कभी कभी निराशा में डूब जाता हूँ, जब भबिष्य और वर्तमान की सोंचता हूँ, खास कर तब। पर गुरुदेव ओशो ने सिखाया है प्राकृति के साथ बहो, लड़ो मत। बस बचपन से बहता जा रहा हूँ।
जीवन की नाव हमेशा मझधार के बीच झंझावातों में फंसी रही और मेरे नाव का कभी कोई मांझी न रहा। मैं भी अपने हाथ में कहाँ कभी पतवार थामी, बिना पतवार के चलता रहा हूँ।
जाने कब तक और कहाँ तक जाऊंगा। कभी कभी थक सा जाता हूँ। अब कभी मन समझौतावादी होने का दबाब बनाता है....पर कहाँ हो पता है।
न चारणी करूँगा
न चाकरी करूँगा
जबतक है जान ऐ जिंदगी
तूफानों से लड़ता रहूँगा।।
कमबख्त समाज कहाँ
किसी का हुआ है,
राम से सीता का
परित्याग कराया!
कृष्ण पे भी
कलंक लगाया!
कुंती का नहीं,
कर्ण का
उपहास उड़ाया..
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