवाज में बदलाव आ गया।

 "अच्छा, तो इसीलिए 40 साल के बाद दोस्त की याद आई! नीचा दिखाना है! तुमको क्या पता यहां कितनी परेशानी है। बेटा के मेडिकल की पढ़ाई है। इंजीनियर बेटी की शादी करनी है। अपार्टमेंट का किस्त  भी अभी पूरा नहीं हुआ है। अपनी परेशानी कम नहीं है, जो दूसरे की परेशानी देखूं...!" मोबाइल काट दिया।

फिर विनोद को बचपन की याद आ गई। प्रोफेसर कॉलोनी में अभय को बुलाने के लिए वह गुड़हल के पेड़ के ओट से छुपा कर जाता था। ढेला फेंक कर उसे बुलाता था। कभी-कभी चाची देख लेती थी तो अभय को बहुत पीटती थी ।

कहती, 

"गांव–देहात के लड़के के साथ मत खेलो! उसके सासरंग में बिगड़ जाओगे..."

18 अगस्त 2025

टेंट सिटी में कॉर्पोरेट राजनीति और कांग्रेस के गढ़ में राहुल गांधी

 टेंट सिटी में कॉर्पोरेट राजनीति और कांग्रेस के गढ़ में राहुल गांधी 

अरुण साथी

प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी कल मेरे यहां है। इसकी तैयारी देखी तो बदलते राजनीति के दौर का एहसास हो आया। राहुल गांधी की सभा श्री कृष्ण चौक पर होगी। और रात्रि विश्राम कॉलेज मैदान में करेंगे। पार्टी और देश के इतने बड़े नेता का आगमन है और पार्टी की उपस्थिति शून्य जैसा। पुराने कार्यकर्ता उपेक्षित।


और जरूरत भी नहीं है। सभा और विश्राम को लेकर कंपनी के लोग लगे हुए। कार्यकारी जिलाध्यक्ष रौशन कुमार सक्रिय है।
रात्रि विश्राम के लिए टेंट सिटी सज गया है। कंपनी के लोग ही सबकुछ कर रहे। कौन कहां रहेगा। कैसे आना। कहां जाना। सबकुछ।
यह कॉर्पोरेट राजनीति की बानगी है। इसकी शुरुआत बीजेपी ने 2014 में किया। अब सभी दल यही कर रहे।


अब कैडर किसी के पास नहीं है। रहे भी क्यों। नेता चड्डी की तरह दल और गठबंधन बदलते है। तब कैडरों ने बूथों पर लड़ना छोड़ दिया। हालांकि सोशल मीडिया पर यह खूब दिखता है। जमीन पर नहीं।
कॉर्पोरेट राजनीति से याद आया। अब नेता मुद्दा भी कार्यकर्ता से पूछ कर तय नहीं करते। पीआर कंपनी सब करती है। क्या भाषण, क्या बयान, कैसे मुस्कुराना, कैसे मायूस होना। कहां बैठना, कहां जाना, किससे मिलना। सब कुछ।


यहां तक कि जिस सोशल मीडिया पोस्ट पर दो पक्ष मारामारी करते है, उसका संचालन भी कम्पनी का कोई आदमी करता है, नेता नहीं..।
अब बरबीघा की बात। यह कांग्रेस का गढ़ रहा है। इसके पहले विधायक स्वतंत्रता सेनानी लाला बाबू हुए। जो दधीचि थे। उसके बाद, डॉ श्री कृष्ण सिंह के लिए उन्होंने सीट छोड़ दी।
फिर राजो बाबू यहीं से विधायक बने। फिर सुरक्षित सीट होने पर डॉ महावीर चौधरी लगातार तीन बार विधायक रहे। फिर वर्तमान बिहार सरकार के मंत्री अशोक चौधरी यहां से ही पहली बार विधायक बने। फिर वर्तमान जदयू विधायक सुदर्शन कुमार भी पहली बार कांग्रेस से ही विधायक बने।
यहां के गांवों के भूमिहारों में कांग्रेस नस नस में दौड़ती थी। यहां यह जुमला प्रसिद्ध था कि
हम तो कांग्रेसी हियो, ओकरे वोट देवो।

