(गांव-शेरपर, पो0-बरबीघा, जिला-शेखपुरा, बिहार)
बहुत दिनों के बाद इतने सारे ‘‘मैना’’ को देखा तो प्रसन्नता हुई! अब गांव में भी पंछियों की संख्या में भारी कमी आई है। कुछ पंछी तो लगभग नजर ही नहीं आते। ऐसे में मैना को इतनी संख्या में देखने से खुशी होती ही हैं।
एक समय था जब गांव में गोरैयों को चुगने के लिए धान की नई फसल को घर में टांग दिया जाता था और इसे फोंकने के लिए गोरैयों का झुंड जमा हो जाती थी पर पिछले कई सालों से गोरैया नजर नहीं आती है। मैंने इस साल भी धान की बाली को लाकर टांग दिया पर एक भी गोरैया उसे फोंकने नहीं आई।
कुछ साल पहले तक मकई के खेत को तोतों की झुंड से बचाने के लिए दादा जी मचान बना कर उसकी रखबाली करते थे और हमें भी मचान पर बैठा दिया जाता था और टीन का कनस्तर बजा कर हम तोंता उड़ाते थे या फिर आदमी का पुतला बना कर खड़ा कर दिया जाता था जिससे पंछी हड़क जाऐं पर अब तोंता भी गांव में एक आध ही नजर आते है। इसी प्रकार बुलबुल की चहक भी गायब हो गई और दशहरा में जतरा के दिन नीलकंढ को उड़ते हुए देखने की परंपरा का अब निर्वहन कैसे होगा पता नहीं? गांव में नीलकंढ नजर ही नहीं आते।
और यदि मैं अपना बचपन याद करू तो गिद्ध को पकड़ कर जहाज बनाने की दोस्तों के साथ योजना कई दिनों तक बनाई थी पर अब इस योजना का क्या होगा? गिद्ध तो कहीं नजर हीं नहीं आते। वहीं चील, बाजी भी अब दिखाई नहीं देते और कबूतरों का झूंड भी गायब हो गया।
कबूतर की ही प्रजाति की एक पंछी थी जिसको हमलोग पंड़की कहते थे, वह भी अब गायब हो गई है और मैना तथा कैआ भी बहुत कम पाये जाते है।
एक समय था जब पंछियों से छत पर सूखने वाले अनाज की रक्षा के लिए मां हमे छत पर बैठा देती थी और हम धात धात कर पंछी उड़ाते थे पर अब ऐसा नहीं होता, एक भी पंछी अनाज चुगने नहीं आती। ऐसा क्यों और कैसे हुआ इसपर शोध किए ही जा रहे है पर इसका प्रमुख कारण खेती में कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग और शायद मोबाइल टावर से निकलने वाला विकिरण ही है और इन चीजों पर रोक तो लगाया नहीं जा सकता सो पंछियों को बिलुप्त होने से बचाया भी नहीं जा सकता....और वे दिन जल्द ही आएगा जब हमारे बच्चे तस्वीरों को देखकर कहेगें एक थी गोरैया, एक थी मैना.. है न....
सच मुझे भीं गाँव जाकर कई पक्षी विलुप्त दीखते हैं ..यह चिंतनीय स्थिति है ..... शीर्षक में (गाँव का हाल-चाल) में हाल की जगह हाच हो गया है कृपया सुधार लें ..
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