महिला दिवस पर मेरी तीन पुरानी कविताऐं
1
मां का नाम क्या है?
बचपन से ही
मां को लोग
पुकारते आ रहे हैं
‘‘रमचनदरपुरवली’’
या
सहदेवा के ‘‘कन्याय’’
बाबूजी जी भी पुकारते
बबलुआ के ‘‘माय’’
आज दादा जी ने जोर से पुकारा
अरे बबलुआ
देखा मां दौड़ी जा रही है।
उधेड़बुन में मैं सोंचता
आखिर इस सब में
मां का नाम क्या है?
जब मां गई थी ‘‘नैहर’’
तो पहली बार नानी ने पुकारा
‘‘कहां जाय छहीं शांति’’
फिर कई ने मां को इसी नाम से पुकारा..
फिर मैं
उधेड़बुन में सांेचता रहा
आखिर इस सब में
मां का नाम क्या है?
अब कई सालों से मां नैहर नहीं गई है
अब मां को शांति देवी पुकारता है
तो मां टुकुर टुकुर उसका मुंह ताकती है
शायद
मेरी तरह अब
मां भी उधेड़बुन है
आखिर इस सब में
उसका का नाम क्या है?
2
देह बेच देती तो कितना कमाती...
यह रचना मैंने झाझा के आदिवासी ईलाके में कई दिन बिताने के बाद लिखी थी आपके लिए हाजिर है।
रोज निकलती है यहां जिन्दगी
पहाड़ों की ओट से,
चुपके से आकर भुख
फिर से दे जाती है दस्तक,
डंगरा डंगरी को खदेड़
जंगल में,
सांेचती है
पेट की बात।
ककटा लेकर हाथ में जाती है जंगल,
दोपहर तक काटती है भूख
दातुन की षक्ल में,
माथे पर जे जाती है षहर
मीलों पैदल चलकर
बेचने दंतमन,
और खरीदने को पहूंच जाते है लोग
उसकी देह.....................
वामुष्किल बचा कर देह,
कमाई बीस रूपये,
लौटती है गांव,
सोचती हुई कि अगर
देह बेच देती
तो कितना कमाती...............
3
औरत का अस्तित्व कहां..
भोर के धुंधलके में ही
बासी मुंह वह जाती है खेत
साथ में होते है
भूखे, प्यासे, नंग-धडंग बच्चे
हाथ में हंसुआ ले काटती है धान
तभी भूख से बिलखता है ‘‘आरी’’ पर लेटा बेटा
और वह मड़ियल सा सूखी छाती को बच्चे के मुंह से लगा देती है
उधर मालिक की भूखी निगाह भी इधर ही है।
भावशुन्य चेहरे से देखती है वह
उगते सूरज की ओर
न स्वप्न
न अभिप्सा।
चिलचिलाती धूप में वह बांध कर बोझा
लाती है खलिहान
और फिर
खेत से खलिहान तक
कई जोड़ी आंखे टटोलती है
उसकी देह
वह अंदर अंदर तिलमिलाती है
निगोड़ी पेट नहीं होती तो कितना अच्छा होता।
शाम ढले आती है अपनी झोपड़ी
अब चुल्हा चौका भी करना होगा
अपनी भूख तो सह लेगी पर बच्चों का क्या।
नशे में धुत्त पति गालिंयां देता आया है
थाली परोस उससे खाने की मिन्नत करती है।
थका शरीर अब सो जाना चाहता है
अभी कहां,
एक बार फिर जलेगी वह
कामाग्नि में।
आज फिर आंखों में ही काट दी पूरी रात
तलाशती रही अपना अस्तित्व।
दूर तक निकल गई
कहीं कुछ नजर नहीं आया
कहीं बेटी मिली
कहीं बहन
कहीं पत्नी मिली
कहीं मां
औरत का अपना अस्तित्व कहां....
अपने अस्तित्व को ही आज भी औरत खोज रही है .... सारे रिश्ते मिलते हैं पर उसका वजूद खो जाता है ... गहन अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंएक लड़की बैठी हैं एक लड़की एक कोठे पर
जवाब देंहटाएंमुझे याद आती हैं कितनी ताकत होती हैं एक रोटी में.
तीनों ही बढ़िया हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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होलिकोत्सव और महिलादिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
तीनों ही रचनाएँ बढ़िया है
जवाब देंहटाएंGyan Darpan
..
तीनो ही बेहतरीन है... अच्छा लिखा है आपने...
जवाब देंहटाएंतीनों ही कवितायें बहुत ही सार्थक एवं बेहतरीन है।
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