अब इसी गढ़ में राहुल आ रहे। उनकी तीसरी यात्रा है। उनके साथ तेजस्वी है। तेजस्वी ने इसी बरबीघा से ए टू जेड की राजनीति करने का वादा किया, पर फिर भूल गए।
अब देखना है सभी क्या बोलते है। वैसे दोनों की राजनीति के केंद्र में जातिवाद को बढ़ावा देना प्रमुख है। दोनों जाति जनगणना की बात करते रहे। मोदी सरकार के द्वारा गरीबी को आधार मानकर सवर्णों को जो दस प्रतिशत आरक्षण दिया, उसका एक मात्र विरोध राजद ने किया। बिहार ने सत्ता में रहते हुए आरक्षण की तय सीमा को तेजस्वी ने बढ़ा कर 65 प्रतिशत किया।
अब आसन्न विधान सभा चुनाव ने मुद्दा वोट की चोरी का है। सुप्रीम कोर्ड में यह मामला चल रहा। एस आई आर पर रोक नहीं लगी। अब जिनका नाम कटा है, उनका विवरण कारण सहित बूथों पर चिपका दिया गया है। 1 सितंबर तक दावा करिए। पर तब भी, यही मुद्दा गर्म है। गर्म रहेगा। राजनीति है। विपक्ष जैसे सत्ता को घेरे, वही ठीक। 


परंतु, वह कांग्रेस आश्रम जिसका नाम श्री कृष्ण आश्रम है, जहां से बिहार केसरी, लाला बाबू ने बिहार को दिशा दी, आज कांग्रेस के इतने बड़े नेता के आने पर भी वीरान पड़ा है। कोई चहल पहल नहीं है। आश्रम रो रहा है, काश नेता यहां रुकते 

आगे देखिए...

16 अगस्त 2025

संत रैदास का तिरंगा और भारत का लोकतंत्र

संत रैदास का तिरंगा और भारत का लोकतंत्र 

अरुण साथी के विचार

देशभक्त कौन है? इसपर लगातार प्रश्न उठते है। और भारत का लोकतंत्र क्यों सशक्त है, इस प्रश्न का उत्तर भी मांगा जाता है। दोनों प्रश्नों का उत्तर यह एक तस्वीर है। गहरी पैठ के साथ देखिए। 

दरअसल, 15 अगस्त को जिला के शेखोपुरसराय के महेश स्थान चौक से बीच दोपहर गुजर रहा था। भीषण गर्मी थी। चिलचिलाती धूप देह जला रहीं थी। ऐसे में अचानक सड़क के किनारे जूता मरम्मत करने वाले एक बुजुर्ग के छाता पर ध्यान चला गया। आश्चर्य हुआ। तस्वीर खींची। बुजुर्ग ने अपने छाता के ऊपर तिरंगा बांध रखे थे। अक्सर, 15 अगस्त , 26 जनवरी को देखता हूं। रिक्शा चालक, ठेला वाला अपने रिक्शा, ठेला को तिरंगा से सजा के रखते है। 
लोकतंत्र ने पूरी दुनिया में जो बदलाव किया उसमें से सबसे बड़ा बदलाव उस आदमी के लिए ही था जिसका जीवन सामंतों, कथित सर्वश्रेष्ठ जातियों, धनिकों के लिए दो कौड़ी का था। 

हमें चीजों को गहराई से देखना चाहिए। लोकतंत्र में टाटा, बिरला, राजा, जमींदार, अदानी, अंबानी, मोदी, राहुल, सफाई कर्मी, चर्मकार, मुसहर, डोम, आदिवासी,  सभी के वोट को कीमत एक है। मतलब सभी समान है। और आजादी के 79 वर्ष में अनुभव बताता है कि अब निचले पायदान के लोगों  ने अपनी इसी ताकत को पहचान लिया है। 


