16 मार्च 2016

गाँव की गलियों में भी खो गया फागुन

गाँव की गलियों में भी खो गया फागुन
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फागुन का महीना बसंत का महीना है। उत्सव, आनंद, उमंग का महीना है पर अब फागुन अपने आनंद को खोकर रो रहा है। बसंत की ख़ुशी पे शराब, असामाजिकता और स्वार्थ हावी हो गया है। अब तो शराबी के डर से लोग होली के दिन भी घर से निकलना पसंद नहीं करते।

गांव के चौपाल पे जहाँ पूरा फागुन महीना होली की परम्परागत गीत गांव के लोग गाते थे वहां आज सन्नाटा है। कुछ साल पहले जब सूरज अपनी लालिमा बिखेर कर अपने शयनकक्ष में जाने के संकेत देते थे तो गांव के लोग ढोलक की थाप के साथ अपने जागने और जिन्दा होने का संकेत देते थे।

दालान पे बैठकी सज जाती थी और राधा-कृष्ण के प्रेम रस से डूबी होली जब ढोलक की थाप और झाल की झंकार पे  बजती तो ऐसा लगता मनो बसंत के मौसम में हर गांव वृंदावन हो। हर वाला राधा और हर नर मोहन..।

जलबा कैसे के भरू यमुना गहरी, जलबा कैसे के...ठार भरू नन्दलाल ली निरखे...निहुर भरू भींगे चुनरी.../

एक नींद सोबे दे बलमुआ, अंखिया भइले लाल...

यह सब अब सुनने को नहीं मिलता। दरअसल, संगीत को आध्यात्म से जोड़ दिया गया था क्योंकि आध्यात्म वही जो मन शून्य कर दें। मन के विचार, कुविचार खो जाये। होली गायन हो या कोई और संगीत, हमारा मन जब उसमे रमता है तो मन शून्य हो जाता है और हम आध्यात्म के शिखर पे होते है।

शराब ने गांव के आध्यात्मिक संगीत को बिलुप्त कर दिया। फागुन में पूरा महीना होली और चैत में चैतावर अब नहीं बजता। शायद इसी लिए हम अब अधिक असहिष्णु, अधिक असामाजिक, अधिक स्वार्थी हो गए है..


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