लेनिन की मूर्ति गिराने वाले और धार्मिक कट्टरपंथियों, कम से कम तुम तो भगत सिंह को नमन मत करो पढ़िए भगत सिंह के विचार...
अरुण साथी
आज भारत में धार्मिक उन्माद के चरमोत्कर्ष पर है। आज लेनिन की मूर्तियां गिराई जा रहे हैं। फिर भी धार्मिक कट्टरपंथी और विचारधारा से अलग सहमति रखने वाले लोग भगत सिंह को शहादत दिवस पर नमन कर रहे हैं। उनके और उनके साथियों की तस्वीर के साथ बड़े-बड़े बोल बोल रहे हैं। परंतु वे नहीं जानते कि भगत सिंह ने क्या कहा है। शायद भगत सिंह के इस विचार को पढ़कर वे शर्मसार हो जाएंगे। कम से कम भगत सिंह को नमन करने का अधिकार तो उनको नहीं ही है...
जून 1928 को भगत ने एक आलेख में लिखा है..
‘‘भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट््टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है।
यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है या सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अंधविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं।
कोई बिरला ही हिंदू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठंडा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डंडे-लाठियां, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़ कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फांसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिए जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंगरेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।’’
समाचार पत्रों की भूमिका पर भी खबरों में भेदभाव के आरोप लगते हैं। सांप्रदायिक दंगों के दौरान तो तटस्थ पत्रकारों और अखबारों का मानो अकाल पड़ जाता है। भगतसिंह और उनके साथियों समेत गांधीजी तक को उसका दंश झेलना पड़ा। बापू की शहादत की तो वजह ही यही थी; उनका जीवन सांप्रदायिकता की भेंट चढ़ गया।
लेकिन धर्मांधता को लेकर क्रांतिकारी आंदोलन के नेताओं के विचार स्पष्ट थे और वे समाचार पत्रों पर भी तंज कसने से परहेज नहीं करते थे। हालांकि उस समय पाबंदी और काले कानूनों के कारण ज्यादा पत्रों का प्रकाशन नहीं होता था, लेकिन धार्मिक घृणा उस समय भी पत्रकारिता का अंग थी, जिसका उल्लेख अपने लेखों में भगतसिंह और उनके साथियों ने साफगोई से किया है।
‘‘दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं।
पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक, जिनका दिल और दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो, बहुत कम हैं।
अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या?’’
उपरोक्त वर्णित धार्मिक कट्टरपंथियों के प्रति भगत सिंह के विचार के बाद आइए हम देखते हैं लेनिन के प्रति भगत सिंह ने क्या कहा है..
23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिले थे। उन्होंने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे.
‘इंक़लाब ज़िदाबाद!’
भगत सिंह ने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्युशनरी लेनिन’ लाए या नहीं ? जब मैंने उन्हे किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो।
मैंने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, “सिर्फ़ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और ‘इन्क़लाब ज़िदाबाद !”
इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को उनका धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने उनके केस में गहरी रुचि ली।
मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अफ़सरों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है। अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा.
जब यह ख़बर भगत सिंह को दी गई तो वे मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे. उनके मुंह से निकला, ” क्या मुझे लेनिन की किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे ? ज़रा एक क्रांतिकारी की दूसरे क्रांतिकारी से मुलाक़ात तो ख़त्म होने दो।”
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