हां, यह बात है कि अब नव सामंतवाद आ गया है। इस ताकत को पहचान कर लालू प्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, चंद्रशेखर रावण सरीखे लोग अपनी राजशाही बना, सजा लेते है। इनके लिए सिर्फ बोल वचन होता है। आज जय भीम के नाम पर इन लोगों में मस्तिष्क में जहर भरा जा रहा। इनको सामंतों का शोषण तो बताया जा रहा, पर किसी जमींदार के बेटे का इनके लिए विद्रोह, संघर्ष नहीं बताया जा रहा। लोकतंत्र के इस हवन कुंड में बहुतों ने आहुति दी है। इसमें अगड़ी जातियों का योगदान  सर्वाधिक है। संविधान में केवल बाबा साहब का ही योगदान नहीं है, और भी मनीषी थे। पर नव सामंतवाद ने अपनी राह पकड़ ली है। सोशल मीडिया हथियार बना है। समाज को जोड़ने के मनीषियों के प्रयास को इसी हथियार से काटा जा रहा। और इसी से नव सामंतवाद का सामंतवादी साम्राज्य स्थापित हो रहा। 

आज दो ध्रुवों में बंटे देश में वोट चोरी का कृत्रिम मुद्दा बड़ी चालाकी से उछाल दिया गया। जन सरोकार के वास्तविक मुद्दे गौण हो गए। उसपर बहस , आंदोलन नहीं होता। आज जाति और धर्म का अफीम चटाया जा रहा। आज नीचे से ऊपर उठ चुके लोग, नीचे रहने वाले का हक लूट रहे, और उनको इसका भान नहीं? इसपर सब चुप। 


 आज नव सामंतवाद के युवराज को अपने राजशाही जीवन, धन संचय के लिए लोकतंत्र और देश की कीमत पर भी सत्ता चाहिए। और इस खेल में सभी माहिर शामिल है। 

12 अगस्त 2025

यह धरती केवल मनुष्यों का नहीं है..

यह धरती केवल मनुष्यों की नहीं, बल्कि जानवरों, पेड़-पौधों और सभी जीवों की साझा संपत्ति है। हाल ही में दिल्ली की गलियों से कुत्तों को हटाकर उन्हें कैद करने का निर्णय सामने आया, जिस पर पक्ष और विपक्ष में बहस शुरू हो गई। गांवों में कुत्ता चौकीदार की तरह रात में पहरा देता है, अजनबी को जान कर भौंकता है और लोगों को सतर्क करता है। पहले हर कुत्ते का कोई न कोई घर होता था, लोग बाहर खाना रख देते थे, इसलिए वे आवारा नहीं थे। लेकिन आज हमने उनका घर, जंगल और आश्रय छीन लिया। 
मनुष्यों की लालच और पशुता ने प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया। पेड़ काट दिए, जंगल नष्ट कर दिए, और जानवरों को बेघर कर दिया। कुत्ता ऐसा जीव है जिसने हजारों साल पहले मनुष्य के साथ सहजीवन अपनाया और पत्थर के जंगलों में भी जीना सीखा।
सच है, कुत्तों से जुड़े कुछ खतरनाक मामले सामने आए हैं, लेकिन अपवादों के आधार पर पूरी प्रजाति को दंडित करना न्यायसंगत नहीं। जैसे एक मनुष्य की गलती पर पूरे समाज को सजा नहीं मिलती, वैसे ही कुछ घटनाओं के कारण सभी कुत्तों को अपराधी मानना गलत है।
समाधान शोध और संतुलित नीति से निकले, न कि ऐसे फैसलों से जो जानवरों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दें।

10 अगस्त 2025

और जब लक्ष्मी की आत्मा ने आकर मुझे जगाया, बोली अलविदा...!

और जब लक्ष्मी की आत्मा ने आकर मुझे जगाया, बोली अलविदा...!


अभी सुबह के 4:30 हैं। यह बुधवार की सुबह है। आधा घंटा पहले जब मैं गहरी नींद में था। तब लक्ष्मी की आत्मा ने मुझे आकर जगा दिया। बोली, 
"जा रही हूं मैं । इतना ही दिन का साथ था। अलविदा!"
मैं चौंक कर जाग गया। पहले लगा कि नींद में यह सपना था। ऐसा थोड़ी न होता है ? कैसे कोई आत्मा जाकर कहेंगे, अलविदा! 

