नोटबंदी ने एक बार फिर पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। अंधभक्ति और अंधविरोध। चैनल पे यही दिखता है। मैं एक ग्रामीण रिपोर्टर हूँ। गांव-देहात का रहने वाला, छुटभैय्या रिपोर्टर। मेरी बात को स्पेस कहाँ मिलेगी। फिर भी अपना अनुभव लिख दे रहा हूँ, शायद कुछ नजरिया बदले।
आठ तारीख की रात जब नोट बंदी हुयी तो उसी रात 60 बर्षीय शम्भू स्वर्णकार (बरबीघा, बिहार) का निधन हो गया। सुबह मुझे भी जानकारी मिली। मैं छानबीन कर ही रहा था कि एक टीवी ने ब्रेक कर दिया, नोट बंदी से स्वर्ण व्यवसायी का दिल का दौरा पड़ने से निधन!! मैंने जानकारी जुटाने के लिए उसके एक पड़ोसी मित्र को कॉल किया तो वह भड़क कर कहा "भाई वह एक गरीब आदमी है, उसके पास 100/50 नहीं तो 500/1000 का नोट बंद होने से उसे कैसे दिल का दौरा पड़ेगा! तुम मीडिया वालों को तो अब जूते से पिटाई होगी।"
खैर, फिर मैंने एक स्वर्ण व्यवसायी से संपर्क साधा तो वह भी भड़का हुआ था। कहा कि वह सोना जोड़ने का काम करनेवाले कारीगर और मेरा 350 रुपये उधार सौ तकादा में नहीं दिया। उसके बेटे ने भी इसे खारिज कर दिया।अख़बार ने खबर दी "स्वर्ण व्यवसायी की मौत की नोट बंदी से होने की उडी अफ़वाह!!!"
समझिये, नोटबंदी का असर मकान बनाने वाले दिहाड़ी मजदूरों पे कितना पड़ा इस खबर को बनाने लिए मैं अपने यहाँ मजदूर मंडी गया। लगा की यहाँ तो विपत्ति होगी, वैसा कुछ नहीं मिला। ज्यादातर मजदूर काम पे चले गए, कुछ बचे तो लगा की इनसे ही खबर बना लेता हूँ, पर देखिये, एक बुजुर्ग बयान देने लगे की नोट बंदी की मार पड़ी है और काम नहीं मिल रहा तभी बगल से एक मजदूर भुनभुनाया "ई रिटायर्ड माल हैं सर, कौन काम देगा।" मैं लौट आया। हालाँकि थोड़ा असर मजदूरों पे हुआ ही है, जैसा की लाजिम है पर बकौल मजदूर सब एडजस्ट हो गया है। 500 का नोट 400 में साहूकार ले लेता है।
मैंने पहले भी कहा है "नोटबंदी का अर्थशास्त्र मैं नहीं समझ पाता। तात्कालिक परेशानी थोड़ी है पर लोगों के माथे में यह बात बैठ गयी है कि यह देशहितार्थ है, सो तकलीफ झेल लेंगे। गरीब भी खुश है कि यह अमीरों को मार है।
हाँ, यह भी निश्चित है कि कुछ लोग है ही जो वास्तव में परेशान है। वो बोलते है। उनकी आवाज भी उठती है पर नोटबंदी पे एकबार फिर मीडिया (चैनल) कठघरे में है। इसे आमलोगों में वायरल इस जुमले से समझा जा सकता है कि "नोटबंदी से ndtv पे लोग मर रहे है! आजतक पे थोड़े परेशान है! जी न्यूज़ पे लोग खुश है!!
मेरे जैसा छुटभैय्या रिपोर्टर सबकुछ समझ भी नहीं सकता! मीडिया हॉउस का अपना अर्थशास्त्र है। कालाधन का। निश्चित ही यह उसपे भी प्रहार है। कई न्यूज़ चैनल तो बिल्डरों और माफिया के पैसे से चमक रहा है सो उनको क्यों ख़ुशी होगी? बाकि राजनीति है, मीडिया हॉउस का अपना अपना। कुछ मीडिया मर्डोक भी है। पर देश आम आदमी की ताकत के चलता है, चलता रहेगा..नोटबंदी भला है या बुरा यह भविष्य की गर्त में है..पर नेताओं की बौखलाहट आम आदमी की ख़ुशी बन गयी है..बाकि एकरा से जादे माथा हमरा नै हो..राम राम जी।
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