ओशो कहते है :-
विवेक और श्रद्धा मनुष्य के भीतर दो दिशाएं हैं । श्रद्धा का अर्थ है कि मैं मान लूँ, जो कहा जाय । दुनिया में जितने प्रचारवादी है, जितने प्रोपेगैंन्डिस्ट है, चाहे वे राजनीतिज्ञ हों, चाहे धार्मिक हों, वो चाहते है की वो जो कहें आप मान लें ।
उनकी कही बात से आप इंकार न करें । सबकी चेष्टाएँ हैं कि आपका विवेक बिलकुल सो जाय । आपके भीतर एक अंधी स्वीकृति पैदा हो जाय ।
इसका परिणाम यह हुआ है कि जो बहुत कमजोर हैं और जिनके भीतर विवेक की कोई संभावना नहीं है या जिनका विवेक बहुत क्षत था, क्षीण हो गया था या जो साहस नहीं कर सकते थे किसी कारण से अपने विवेक को जगाने का, वे सारे लोग धर्म के पक्ष में खड़े रह गए । और जिनके भीतर थोडा भी साहस था वो धर्म के विरोध में चले गए । उन विरोधी लोगों ने विज्ञान को खड़ा किया और कमजोर लोगों ने धर्म को संभाले रखा ।
धर्म के दरवाजे जबतक विवेकशिल के बंद रहेंगे तब तक वे विज्ञान के पक्ष में खड़े रहेंगे । धर्म के दरवाजे विवेकशील के लिए खुल जाने चाहिए । श्रद्धा धर्म का आधार नहीं रह जानी चाहिए । ज्ञान, विवेक, शोध को धर्म का अंग होना चाहिए । अगर यह हो सका तो तो धर्म से बड़ा विज्ञान इस जगत में दूसरा कोई नहीं होगा । धर्म की खोज करने वालों से बड़ा वैज्ञानिक कोई नहीं होगा । @प्रस्तुति:- अरुण साथी
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