फिर मन नहीं माना। पलंग से नीचे उतरा। बल्ब जलाया। घर के निचले भाग में बने बथान में देखने गया।

लक्ष्मी मरी हुई थी। उसके नश्वर शरीर से आत्मा शायद अभी-अभी ही निकली थी।
फिर जाकर पत्नी और सभी को जगाया । लक्ष्मी जा चुकी थी । वह 4 साल की गाय की बच्ची थी।

बड़े प्यार से मैंने उसका नाम लक्ष्मी रखा था। वह गीर नस्ल की मिश्रित बाछी थी।
मेरी प्यारी गाय की बेटी जब लक्ष्मी जन्म ली थी तो उसको अपने हाथों से साफ किया था। लक्ष्मी की मां उसे चाट कर साफ करती थी। और मुझे सटने नहीं देती थी। आज वह टुकुर-टुकुर उसे देख रही थी। 

जैसे कि वह पत्थर की हो। पर मैं और मेरा पूरा परिवार दुखी हो गया। घर में क्रंदन होने लगे। खासकर रीना ज्यादा दुखी हो गए। फूटफूट कर खूब रोई।

मैने, कर्मवाद के सिद्धांत को मानकर जीवन को हमेशा कर्म प्रधान मान कर जिया। स्नेह को समर्पण भाव से निभाया। 
कारण, ओशो ने बुद्ध को उद्धरित कर समझाया है। इस जन्म का कर्म फल, इसी जन्म में भोगना होगा। यही कर्मवाद का सिद्धांत है। यह कोई ऐसी अवधारणा नहीं है कि पूर्व जन्म का भोगने के लिए शेष बचे। स्वर्ग, नर्क हो। सब इसी में।

जीवन के अर्धशतक से आगे निकलने के बाद भी, जीवन में मित्र बहुत कम बनाए। ईश्वर ने जो मित्र दिए वे कृष्ण समान है। अपवाद जीवन का सिद्धांत है।

कुछ साल पहले एक मारीच मित्र की वजह से मैं और मेरा परिवार असह्य वेदना झेली। समाज के विकृत, कुंठित लोगों ने अपनी–अपनी कुंठा के हिसाब से छिद्रान्वेषण किया। आह्लादित हुए। इसमें कुछ तथाकथित मित्र और अपने भी थे। 

पर हमेशा से मानता रहा हूं कि आदमी को विचलित नहीं होना चाहिए। तुलसी दास ने कहा भी है,
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। 
आपद काल परिखिअहिं चारी॥

 सत्य यदि है, एक एक दिन सत्य सामने आएगा। और इस दौर में कृष्ण मित्रों का जो साथ मिला वह अप्रतिम। अहोभाव।

खैर, अब लक्ष्मी पर आते है। लक्ष्मी पिछले एक माह से बीमार थी। पिछले पैर में कंपन के साथ गिरने लगी। स्थानीय ग्रामीण चिकित्सक ने बहुत परिश्रम किया। किसी अनुभवी चिकित्सक ने सर्रा रोग बताया। उसकी चिकित्सा की। फिर पटना जाकर रक्त जांच कराया। वहां ऐनाप्लासमोसिश रोग निकला। उसकी सुई दी तो लक्ष्मी और बेजान हो गई।

 अंत में चल बसी। इस बीच, जानवरों को लेकर चिकित्सकों में संवेदना कम होती है। ऐसा महसूस किया। या कि रोज रोज देखते देखते संवेदनाओं मर जाती होगी। क्योंकि कई चिकित्सक से जब ग्रामीण चिकित्सक सलाह लेते तो कुछ ने कहा, यह देकर देखो। मर भी सकती है। मतलब अंदाज से जानवरों पर प्रयोग होता है। बस। हालांकि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। 

