देहाती लड़का
(अरुण साथी)
आज बहुत दिनों बाद गांव से नगर आए विनोद बाबू को राह चलते उनका पुराना दोस्त रमेश मिल गया । बगल में चाय दुकान पर चुस्की लेते हुए हाल-चाल साझा होने लगे।
अचानक रमेश ने बताया,
"अरे यार, अभय की माता को कभी-कभी मिल आया करो। प्रोफेसर साहब के निधन के बाद चाची बहुत कष्ट में है । दोनों बेटा थोड़ा भी ध्यान नहीं देता।"
एक दिन विनोद चाची से मिलने गया । सालों बाद भी चाची उसे पहचान गई।
"बैठो बेटा..!"
बैठते ही चाची दुखड़ा सुनाने लगी।
"तुम्हारा दोस्त तो बड़ा अफसर बन गया पर कभी हाल-चाल नहीं लेता । दिल्ली को ही अपना घर–संसार समझ लिया है। छोटा बेटा भी पत्नी को लेकर पटना में रहता है। काम–धाम कुछ करता नहीं, प्रति महीना लड़ाई–झगड़ा करके पेंशन निकाल कर चला जाता है।"
थोड़ा, रूकी। सांस तेज चलने लगा। गिलास में पानी पी। विनोद बाबू को भी दिया। फिर रसोई में चली गई। दोनों के लिए चाय बना आई। बोली,
"तुम भी तो बेटा समान हो विनोद। थोड़ा आते–जाते रहा करो । मोबाइल पर कॉल कर लिया करो। पता नहीं कब ईश्वर उठा ले।"
विनोद मन ही मन संकल्पित हो गया कि वह आते जाते, मिलते रहेगा। फिर घर आकर विनोद ने अपने दोस्त को मोबाइल लगाया। चाची ने ही नंबर दिया था।
"हेलो, मैं विनोद बोल रहा। तुम्हारे बचपन का दोस्त। बिन्नी...! वह पहचान गया।
अभय हर्षित होकर बातचीत करने लगा। बताया कि बेटा डॉक्टर, बेटी इंजीनियर है। उसका भी पदोन्नति हो गया। वह अब अपने जोन का प्रमुख है। खूब कमाई है।
विनोद ने बताया कि वह चाचा से मिलने गया था, वह बहुत कष्ट में है।
इतना सुनते ही अभय के आवाज में बदलाव आ गया।
"अच्छा, तो इसीलिए 40 साल के बाद दोस्त की याद आई! नीचा दिखाना है! तुमको क्या पता यहां कितनी परेशानी है। बेटा के मेडिकल की पढ़ाई है। इंजीनियर बेटी की शादी करनी है। अपार्टमेंट का किस्त भी अभी पूरा नहीं हुआ है। अपनी परेशानी कम नहीं है, जो दूसरे की परेशानी देखूं...!" मोबाइल काट दिया।
फिर विनोद को बचपन की याद आ गई। प्रोफेसर कॉलोनी में अभय को बुलाने के लिए वह गुड़हल के पेड़ के ओट से छुपा कर जाता था। ढेला फेंक कर उसे बुलाता था। कभी-कभी चाची देख लेती थी तो अभय को बहुत पीटती थी ।
कहती,
"गांव–देहात के लड़के के साथ मत खेलो! उसके सासरंग में बिगड़ जाओगे..."
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