22 सितंबर 2017

पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या और विरोध के मुखौटे

पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या और विरोध के मुखौटे
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एक महीने के भीतर फिर एक पत्रकार मारा गया है. इस बार बुरी खबर आई है त्रिपुरा के कम्युनिस्ट राज से. त्रिपुरा के लोकल चैनल 'दिनरात' मे काम करने वाले शांतनु भौमिक पर चाकू से हमला हुआ. उन्हें अगरतला अस्पताल ले जाया गया. जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया.
पुलिस के मुताबिक शांतनु पश्चिमी त्रिपुरा में इंडिजीनस फ्रंट ऑफ त्रिपुरा और सीपीएम के ट्राइबल विंग टीआरयूजीपी के बीच संघर्ष को कवर कर रहे थे. उसी दौरान उनका अपहरण कर लिया गया था. महज 24 साल के इस युवा पत्रकार को चाकुओं से गोदकर और पीटकर मार डाया गया. जिस राज्य में मारा गया, वो सीपीएम शासित है. माणिक सरकार मुख्यमंत्री हैं.
हाल के दिनों में पत्रकारों पर हमले की कई घटनाएं हुई हैं. ताजा मामला बेंगुलुरु में गौरी लंकेश की हत्या का था. अब उसी कड़ी में त्रिपुरा से एक नाम और जुड़ गया है. इसी बहाने गौरी लंकेश की मौत पर जश्न मनाने वाले ट्रोल टाइप लोगों को भी मौक़ा मिल गया है
लंकेश की हत्या के विरोध में लामबंद होने वाले वामपंथी नेताओं और वामपंथी विचारधारा वाले पत्रकारों-लेखकों से लेकर उन तमाम पत्रकारों या अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधरों से सोशल मीडिया पर सवाल पूछे जाने लगे हैं कि गौरी लंकेश पर बोले तो अब क्यों नहीं बोल रहे हो? गौरी लंकेश की हत्या पर प्रेस क्लब में जमा हुए तो अब क्यों नहीं हो रहे हो? गौरी लंकेश की हत्या पर बेंगलुरु में प्रर्दशन कर रहे थे तो अब अगरतला में क्यों नहीं कर रहे हो ...? गौरी लंकेश के खिलाफ जुटी आवाजें अब कहां गुम हैं ?
बहुत हद तक ये सवाल जायज भी हैं. ऐसे सवाल पूछे भी जाने चाहिए कि गौरी की हत्या पर उतना हंगामा तो शांतनु की हत्या पर इतना सन्नाटा क्यों? प्रेस क्लब ऑफ इंडिया या बाकी संगठन को इस हत्या के खिलाफ कड़े स्वर में विरोध दर्ज करना चाहिए. मान कर चल रहा हूं कि कराएंगे भी. सवाल तो ये भी है कि सोशल मीडिया के सिपाहियों और कर्मठ कार्यकर्ताओं को इतनी जल्दबाजी क्यों हो गई? शांतनु भौमिक की हत्या के विरोध के बहाने गौरी लंकेश की हत्या के बाद एकजुट होने वालों को घेरने की मुहिम क्यों चल पड़ी? इनका गुस्सा शांतनु की हत्या के खिलाफ है या गौरी लंकेश के पक्षधरों के खिलाफ? इन सवालों के जवाब में ही बहुत कुछ छिपा है.
बात सवाल पूछने वालों पर भी होनी चाहिए और मौन साधने वालों पर भी. दोनों सेलेक्टिव हैं. दोनों अपनी धारा के माकूल विषय देखकर ही बोलते और मौन साधते हैं. जो मौन साधता है, उसे दूसरा आकर कोंचता है कि तुम चुप क्यों हो? बोलते क्यों नहीं? और जो बोलता है, उसे भी पहला आकर पूछता है कि तब तुम कहां थे...तब तुम चुप क्यों थे? दोनों 'तब तुम कहां थे' के सिंड्रोम से ग्रसित हैं .
खास बात ये है कि त्रिपुरा के पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या पर खुद शोक संतप्त होकर गौरी लंकेश की हत्या पर शोक मनाने वालों को घेरने वालों में वो लोग भी हैं, जो गौरी लंकेश को गोलियों से छलनी किए जाने के चंद घंटों के भीतर उन्हें पूतना, कुतिया, रावण की बहन-बेटी घोषित करके जश्न मना रहे थे. गौरी की हत्या को पूतना वध कह रहे थे. गौरी लंकेश की हत्या के बाद उन्हें डायन, चुड़ैल, संपोली...न जाने क्या-क्या कहा गया.
उनके पुराने लेखों और विचारों को सोशल मीडिया पर शेयर करके उनकी हत्या को सही साबित करने की कोशिश खुलेआम की गई. कई दिनों तक सोशल मीडिया पर गौरी की हत्या के खिलाफ बोलने वाले को हर तरह से घेरा गया. ऐसा माहौल बना दिया गया कि गौरी का मारा जाना किसी भी तरह से गुनाह नहीं. बल्कि गुनाह वो कर रही थीं, जिसकी किसी ने उन्हें सजा दे भी दी तो हाय तौबा नहीं मचनी चाहिए.
त्रिपुरा में पत्रकार शांतनु की हत्या की निंदा भी होनी चाहिए और त्रिपुरा सरकार की लानत-मलामत भी. गौरी लंकेश की हत्या पर एकजुट हुए वामपंथी नेताओं को भी जवाब देना चाहिए कि जब उनके सूबे में पत्रकार सुरक्षित नहीं तो वो किस मुंह से गौरी लंकेश की हत्या पर मातम मनाने के जुलूस में शामिल हुए थे? अगर तब चीख रहे थे तो अब भी चीखिए और कहिए कि आपके राज ये कैसे हुआ? पत्रकारों की सुरक्षा में अपनी सरकार और तंत्र की नाकामी का जवाब दीजिए.हत्यारों को सलाखों के पीछे पहुंचाकर कबूल करिए कि ये आपकी नाकामी थी.