इस बीच जो अनुभव किया। वह साझा करना आवश्यक है। असह्य वेदना के दौर में पेट डॉग रॉकी (कुत्ता लिखने में खराब लगता है।) गाय और लक्ष्मी। ईश्वरीय आशीर्वाद जैसा घर आई। यह सब फिर कभी। अभी, लक्ष्मी। लक्ष्मी से पूरे परिवार को लगाव था। खास, छोटी बेटी की वह प्राण थी। 

इस वेदना के दौर में रीना का मंदिर गौशाला ही बन गया। धूप, आरती। सब गौशाला में। रोज पूजा करती। धीरे धीरे ईश्वर ने सब अच्छा किया। 

मैं जब भी खाना देने जाता। लक्ष्मी कंधा पर अपना सिर रख देती, जैसे माय अपने पुत्र के सिर हाथ फेरती रही हो। उस दौरान लगता जैसे एक अदृश्य ऊर्जा का संचार हो रहा हो। या कि ऊर्जा का स्थानांतरण हो रहा हो।

 घर भर का लार, प्यार लक्ष्मी के लिए था। और वह लक्ष्मी चली गई। पर, चुप चाप नहीं। बता कर, जगा कर गई। घर भर में शोक का माहौल हो गया। रीना खूब रोई। फटकर। पर क्या कर सकते थे। 

मैने भरे मन से श्मशान पर ले जाकर लक्ष्मी का विधिवत अंतिम संस्कार कर दिया। ईश्वर उसकी आत्मा को शांति प्रदान करें और किसी रूप में पुनः सेवा का मौका दें। प्रार्थना। 


08 अगस्त 2025

"मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा..?" जो न समझे वो अनाड़ी है..

"मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा..?" जो न समझे वो अनाड़ी है..

अरुण साथी

अब गुस्सा तो स्वाभाविक मानवीय अवगुण है। यही अवगुण किसी में कम, किसी में ज्यादा होता है। गांव , मोहल्ले में एक दो ऐसे गुस्सैल, चिड़चिड़े लोग होते ही है। मेरे भी गांव में एक है। खदेरन। वे जब भी घर से निकलते है। खदेरा, खदेरी शुरू हो जाता है। कल की ही बात ले लीजिए। शनिचरा ने टोक दिया। 
"का हो काका, सुनलियो कि पुतहुआ गोर में तेल नय लगावो हो..?" 

काका ने छिघिन–छिघिन गारी देना चालू कर दिए।

आज की ही बात है। खदेरन जब अपने घर से निकले तो बटोरना और बगेरी के कन्याय झोटम–झोंटी कर रही थी। खदेरन उसका मजा लेने लगे। फिर बटोरना के कन्याय को जब लगा कि वह थुरा जाएगी तब वह घर भाग गई। अब खदेरन ने झगड़ा को रुकवा देने का ढोलहा गांव में डलवा दिया। और अपने लिए ग्राम श्री पुरस्कार की मांग रख दी। 

अब गांव के प्रधानी के चुनाव में कई बार चारों खाने चित हो चुका ढकरू आंधी को मौका मिला। उसने भी खदेरन का साथ दिया। पर गांव में सब चुप। ग्राम प्रधान एक दम शांत। जैसे कुछ हुआ ही है। प्रधान से किसी ने पूछा, कुछ बोलते क्यों नहीं..?

 प्रधान ने कहा, "हाथी चले बाजार, कुत्ता भूके हजार...!


फिर दोनों ने गोर–गठ्ठा किया। प्रधान को घेरना है। खदेरन रोज बोलने लगा, "झगड़ा उसी ने रुकवा दिया, नहीं को विनाश हो जाता। पुरस्कार दो!"
ढकरू आंधी भी ढकरने लगा। 
"सही बात। जवाब दो।"
फिर भी सब शांत। पंचायत बैठी। प्रधान ने घोषणा की। 
"केकर मजाल जे युद्ध रुकवा दे। उ त बटोरना के कन्याय भाग गई वरना वह गंजा हो जाती।"

खदेरन और भड़क गया। अब उसने फिर ढोलहा दिलाया। उसके खेत में भैंस चराने पर टैक्स लगेगा। तब गांव वालों ने भी उसके भैंस को अपने खेत से खदेड़ दिया। 

अब खदेरन सब जगह हल्ला कर रहा। "मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा..?"

अब क्या था। खदेरन जिधर जाता, उधर ही लोग चिढ़ाने लगे। 

"का हो खदेरन। तोर भैंस के डंडा के मरलक।"

फिर खदेरन डंडा लेकर उसके पीछे दौड़ने लगता। लोग उसे दौड़ने लगे। इसी बीच प्रधान ने पुराने मित्र , सरपंच से और दोस्ती बढ़ा ली। 
अब गांव में खदेरन और ढकरू को लोग किच–किचाने लगे। दोनों का समय सबको रगेदने और गरियाने में कटने लगा। गांव में आनंद का माहौल हो गया। 

02 अगस्त 2025

संस्थाओं को इसी तरह मार दिया जाता है...!

संस्थाओं को इसी तरह मार दिया जाता है...! 
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और उनकी पत्नी के नाम पर बरबीघा के शिक्षाविद एवं स्वतंत्रता सेनानी लाला बाबू ने  बिहार केसरी की मर्जी के विरुद्ध कॉलेज की स्थापना की। इसमें जनसहयोग भी रहा। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक में जानबूझ कर इस कॉलेज को खत्म कर देने की स्थिति बना दी गई । या कहें, इसे धीरे-धीरे मरने के लिए छोड़ दिया गया।


स्थिति इतनी भयावह हो गई कि कॉलेज का भवन खंडहर बन गया। पढ़ाई के नाम पर सब कुछ शून्य हो गया। कुव्यवस्था ऐसी हो गई कि कोई किसी की सुनने वाला नहीं रहा।
मुझे तो कुछ माह पहले जानकर आश्चर्य हुआ कि एक प्राचार्य वर्षों तक प्राचार्य कक्ष में नहीं बैठे। वही कक्ष, जो कभी कॉलेज की आन-बान-शान हुआ करता था। जब हम लोग पढ़ते थे, तब उस कक्ष में जाने का साहस किसी का नहीं होता था।


प्राचार्य कक्ष में बिहार केसरी की एक अनुपम तस्वीर लगी रहती थी। वहीं लाला बाबू की भी एक भव्य तस्वीर होती थी। धीरे-धीरे इन प्रतिमाओं को भी किनारे कर दिया गया।


खंडहर हो चुके कॉलेज को लेकर कई बार चिंता जताई गई, लेकिन कुछ भी नहीं बदला। अब नवप्राचार्य के रूप में नवादा जिला के कटौना निवासी डॉ. संजय कुमार ने पदभार संभाला है। आज जब उनसे मिलने कॉलेज गया तो रास्ते में ही बदलाव की झलक दिख गई । कॉलेज के आसपास की झाड़ियाँ साफ की जा रही थीं, और बिहार केसरी की क्षतिग्रस्त प्रतिमा स्थल का पुनर्निर्माण हो रहा था।
डॉ. संजय कुमार से मिलकर लगा कि वे बदलाव के बड़े वाहक बनने का साहस कर रहे हैं। इसके लिए सभी का समर्थन भी मांग रहे हैं। उम्मीद करता हूँ कि वे इस धरोहर को पुनर्जीवित करेंगे।


 



 



 

आलेख: अमेरिका पर निर्भरता बनाम आत्मनिर्भरता की चुनौती

आलेख: अमेरिका पर निर्भरता बनाम आत्मनिर्भरता की चुनौती

आज जब भारत "आत्मनिर्भर भारत" की बात करता है, तो यह विचार राष्ट्रीय स्वाभिमान, तकनीकी स्वतंत्रता और आर्थिक मजबूती का प्रतीक बन जाता है। परंतु जब हम धरातल पर उतरकर देखें, तो पाते हैं कि हमारी आत्मनिर्भरता की राह में कई ठोस और गहरे अवरोध हैं। इनमें सबसे प्रमुख अवरोध है – अमेरिका पर हमारी तकनीकी और आर्थिक निर्भरता।
तकनीकी प्रभुत्व: विकल्पों की कमी