यकीनन वामपंथी जमात को भी त्रिपुरा के इस पत्रकार के कत्ल की निंदा भी उसी तेवर के साथ करनी चाहिए. प्रेस क्लब में पत्रकारों की सभा में मंचासीन वामपंथी नेताओं ने तब गौरी लंकेश की हत्या पर जितनी चिंता जताई थी, वो सारी चिंताएं तभी मायने रखेंगी, जब कन्हैया कुमार से लेकर डी राजा, सीताराम येचुरी उसी अंदाज में, उसी तेवर के साथ वामपंथ शासित सूबे में एक पत्रकार की हत्या पर चिंता जताएं. विरोध दर्ज कराएं.
किसी भी पत्रकार या लेखक की हत्या को सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी/प्रेस की आजादी पर हमला मान कर मैं नहीं देखता. मेरा मानना है कि विचार का मुकाबला विचार से हो, चाकू और गोलियों से नहीं. तब तक जब तक वो विचार या विचारधारा वाला व्यक्ति देश/समाज के लिए बड़ा खतरा न बन जाए. अगर कोई ऐसा खतरा बनता है तो उसे रास्ते पर लाने /सबक सिखाने/सलाखों के भेजने /कानून की गिरफ्त में पहुंचाने के कई तरीके हैं. जो सभ्य समाज के तरीके हैं. किसी भी सूरत में गौरी की हत्या को जस्टीफाई नहीं किया जा सकता और जो जस्टीफाई करते रहे हैं वो शांतनु भौमिक की हत्या के विरोध का मुखौटा लगाकर घेराबंदी का माहौल बना रहे हैं.
गौरी की हत्या के पीछे कौन लोग थे ? क्या उनके लेखन की वजह से उन्हें मारा गया ? क्या उनकी विचारधारा से चिढ़े किसी कट्टरपंथी ने उनकी हत्या कर दी ? इसका खुलासा होना अभी बाकी है. हो सकता है कि इसमें लंबा वक्त लगे. हो सकता है कि गौरी लंकेश के हत्यारे पकड़े भी न जाएं. जैसे कलबुर्गी और पनसारे की हत्या के बहुत से तार आज तक नहीं जुड़ पाए. गौरी की हत्या के बाद कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता गौरी लंकेश को बचा न पाने वाली अपनी सरकार पर शर्मिंदा होने की बजाय पीएम मोदी को घेरने में जुट गए. उनका हित इसी में सधता दिखा.
अगर गौरी लंकेश पर कोई खतरा था तो उनकी हिफाजत की जिम्मेदारी कर्नाटक की कांग्रेस सरकार की थी. तो प्रेस क्लब में गौरी लंकेश की हत्या पर बुलाई गई पत्रकारों की सभा में कांग्रेस नेता शोभा ओझा के आने या बुलाने का कोई औचित्य नहीं था. अगर वो बिन बुलाए आ भी गईं तो उन्हें माइक थाम कर गौरी की हत्या शोक व्यक्त करने से पहले अपनी शर्मिंदगी और नाकामी का इजहार करते हुए कबूल करना चाहिए था कि गौरी को न बचा पाने के लिए उनकी सरकार ज़िम्मेदार है
वामपंथी नेता भी खूब बोले. तब उन्हें बोलना मुफीद लग रहा था. अब वो बोलने से पहले सोच रहे होंगे. जो तब या तो चुप थे या गौरी के लेखकीय गुनाह पर रिसर्च करके चाहे-अनचाहे उनकी हत्या को सही ठहरा रहे थे, वो अब बुरी तरह से सक्रिय हैं. जैसे इस बार उनकी बारी हो.
इन सबके के बीच बड़ा सवाल है पत्रकारों की सुरक्षा का. देश के हर हिस्से में पत्रकारों पर हमले होते रहे हैं. सीवान में राजदेव रंजन से लेकर यूपी के शाहजहांपुर तक से ऐसी खबरें सुर्खियां तो बनीं लेकिन पत्रकारों की सुरक्षा के मुद्दे पर सरकारों की तरफ से कोई पहल नहीं होती दिख रही है. जरूरत इस बात की है. असल मुद्दा ये है. पत्रकार चाहे बेंगलुरु की गौरी लंकेश हों या त्रिपुरा का शांतनु भौमिक. विरोध और एकजुटता दोनों के पक्ष में हो, इसमें कोई शक नहीं.
जिन-जिन पत्रकारों ने गौरी की हत्या के विरोध में कुछ लिखा या सोशल मीडिया में इस जघन्य हत्या के खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें शांतनु की हत्या के बहाने ट्रोल किया जा रहा है. प्रेस्टीच्यूट /दलाल / बिकाऊ और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है. कोई शक नहीं कि ऐसा बहुत बड़ा तबका है इस देश में, जिसके हर विरोध और विमर्श की बुनियाद मोदी विरोध पर टिकी है.
सही या गलत, मायने नहीं रखता. इसका मतलब ये नहीं कि आलोचना की हर आवाज बिकी हुई है. असहमति की हर आवाज को प्रेस्टीच्यूट कह दिया जाए. हम गौरी लंकेश की मौत पर मातम मना रहे थे. शांतनु की मौत पर भी मातम मनाएंगे. कितना मनाएं. कब मनाएं. कहां मनाएं. ये पैमाना तय करने का हक उन्हें नहीं, जो किसी की हत्या को भी सही ठहराने की दलीलें देते हैं.

वरिष्ठ पत्रकार और इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर अजित अंजुम के फेसबुक से साभार 

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