सबसे पहला और ठोस तर्क यह है कि आज भी माइक्रोसॉफ्ट के ऑपरेटिंग सिस्टम का कोई व्यवहारिक विकल्प विश्वस्तर पर मौजूद नहीं है। चाहे सरकारी कार्यालय हों, शिक्षण संस्थान हों या निजी क्षेत्र, विंडोज़ आधारित सिस्टम हर जगह उपयोग में लाए जा रहे हैं। इसका कोई देसी या गैर-अमेरिकी विकल्प बड़े पैमाने पर न तो मौजूद है और न ही अपनाया गया है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि तकनीकी आधारभूत ढांचे पर अमेरिका का मजबूत नियंत्रण है।

गूगल के सर्च इंजन की बात करें, तो वहां भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। आज गूगल के सामने जो भी विकल्प उपलब्ध हैं—जैसे कि बिंग, याहू या डकडकगो—वे सभी अमेरिका से ही संचालित होते हैं। इसका अर्थ है कि वैश्विक डिजिटल सूचना पर नियंत्रण अमेरिका के ही हाथ में है। भारत में कोई देसी सर्च इंजन आज भी उस स्तर की पहुंच, डेटा संग्रहण या परिणाम देने की क्षमता नहीं रखता।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस: भारत की शुरुआत

AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) को भारत भविष्य की तकनीक मानता है और इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता भी दी जा रही है, परन्तु सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र में भारत अभी ककहरा ही सीख रहा है। भारत में AI आधारित नवाचार जरूर हो रहे हैं, परंतु बुनियादी रिसर्च, प्रोसेसिंग पावर, डाटा एनालिटिक्स, और एल्गोरिदमिक नियंत्रण अब भी अमेरिका और चीन जैसे देशों के हाथों में केंद्रित है।

कृषि पर भी शिकंजा

इस चर्चा में एक गंभीर पक्ष अक्सर छूट जाता है—भारत के कृषि क्षेत्र पर भी अमेरिका की पकड़ धीरे-धीरे मजबूत हो रही है। कई बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियाँ, जैसे मोनसैंटो (अब बायर के अंतर्गत), भारतीय किसानों को निर्भर बना रही हैं ऐसे बीजों पर जिन्हें हर साल नए सिरे से खरीदना पड़ता है। यह आत्मनिर्भरता के ठीक विपरीत है। यदि बीज पर ही नियंत्रण बाहरी शक्तियों के पास हो जाए तो खाद्य सुरक्षा तक खतरे में पड़ सकती है।

आर्थिक नियंत्रण: नागपाश जैसी स्थिति

भारत की अर्थव्यवस्था पर अमेरिका की पकड़ उस नागपाश की तरह है जिससे छूट पाना बेहद कठिन होता जा रहा है। वैश्विक पूंजी, डॉलर आधारित व्यापार व्यवस्था, IMF और वर्ल्ड बैंक जैसे वित्तीय संस्थानों की शर्तें—इन सभी ने भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों को अमेरिका के आर्थिक प्रभाव में जकड़ लिया है।

समाधान की ओर: क्या हम चीन से सीख सकते हैं?

जब हम आत्मनिर्भरता की बात करते हैं, तो एक सवाल अक्सर उभर कर आता है: क्या समाधान है? एक संभावित समाधान चीन की रणनीति में नज़र आता है। चीन ने विदेशी इंटरनेट कंपनियों को अपने देश से बाहर किया और उसके स्थान पर अपने देशी विकल्प—जैसे बाइदू, वीचैट, अलीबाबा—विकसित किए। इन कदमों ने चीन को डिजिटल अर्थव्यवस्था में न केवल आत्मनिर्भर बनाया बल्कि एक वैश्विक शक्ति भी बना दिया।

भारत भी इसी दिशा में प्रयास कर सकता है। इंटरनेट मीडिया, सर्च इंजन, सोशल नेटवर्किंग, ईमेल सेवाएं—इन सभी के देसी विकल्प तैयार किए जा सकते हैं, बशर्ते इसके लिए सरकार, उद्योग और शिक्षा जगत मिलकर एक समन्वित और दूरदर्शी नीति बनाएं।